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राजा निरंजन सिंह चौहान : चम्बल घाटी में स्वतंत्रता संग्राम के योद्धा :

 राजा निरंजन सिंह चौहान चकरनगर, जिला इटावा, उत्तरप्रदेश का नाम जन-जन में विख्यात है. देश की स्वाधीनता के लिए क्रांति का बिगुल बजाने वाले राजा निरंजन सिंह चौहान बड़े वीर व साहसी व्यक्ति थे जिन्होंने जीवित रहते अपने किले के नीचे से बहने वाली यमुना नदी में से होकर अंग्रेजों को दिल्ली की ओर कभी नहीं जाने दिया. सन 1857 ई. की क्रांति के पूर्व इनके पिता राजा कुशल सिंह के चकरनगर राज्य को अंग्रेजों ने अपने राज्य में मिला लिया था. जब सन 1857 का स्वतंत्रता संग्राम प्रारम्भ हुआ तो चकरनगर के राजा निरंजन सिंह चौहान ने अपने नायकत्व में नव युवकों का एक दल तैयार किया. चम्बल घाटी के समूचे क्षेत्र जिसमें भदावर राज्य का पूरा इलाका भदावर घाट, चम्बल नदी व यमुना नदी तथा क्वारी नदी के आस-पास का क्षेत्र व सिंध नदी तथा पहूज नदी तक के सम्पूर्ण क्षेत्र की जनता इस क्रांतिकारी सेना के साथ उठ खड़ी हुई. इस इलाके की सम्पूर्ण जनता सिंधिया और अंग्रेजों के अत्याचारों के खिलाफ स्वाधीनता की लड़ाई में राजा निरंजन सिंह के नेतृत्व में तन-मन-धन से शामिल हो गई. स्वतंत्रता संग्राम के इन दीवाने योद्धाओं की कई टुकडियां बनाई गई जिन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध कई लड़ाईयां लड़ी.

इटावा की स्वाधीनता - मेरठ, अलीगढ़ एवं मैनपुरी की स्वाधीनता का समाचार इटावा पहुंचा तो इटावा के आस-पास के क्षेत्र के सभी क्षत्रिय राजा, जमींदार अपने नेता राजा निरंजन सिंह के नेतृत्व में इकट्ठे हो गये. 23 मई सन 1857 ई. को क्रांतिकारियों ने अंग्रेज मजिस्ट्रेट डेनियल को मार कर वहां के खजाने पर कब्ज़ा कर लिया. इटावा कलेक्टर ए. ह्युम ने जनता व पुलिस से मदद मांगी, परन्तु जनता व पुलिस क्रांतिकारियों के साथ हो गई. क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों के बंगले जला दिये और उन्हें इटावा छोड़ने का आदेश दिया. सभी अंग्रेज गुप्त रूप से इटावा छोड़कर भाग गये. 23 मई सन 1857 को इटावा शहर में स्वाधीनता की घोषणा कर दी गई. इन्हीं क्रांतिकारियों के साथ 9 नंबर देशी पलटन के सभी सिपाही अलीगढ, बुलंदशहर, मैनपुरी, इटावा और आस-पास के क्षेत्र को स्वाधीन कराके कम्पनी का खजाना लेकर मय हथियार और रसद के साथ दिल्ली की ओर रवाना हो गये. इटावा नगर का शासन प्रबन्ध राजा निरंजन सिंह चौहान को सौंप दिया.

