बावड़ी फोर्ट : Bavadi Fort |
बावड़ी मेड़तियान गांव का यह क्षेत्र राठौड़ों से पहले कायमखानी नबाबों के अधीन था, पर बाद में मेड़तिया राठौड़ों ने अपने बाहुबल से दौलतपुरा नबाब से यह क्षेत्र जीत कर इसपर अपने ठिकाने कायम किये | इस तरह बावड़ी मेड़तियान गांव यहाँ के जागीरदारों के भाईबंट यानी पैतृक उत्तराधिकार में नहीं मिला बल्कि यह उन्होंने अपने पुरुषार्थ के बल पर पाया था |
रघुनाथसिंघोत मेड़तिया राठौड़ मारोठ, लूणवा, रावां होते हुये बावड़ी आये और यहाँ अपना ठिकाना कायम कर गढ़ बनवाया | राजा रघुनाथसिंहजी के पौत्र सेरसिंह जी को लूणवा मिला | लूणवा से उनके पुत्र जगतसिंहजी कुचामन के पास रावां गांव चले आये और अपना ठिकाना कायम किया | बावड़ी पर अधिकार होने के बावजूद इस परिवार की कई पीढियां रावां गांव में रहते हुए ही इस गांव की व्यवस्था देखती रही | ठाकुर जगतसिंहजी के बाद सगतसिंहजी, दलेलसिंहजी, जसवंतसिंहजी, जोरावरसिंहजी, हमीरसिंहजी, बलवंतसिंहजी, रामसिंहजी, नाहरसिंहजी, पृथ्वीसिंहजी आदि हुए |
परिवार की कई पीढियां बावड़ी गांव में अस्थाई तौर पर निवास करती रही | बाद में वि.सं. 1945 में ठाकुर बलवंतसिंहजी ने इस गढ़ की बाबा जगरामदास जी के निर्देशन में नींव डाली और निर्माण कराया | गढ़ के निर्माण हेतु बाबा जगरामदास जी द्वारा दिए निर्देशों की भी एक रोचक व चमत्कारी कहानी है | वर्तमान ठाकुर पूर्णसिंहजी ने बताया कि बाबाजी ने एक निश्चित जगह से गढ़ को आगे बढाने के लिए मना किया था | लेकिन बाद में गढ़ का आकार बढाने के लिए बाबाजी की बताई जगह को पार कर निर्माण शुरू किया | जिससे कई परेशानियाँ आई | आखिर बाबाजी के पास गए और अपनी समस्या बताई, तब बाबाजी ने बताया कि उक्त जगह एक मुस्लिम फकीर की कब्र थी अत: उसकी कब्र से उसकी अस्थियाँ निकालकर पास ही सम्मानपूर्वक उन्हें दफनाकर उस पर चबूतरा बनायें और उसपर धूप बत्ती की व्यवस्था करें |
आखिर यही किया गया और आज भी उक्त फकीर का स्थान गढ़ के मुख्य दरवाजे के पास बना है जो स्थानीय लोगों की आस्था का केंद्र है |
देश की आजादी के समय यहाँ के आखिरी जागीरदार ठाकुर पृथ्वीसिंहजी थे | वर्तमान में स्व. ठाकुर पृथ्वीसिंहजी के चार पुत्र है – ठाकुर पूर्णसिंह, ठाकुर राजेन्द्रसिंह, ठाकुर मनोहरसिंह और ठाकुर ब्रजपालसिंह |
यहाँ के जागीरदार ठाकुर जसवंतसिंहजी ने किसानों के हितों की रक्षार्थ अपने प्राणों का बलिदान किया था | जनश्रुति है कि पास के जागीरदार के ऊंट बावड़ी गांव के किसानों की फसलों को नुकसान पहुंचाते थे | और बावड़ी गांव के खेतों में पाला (झाड़ियों के पत्ते) खा जाते थे | उस वक्त पाला ऊँटों के चारे के लिए हर किसान की जरुरत हुआ करता था, ऐसे में पड़ौसी जागीरदार के ऊंट किसानों का बहुत नुकसान करते थे | जिसकी शिकायत किसानों ने अपने जागीरदार ठाकुर जसवंतसिंहजी से की|
ठाकुर जसवंतसिंहजी ने पड़ौसी जागीरदार को समझाने की कोशिश की, पर वे नहीं माने | तब जसवंतसिंहजी ने किसानों की सहायता से उन ऊँटों को भगा दिया| इसी बात को लेकर पड़ौसी जागीरदार से उनकी दुश्मनी हो गई और एक उन्हें अकेला देख उन पर हमला कर दिया गया | इस झगड़े में जसवंतसिंहजी लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए | इस तरह अपनी जागीर के किसानों की फसल व चारे की सुरक्षा के लिए ठाकुर जसवंतसिंहजी ने अपने प्राणों का बलिदान दिया | गांव के मध्य चौक में ठाकुर जसवंतसिंहजी का चबूतरा बना है और उस पर उनकी देवली स्थापित है जिसे आज भी स्थानीय निवासी झुझारजी महाराज के रूप में पूजा करते हैं, शादी के ब्याह के बाद नवविवाहित जोड़े उनसे आशीर्वाद लेने हेतु धोक देने आते हैं, इस तरह अपनी प्रजा की सुरक्षा के लिए अपने प्राण उत्सर्ग करने वाले जागीरदार के बलिदान का स्थानीय निवासी आदर व सम्मान करते हैं |
ठिकाने का गांव में गढ़ बना है | गढ़ के सामने चार दिवारी युक्त बड़ा सा मैदान है और उसी मैदान में खुलता है गढ़ का मुख्य द्वार | मुख्य द्वार पार करने पर एक चौक आता है, सामने एक और द्वार नजर आता है, तथा दाहिने ओर एक बड़ा कमरा बना है जिसे आप दीवानखाना कह सकते हैं | भीतरी गढ़ में शानदार झरोखे बने है | गढ़ के चारों और बुर्जें बनी है|