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कन्नौज नरेश जयचंद की पुत्री संयोगिता का ऐतिहासिक सच

 कन्नौज नरेश जयचंद की पुत्री संयोगिता का ऐतिहासिक सच

कौन थी संयोगिता ? क्या कन्नौज नरेश जयचंद पुत्री संयोगिता वाकई थी ?



फिल्म “सम्राट पृथ्वीराज चौहान” प्रदर्शित होने के बाद चौहान सम्राट के इतिहास को लेकर सोशियल मीडिया में जगह जगह बहस हो रही है | खासकर कन्नौज नरेश महाराज जयचंद की पुत्री संयोगिता को लेकर अनेक तरह की चर्चाएँ चल रही है | संयोगिता आज ही नहीं वरन पूर्व काल से ही इतिहासविदों के मध्य चर्चा व शोध का विषय रही है, इसे लेकर इतिहास के विभिन्न विद्वानों के अलग अलग मत है | इतिहासकार देवीसिंह मंडावा ने अपनी पुस्तक “सम्राट पृथ्वीराज चौहान” के पृष्ठ संख्या 80,81,82 पर विभिन्न विद्वानों के मतों का विलेषण किया है जो हुबहू आपके अवलोकनार्थ प्रस्तुत है -

“जयचंद द्वारा राजसूय यज्ञ और संयोगिता स्वयंवर को कई विद्वान ऐतिहासिक घटना नहीं मानते हैं। डा. आर. एम. त्रिपाठी, डा. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा आदि का मत है कि यह 16वीं सदी में एक कहानी बनाई गयी है। अपनी मान्यता की पुष्टि में उनका कहना है कि इन घटनाओंरम्भा मंजरी' में कोई वर्णन नहीं मिलता है तथा जयचन्द के लेखों में भी इसका कहीं उल्लेख नहीं किया गया है। त्रिपाठी का कहना है कि इस युग में स्वयंवर और राजसूय यज्ञ बन्द हो चुके थे। फिर जयचन्द पूरे भारत का सम्राट भी नहीं था जो राजसूय यज्ञ करता।

यहाँ विचारणीय विषय यह है कि राजसूय यज्ञ, अश्वमेध यज्ञ वगैरह अनेक प्रकार के यज्ञ वैदिक परम्पराएं थी। जो भी हिन्दू शासक शाक्तिशाली होता था वही यह यज्ञ कराता था, जैसे पौराणिक काल के बाद सुगनाम, आन्ध्र गुप्ता चालुक्यों आदि ने ये यज्ञ करके अपनी महत्वता इन धार्मिक यज्ञों द्वारा की थी। मुगलशासन काल में भी जयपुर के महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय ने मुगलों के मातहात होते हुए भी अवश्वमेध यज्ञ किया था। इसी प्रकार तीन पीढ़ी पूर्व किशनगढ़ में “पुत्रेष्ठी यज्ञ” किया गया था। अत: उपरोक्त विद्वानों का यह मत है कि चौहान युग में ऐसे यज्ञ बन्द हो गये थे, कोई वजन नहीं रखता है। जयपुर में आमेर मार्ग में आज भी सवाई जयसिंह द्वितीय के यज्ञ का स्तम्भ

दूसरा तर्क जयचन्द के लेखों में वर्णन न किया जाना किया गया है। यह जरूरी नहीं है कि जयचन्द अपने लेखों में यज्ञ एवं स्वयंवर का वर्णन करता ही। माना कि उसने कोई दान पत्र दिया अथवा नहीं दिया तो सभी दान पत्र प्रकाश में आये हैं ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है। महाराजा जयसिंह का समय तो अधिक पुराना नहीं है कि उनके अश्वमेध यज्ञ का कहीं कोई दानपत्र नहीं है।

जब राजसूय यज्ञ व संयोगिता का स्वयंवर में पृथ्वीराज की मूर्ति को माला पहिनाने व वरण कर लेने से जयचन्द का प्रयोजन ही निष्फल हो गया था तो वह ऐसी हालत में यज्ञ का दानपत्रों द्वारा कैसे प्रचार करता।

जहां तकरम्भामंजरी' का प्रश्न है- उसमें जयचन्द के प्रारम्भिक युग का वर्णन दिया गया है। राजसूय यज्ञ और संयोगिता स्वयंवर तो उसके जीवन के पिछले समय की घटनाएं हैं। दूसरी बात यह है कि 'रम्भामंजरी' अपने आप में कोई ऐतिहासिक ग्रन्थ भी नहीं है। वह केवल एक नाटक मात्र है व समकालीन भी नहीं है। वह तो बहुत बाद का नाटक है इसलिये हम इतिहास को नाटक पर आधारित नहीं कर सकते।

इसी प्रकार कुछ विद्वान पृथ्वीराज द्वारा संयोगिता हरण को एक मनगढन्त कहानी मानते हुए निम्न तर्क प्रस्तुत करते हैं कि

(1) संयोगिता का वर्णन पृथ्वीराज विजय में नहीं है। जो.......में पृथ्वीराज के समय में लिखा गया है और सभी विद्वान जिसे प्रमाणिक मानते हैं।

(2) समकालीन फारसी ग्रन्थों में भी संयोगिता हरण का वर्णन नहीं दिया गया है।

(3) नयनचन्द्र सूरी द्वारा रचित रम्भामञ्जरी ग्रन्थ एक नाटक है उसमें संयोगिता हरण का वर्णन नहीं दिया गया है। इसी प्रकार हम्मीर महाकाव्य में जहां पृथ्वीराज का उल्लेख है वहां संयोगिता हरण का जिक्र तक नहीं है।