राजा निरंजन सिंह चौहान के सेनापतित्त्व में एक मजबूत क्रांतिकारी सेना का गठन किया गया. इस क्रांतिकारी सेना में कई अलग अलग नायकों के नेतृत्व में कई टुकडियां बनाई गई और उनका दायित्व भी तय किया गया. इन क्रांतिकारी सैनिक टुकड़ियों के नायक इस प्रकार थे- 1. गंगासिंह कुद्दोल 2. प्रीतमसिंह बैस कुकरकाँटा 3. राजा रूपसिंह सेंगर 4. बंकटसिंह कछवाह, ककहरा, जिला भिण्ड 5. रणधीरसिंह भदौरिया व सुजानसिंह भदौरिया, कचोंगारा, जिला भिण्ड 6. झन्डासिंह भदौरिया, सांकरी जिला भिण्ड 7. राजा फतहसिंह सेंगर, रुरुकला, जालौन 8. कमलसिंह व इन्द्रजीतसिंह, अच्छल्दा 9. महेवा के क्रांतिकारी बलदेवसिंह, मुद्दतसिंह व दौलतसिंह आदि.

इन क्रांतिकारी नेताओं के नेतृत्व में इटावा व आस-पास के सम्पूर्ण क्षेत्र का शासन प्रबन्ध बहुत मजबूती के साथ तब तक किया जब तक आगरा से अंग्रेजों की बहुत बड़ी सेना तोपखाने के साथ नहीं आई थी. क्रांतिकारियों का इस सेना के साथ भयंकर युद्ध हुआ. यह युद्ध लगभग एक वर्ष छ: माह तक अलग-अलग स्थानों पर होता रहा. अंग्रेजों के लिए चम्बलघाटी क्षेत्र को विजय करना बहुत दुश्कर हो गया था. इस क्षेत्र में क्रांतिकारियों और अंग्रेजी सेना के मध्य अनेक युद्ध हुये. जो इस इस प्रकार है-

1. चम्बलघाटी का युद्ध- 23 मई सन 1857 ई. रणधीरसिंह भदौरिया को इटावा शहर के दक्षिणी भाग की जिम्मेदारी सौंपी गई थी. अंग्रेजों को इटावा से आगरा जाने की अनुमति दी गई थी, परन्तु एक अंग्रेज अफसर आगरा न जाकर ग्वालियर के लिए रवाना हो गया. रणधीरसिंह भदौरिया को गुप्तचरों द्वारा सूचना मिली कि एक अंग्रेज अधिकारी अपने कुछ साथियों सहित चम्बल नदी पार कर रहा है. रणधीरसिंह भदौरिया तुरंत अपने साथियों को लेकर चम्बल नदी पर पहुंचे. अंग्रेज अफसर अपने साथियों सहित नाव में सवार होकर चम्बल नदी की बहती धारा में पहुँच चुके थे. रणधीरसिंह भदौरिया भी दूसरी नाव में अपने साथियों सहित सवार होकर अंग्रेजों की नाव के पास पहुंचकर मल्लाहों की मदद से अपनी नाव छोड़कर अंग्रेजों की नाव में चढ़ गये और नाव में ही युद्ध शुरू कर दिया. अंग्रेज अफसर और उसके साथियों को मारकर चम्बल नदी की बहती धारा में फैंक दिया गया.

यह समाचार ग्वालियर पहुंचा. ग्वालियर रेजिडेंट मेजर हेनसी तत्काल एक सैनिक टुकड़ी लेकर इटावा की ओर चलकर 24 मई सन 1857 को चम्बल के ग्राम बढपुरा के जमींदार जो अंग्रेज भक्त था, उनके पास आ गया. इस जमींदार ने अंग्रेजों की भरपूर मदद की. 24 मई को ही अंग्रेज सेनाधिकारी मेजर हेनसी सेना लेकर इटावा पर आक्रमण करने के लिए आ गया. उसके पास तोपें थी. उसमें इटावा के क्रांतिकारी दल के सेनानायक राजा निरंजन सिंह चौहान की सेना पर आक्रमण कर दिया. भयंकर युद्ध हुआ, क्रांतिकारी सेना के प्रतिरोध के आगे अंग्रेज सेना को पीछे हटना पड़ा. कई माह रुकने के बाद 18 दिसम्बर 1857 को अंग्रेज जनरल वालपोल कानपुर से सेना लेकर इटावा पर आक्रमण करने आ गया. इधर रणधीरसिंह भदौरिया अपने साथियों को लेकर इटावा शहर के बाहर एक मकान को मोर्चा बनाकर युद्ध करने के लिए तैयार थे. अंग्रेज सेनाधिकारी जनरल वालपोल ने क्रांतिकारियों को समझाने की कोशिश की और मकान खाली करने का आदेश दिया. क्रांतिकारी संख्या में बहुत कम थे. कहा जाता है कि उस मकान में मोर्चा संभाले क्रांतिकारियों की संख्या मात्र पच्चीस-तीस थी.

क्रांतिकारियों ने अपनी देशी बंदूकों से मकान के अन्दर से फायर करके कई अंग्रेज सैनिकों को मार गिराया. आखिर अंग्रेज अधिकारी ने उस मकान को तोप से उड़ा देने का आदेश दे दिया. मकान तोपों के गोलों से उड़ा दिया गया. उस मकान में मोर्चा संभाले सभी क्रांतिकारी शहीद हो गये, केवल रणधीरसिंह भदौरिया मकान के गुप्त मार्ग से दूसरे मकान में पहुंचकर वहां से निकल गये. उनके साथी सुजानसिंह भदौरिया को घायल अवस्था में पकड़ लिया गया, जिन्हें इटावा में फांसी दे दी गई. इस युद्ध में स्वतंत्रता के दीवाने पच्चीस लोग मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए लड़ते हुए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर शहीद हुये. मातृभूमि की रक्षार्थ अपने प्राणों का उत्सर्ग करने वाले इन शहीदों की यादगार में इटावा शहर के उर्दू मुहल्ले में एक स्मारक बना हुआ है.

2. कंचोगरा ग्राम का युद्ध- रणधीरसिंह भदौरिया इटावा युद्ध से बचकर अपने गुप्त ठिकाने पर पहुँच गये. उन्हें पकड़ने के लिए ग्वालियर से एक सैनिक टुकड़ी भिण्ड भेजी गई. एक टुकड़ी कमिश्नर मि. ह्यूम के नेतृत्व में इटावा के रास्ते चम्बल नदी पार कर कूप जिला भिण्ड में भेजी गई. ग्वालियर के सिन्धिया की सैनिक टुकड़ी और इटावा की अंग्रेज सैनिकों की संयुक्त सेना ने रणधीरसिंह के ग्राम कंचोगरा पर आक्रमण कर क्रांतिकारियों को पकड़ना चाहा, परन्तु इस सैनिक अभियान की गुप्त सूचना मिलने पर क्रांतिकारियों ने पूरा गांव खाली करा कर, गांव के सभी स्त्री, पुरुष, बच्चों को मय रसद सामान के जंगल में सुरक्षित पहुंचा दिया. तत्पश्चात क्रांतिकारियों ने रणधीरसिंह के नेतृत्व में युद्ध का मोर्चा सम्भाला. क्रांतिकारियों ने सिंधिया और अंग्रेजी सेना से दो दिन तक संघर्ष किया. तीसरे दिन गुप्त सूचना के आधार पर अंग्रेजी सेना ने गांव में घुसने के प्रयास के तहत क्रांतिकारियों के मोर्चों पर तोपों के गोले बरसाने शुरू किये, इस गोलाबारी में मोर्चे पर डटे अनेक क्रांतिकारी शहीद हो गये. ग्राम कंचोगरा को तोपों द्वारा ध्वस्त कर दिया गया. गांव में पीने के पानी के सभी कुओं को नष्ट कर दिया गया और उनमें वृक्ष काट कर डाल दिये गये. अंग्रेज सेना ने इस प्रकार की विध्वंसात्मक कार्यवाही की जिससे गांव दुबारा आबाद ना हो सके. रणधीरसिंह इस कार्यवाही के बाद भूमिगत गो गये जिनका अंग्रेजों को कोई पता नहीं चल सका