(4) डा. त्रिपाठी ने माना है कि उस युग में स्वयंवर भी बन्द हो चुके थे।

उपरोक्त आपत्तियों पर जब हम विचार करते हैं तो हम यह स्वीकार करते हैं कि हम्मीर महाकाव्य, रम्भामंजरी और जयचन्द के लेख अवश्य ही उपर्युक्त घटना के विषय में मौन है, लेकिन इस आधार पर यह मान लेना न्याय संगत नहीं होगा कि संयोगिता स्वयंवर का वर्णन असत्य एवं ऐतिहासिकता के परे हैं। हम्मीर महाकाव्य एवं रम्भामंजरी तत्कालीन सभी ऐतिहासिक घटनाओं का वर्णन नहीं करते, इसका मतलब यह नहीं है कि वे सारी ऐतिहासिक घटनाएं भी असत्य है। हम्मीर महाकाव्य तो पृथ्वीराज के भाई नागार्जुन भदानक जाति, चन्देल राजा परमार्दि, चालुक्य राजा भीमदेव द्वितीय एवं परमार राजा धारावर्ष के साथ हुए युद्धों के विषय में भी मौन है जबकि ये बातें पूर्णत: अनैतिहासिक नहीं है। इसी तरह संयोगिता के नाम का वर्णन भी न होना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। परन्तु इसे आधार मानकर यह कहना कि संयोगिता स्वयंवर की कथा और पृथ्वीराज व जयचन्द के मध्य युद्ध होने का विवरण ऐतिहासिक नहीं है, उचित नहीं होगा।

पृथ्वीराज विजय में दिया गया है कि पृथ्वीराज बहुत ही सुन्दर और वीर था। उसकी कई अत्यन्त सुन्दर रानियां थी, फिर भी अप्सरा तिलोत्तमा के चित्र देख व उसके अवतार की अत्यधिक सुन्दरता का वर्णन सुनकर वह उस पर प्रमोन्मत्त हो गया।

पृथ्वीराज विजय तिलोत्तमा को एक राजकुमारी मानता है जो कि गंगा के किनारे रहती थी। पृथ्वीराज रासो भी संयोगिता का महल गंगा के किनारे मानता है। इन दोनों के वर्णनों में समानता है।

यह दलील भी तर्कसंगत नहीं है कि फारसी ग्रन्थों में संयोगिता हरण का वर्णन नहीं है। समकालीन फारसी ग्रन्थों में तो सिर्फ पृथ्वीराज और गौरी के दो युद्धों का ही वर्णन है। इसके अलावा पृथ्वीराज की अन्य जीवन घटनाओं का कोई उल्लेख नहीं है।

'रम्भामञ्जरी' एक नाटक हैं। इसमें जयदेव के पिता का नाम मालदेव दिया है, जबकि जयचन्द का पिता विजयचन्द था। यह पृथ्वीराज के समय का ग्रन्थ भी नहीं है।

हम्मीर महाकाव्य में पृथ्वीराज की अनेक महत्वपूर्ण घटनाओं जैसे - गुडपुर पर आक्रमण, बधानको पर वियज, चन्देलों पर विजय सोलंकियों से युद्ध आदि का कोई उल्लेख नहीं है। अत: इनमें वर्णन नहीं होने के आधार पर ही हम संयोगिता के विवाह को अमान्य नहीं कर सकते।

डा. त्रिपाठी ने माना है कि चौहान काल तक स्वयंवर प्रथा खत्म हो चुकी थी। वैसे संयोगिता हरण का समय ई. 1191 माना जाता है। जैन विद्वान हेमचन्द्र सूरी ने गुजरात के वर्णन में वहां के शासक दुर्लभराज (1008-1022 ए डी) का नाडौल की चौहान राजकुमारी दुर्लभदेवी से स्वयंवर द्वारा विवाह करने का उल्लेख किया है। इसी प्रकार कवि विलहन ने विझयाक देव चरित्र में ई. 1125 में स्वयंवर का वर्णन किया है।

अत: यह कहना कि स्वयंवर प्रथा खत्म हो गई थी, इसलिये संयोगिता का स्वयंवर नहीं हुआ था सर्वथा उचित नहीं कहा जा सकता। अकबर के समय में गंग कवि ने बादशाह को संयोगिता का वरण व उसके हरण की कहानी सुनाई थी। अबुलफजल ने पृथ्वीराज का वरण व संयोगिता के हरण का उल्लेख 'आइने अकबरी' में किया है। सुरजन चरित्र महाकाव्य में यह वर्णन दिया गया है परन्तु उसमें संयोगिता के बजाय कमलावती नाम दिया है।
इससे सिद्ध होता है कि अकबर के समय यह काफी प्रचलित था।

वी. एस. स्मिथ ने संयोगिता का हरण का समय ई. 1125 माना है (E. H. I. 3rded-P 387) सी. बी. वैद्य भी इस घटना को सही मानते है। डा. दशरथ शर्मा जो कि चौहान इतिहास के विशेषज्ञ विद्वान है, मानते हैं कि अभी हमारे सामने संयोगिता हरण को गलत मानने के लिये कोई ठोस प्रमाण नहीं है। इसी प्रकार डा. आर. बी. सिंह भी संयोगिता हरण को एक ऐतिहासिक घटना मानते है।

इन सब विश्लेषणों से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे है कि पृथ्वीराज तृतीय के जीवन की इन घटनाओं को गलत मानने के लिये ठोस प्रमाण का होना अति आवश्यक है जो नहीं है। ऐसी हालत में हमें इसे ऐतिहासिक घटना मानने में कतई ऐतराज नहीं है।

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