3. जुहिखा घाट का युद्ध- राजा रूप सिंह सेंगर व राजा निरंजन सिंह चौहान ने मिलकर क्रांतिकारियों के विभिन्न मजबूत ठिकाने स्थापित कर दिये थे. 13 अगस्त सन 1858 को अंग्रेज सेनाधिकारी लेंस सौ घुड़सवार और दौ सौ पैदल सैनिक लेकर तातारपुर से जुहिया घाट पहुंचा और वहां से दो नावों को कब्जे में लेकर लूटपाट करते हुए अंग्रेजी सेना नीमरी गांव पहुंची. यह ग्राम क्रांतिकारियों का प्रमुख अड्डा था. अंग्रेजी सेना ने नीमरी  गांव पास पड़ाव डाला. आधी रात के बाद किसी क्रांतिकारी ने अंग्रेज सेना के संतरी को गोली से मार दिया. 14 अगस्त को अंग्रेज सेना व क्रांतिकारियों के मध्य भयंकर युद्ध हुआ. राजा निरंजनसिंह चौहान और उनके साथी राजा रूपसिंह सेंगर थरेह, ठाकुर गंगासिंह कुदौल, ठाकुर हनुमानसिंह हनुमंतपुरा, प्रीतमसिंह बैस कुकरकाँटा, बंकटसिंह कछवाह ककहरा भिण्ड, धान्धूसिंह चौहान ददरा, राजा तेजसिंह चौहान मैनपुरी आदि क्रांतिकारियों ने भयंकर युद्ध किया. इनके कड़े प्रतिरोध के आगे अंग्रेजी सेना को पीछे हटना पड़ा.

15 अगस्त को नदी पार करके एक बड़ी सेना को साथ लेकर फार्ब्स ने आकर नीमरी गांव पर पुन: हमला किया. तोपों द्वारा बमबारी कर नीमरी गांव को ध्वस्त कर दिया गया. गांव में आग लगा दी गई. क्रांतिकारी सेना का बहुत नुकसान हुआ. क्रांतिकारियों ने नीमरी मैदान छोड़कर गुरिल्ला युद्ध की तैयारी हेतु यमुना व चम्बल नदियों के प्रमुख घाटों को अपना अड्डा बनाया और नदी किनारे ऊँचे स्थानों पर मोर्चे स्थापित किये. 27 अगस्त 1858 को आगरा से चलकर अंग्रेजी फ़ौज की सहायता हेतु एक बेड़ा और आ गया. यह बेड़ा इटावा से चकरनगर की ओर रवाना हुआ और आगे चलकर कोठरियों के घाट पर राजा निरंजनसिंह और उनके साथियों ने बेड़े को रोका परन्तु सफल नहीं हो सके. अंग्रेजी बेड़े में तोपें और आधुनिक बन्दूकें थी जबकि उनके मुकाबले के लिए क्रांतिकारियों की देशी बन्दूकें काम ना सकी. 28 अगस्त को सारे दिन राजा निरंजनसिंह और उनके जाबांज अंग्रेजी बेड़े के ऊपर गोलियां बरसाते रहे, फिर भी बेड़े को न रोक सके. बेड़ा गढ़ा का सादा पहुँच गया. यह स्थान राजा रूपसिंह सेंगर का सुरक्षित स्थान था. यहाँ राजा रूपसिंह सेंगर अपने जवानों के साथ मोर्चा संभाले थे. अंग्रेजी फ़ौज का एक दल नदी के दूसरे पार गार्डन की अध्यक्षता में आ गया. राजा रूपसिंह को पकड़ने के लिए दोनों से ओर से घेरा डाला गया. इस युद्ध में राजा रूपसिंह के एक विश्वासपात्र साथी डमरूसिंह मारे गये तथा पांच जवान शहीद हो गये. राजा रूपसिंह सेंगर अन्य साथियों के साथ बचकर निकल गये.

3. गोहानी का युद्ध- अंग्रेजी फ़ौज का बेड़ा गोहानी ग्राम की ओर लौट पड़ा. यहाँ पर लेफ्टिनेंट ग्राहम और मेकानाकी स्थानीय फ़ौज के एक दल को लेकर पहुँच गये. इस दल में अंग्रेज भक्त जमींदारों की सेना भी थी. गोहानी में युद्ध हुआ जिसमें कई क्रांतिकारी मारे गये. शिवप्रसाद, हरवंशसिंह, मुक्खा पकड़े गये. जिन्हें अंग्रेजों द्वारा पेड़ों पर लटकाकर फांसी दे दी गई.

5. भरेह का युद्ध- अंग्रेजी फ़ौज नावों पर सवार होकर भरेह पहुंची. राजा रूपसिंह सेंगर भरेह के किले में क्रांतिकारियों के साथ कब्ज़ा किये हुये थे. अंग्रेजी सेना और राजा रूपसिंह सेंगर की सेना के मध्य भयंकर युद्ध हुआ. इस युद्ध में अनेक अंग्रेजी सैनिक मारे गये. राजा रूपसिंह की गोली से फौजी अफसर डायल की टांग टूट गई. अंग्रेजी फ़ौज यमुना नदी मार्ग से भागी. उसने पुन: चकरनगर पर आक्रमण कर दिया. दुबारा युद्ध में राजा निरंजनसिंह ने अपने को कमजोर पाया और बेहड़ की ओर जाकर मोर्चा सम्भाला. अब भरेह का किला खाली हो चुका था. परन्तु किले तक पहुँचने से पूर्व दो स्थानों पर घमासान लड़ाई हुई, जिसमें दो सौ क्रांतिकारी और 22 अंग्रेज सैनिक मारे गये. अंग्रेज अधिकारी मि. कॉलेट बुरी तरह से घायल हो गया. अंग्रेजों ने भरेह किले की एक बुर्ज को तोप के गोलों से गिरा दिया. 29 अगस्त को ग्राहम का जुहीखा घाट तक कब्ज़ा हो गया. 31 अगस्त सन 1858 को ग्राहम वापस इटावा आ गया. उसी दिन लेफ्टिनेंट ऐलन गार्डन और मेकानाकी एक बड़ी पैदल सेना व दो तोपें लेकर चम्बल नदी के किनारे की महुआ-सूड़ा  तक चले गए. जहाँ राजा रूपसिंह सेंगर के दल ने छ: नावों को इकट्ठा कर लिया था. अंग्रेजी सेना का राजा रूपसिंह सेंगर की सैनिक टुकड़ी से युद्ध हुआ किन्तु राजा रूपसिंह सेंगर अंग्रेजों की बंदूकों के सामने टिक नहीं पाये और अंग्रेजों ने राजा की नावों पर कब्ज़ा कर लिया. उसी रात नावों को लेकर भरेह पहुँच गए.

6. चकरनगर ला युद्ध- 6 सितम्बर सन 1858 को अंग्रेजी सेना चकरनगर पर आक्रमण करने के लिए पहुँच गई. इस सेना ने अपनी योजनानुसार चकरनगर को तीनों ओर से घेर लिया. क्रांतिकारियों का नेतृत्व राजा निरंजनसिंह चौहान कर रहे थे. अंग्रेज सेना और क्रांतिकारियों के बीच घमासान युद्ध हुआ, जिसमें 15 क्रांतिकारी जवान शहीद हो गये. राजा निरंजनसिंह और उनके साथी वीरतापूर्वक लड़े. अंग्रेजों का चकरनगर पर अधिकार हो गया.राजा निरंजनसिंह अपने साथियों के साथ सहसों की ओर तरफ आगे बढ़ गये, जहाँ पर क्रांतिकारियों का अड्डा था. चकरनगर पर अंग्रेजों ने एक बड़ी सेना रखकर छावनी स्थापित कर दी. इस प्रकार से चकरनगर पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया.

राजा निरंजनसिंह चौहान ने सहसों पर मोर्चा सम्भाला. एक अंग्रेज अफसर दो सौ जवानों और तोपें लेकर सहसों पहुंचा. इस मोर्चे पर अंग्रेजों की इस सेना और राजा निरंजनसिंह की क्रांतिकारी सेना के मध्य हुआ, किन्तु राजा की अब शक्ति काफी कमजोर पड़ गई थी. अंग्रेजी सेना ने सहसों पर अधिकार कर लिया. अंग्रेजों ने राजा निरंजनसिंह व राजा रूपसिंह के भय के कारण सहसों में एक सैनिक चौकी स्थापित कर दी. जिससे दक्षिण और पूर्व की ओर से राजा रूपसिंह व राजा निरंजनसिंह की सेनाएं आक्रमण न कर सकें.

7. पालीघाट का युद्ध- 23 अक्तूबर को राजा रूपसिंह सेंगर की सेना ने चम्बल नदी के किनारे पालीघाट पर आ गई, जहाँ पर लेफ्टिनेंट ऐलन पड़ाव डाले हुए था. इस समय लेफ्टिनेंट ऐलन के पास 140 पैदल सैनिक और 25 घुड़सवार सैनिक तथा कुछ स्थानीय सिपाही थे. राजा रूपसिंह की सैनिक टुकड़ी राजा निरंजनसिंह की सेना से मिलने जा रही थी. अंग्रेजी सेना ने चम्बल नदी के किनारे पालीघाट पर उसे रोक कर आक्रमण कर दिया. राजा रूपसिंह सेंगर के इस युद्ध में तीस सैनिक व घोड़े मारे गए. लड़ाई का कुछ सामान भी अंग्रेज सेना के हाथ आ गया. फिर भी क्रांतिकारी सेना के हौसले बुलन्द रहे और अगले मोर्चे की तैयारी हेतु जंगल की ओर चले गए.

8. कन्हों का युद्ध- यद्धपि यमुना, चम्बल व क्वारी नदी के मध्य क्षेत्र के क्रांतिकारियों की शक्ति क्षीण होने लगी थी. लगातार मुठभेड़ व युद्ध करते हुए सैनिक सामान व गोला-बारूद की भी कमी आने लगी थी. इधर राजा निरंजनसिंह व राजा रूपसिंह भी पुन: शक्ति संचित करने हेतु चम्बल नदी घाटी के क्षेत्र में गुरिल्ला युद्ध की तैयारी हेतु चले गए थे. इधर राजा फतेहसिंह रुरुकला के साथ कमलसिंह व इन्द्रजीत सिंह अच्छल्दा ने क्रांतिकारियों का तन-मन-धन से सहयोग किया. इन्द्रजीत को अंग्रेजों ने पकड़ लिया और उनको पांच वर्ष की कैद हुई. राजा फतेहसिंह और कमलसिंह अंग्रेजों के हाथ नहीं आये. इधर अंग्रेज इटावा पर पुन: कब्ज़ा कर अंग्रेजी राज्य स्थापित करने में लगे थे. ऐसी स्थिति में क्रांतिकारियों को विधूना और फंफूद क्षेत्र में कोई भी शरण देने वाला नहीं रहा. 

इसी समय 7 दिसम्बर सन 1858 को फिरोजशाह रूहेला एक बड़ी सेना लेकर आ गया. क्रांतिकारियों की सहायता हेतु उसकी सेना में दो हजार घुड़सवार सैनिक तोपखाने के साथ आ जाने से शक्ति बढ़ गई. यह सेना इटावा जिले के फंफूद पर आक्रमण करने के लिए तैयार थी. अंग्रेज सेनानायक मि.ह्यूम को इसकी सूचना मिली. उसने जनरल फार्ब्स के नेतृत्व में फंफूद की अंग्रेज सेना की सहायता हेतु सेना भेजी. क्रांतिकारी सेना ने फिरोजशाह की सहायता से फंफूद और बेला तहसील के खजाने पर कब्ज़ा कर लिया. अब क्रांतिकारियों की सेना अंग्रेज भक्त हरचन्दपुर और सहार के जमींदारों पर आक्रमण करने के लिए आगे बढ़ी. दिसम्बर 8 को प्रात: अंग्रेजी सेना हरचन्दपुर के जमींदार की रक्षा हेतु पहुंची तो उसका मुकाबला फिरोजशाह रूहेला की सेना से हुआ. इस  समय क्रांतिकारियों की सेना काफी शक्तिशाली हो गई थी. उनके पास सौलह सौ सैनिक, चार सौ देहाती सवार, 125 विद्रोही सैनिक, पांच हजार ग्रामीण, दो तोप, आठ हाथी, तीस ऊंट थे. इन फौजी सरदारों के प्रमुख फिरोजशाह रूहेला, लक्कड़शाह गढ़ के राजा दिलेरसिंह, जयसिंह, छछूंद के ठाकुर दौलतसिंह, बलदेवसिंह, मुद्दतसिंह, भरेह के राजा रूपसिंह सेंगर, राजा निरंजनसिंह चौहान, बंकटसिंह कछवाह ककहरा भिण्ड, रणधीरसिंह भदौरिया कचोंगरा आदि सभी अपने अपने दल के साथ आ गए थे. क्रांतिकारियों की सेना ने हरचन्दपुर और सिहार पर आक्रमण किया. इस युद्ध में हरचन्दपुर के जमींदार गजराजसिंह व उनके साथी चैनसिंह मारे गये जो कि अंग्रेज समर्थक थे. इस लड़ाई में अंग्रेज सेनानायक डायल मारा गया. उसकी सेना के इक्कीस घुड़सवार सैनिक भी मारे गये. क्रांतिकारियों के 58 सैनिक शहीद हो गए. जिनमें एक सरदार मुराद अलीखां मेवाती जो रिसालदार था भी मारा गया. जिसकी कब्र ऊँचा गांव में बनी हुई है. गुलाबशाह का एक हाथ कट गया तथा बहुत से क्रांतिकारी घायल हो गए. कन्हों की यह लड़ाई अंग्रेजों और क्रांतिकारियों के मध्य सबसे बड़ी अंतिम लड़ाई थी. हरचन्दपुर की गढ़ी को क्रांतिकारियों की सेना ने नष्ट कर दी.

10 दिसम्बर सन 1858 को अंग्रेजी सेना के ब्रिगेडियर हरबर्ट के नेतृत्व में अजीतमल पहुंची, जहाँ उसकी लड़ाई क्रांतिकारियों के एक दल से हुई. अंग्रेज सेना क्रांतिकारियों को परास्त कर 11 दिसम्बर को पहुंची और शाम को सहसों पहुँच गई. अंग्रेज जनरल मि.ह्यूम जब सहसों पहुंचा तो उसे सूचना मिली कि फिरोजशाह रूहेला की सेना मध्य भारत की ओर तांत्या टोपे की सहायतार्थ चली गई है. इटावा और उसके आस-पास अंग्रेजी सेना और क्रांतिकारियों का यह युद्ध चम्बल घाटी में लगभग एक वर्ष छ: माह तक चलता रहा. अंग्रेजों द्वारा राजा रूपसिंह सेंगर को पकड़ने के लिए अनेक प्रयत्न किये गये. राजा रूपसिंह सेंगर भूमिगत हो गए. राजा निरंजनसिंह चौहान का सहयोग करने वाले राजपुर के जमींदार गंदर्फसिंह को पकड़ लिया गया और उन्हें दस वर्ष की कारावास की सजा दी गई.

राजा निरंजनसिंह चौहान व राजा रूपसिंह सेंगर भदावर घाट और परिहारा के किसी गुप्त स्थान में छिपकर चम्बल और क्वारी नदी के मध्य बीहड़ क्षेत्र से गुरिल्ला युद्ध के लिए क्रांतिकारियों का नेतृत्व करते रहे. संघर्ष जारी रखने के लिए नई कमान छोटे-छोटे दल बनाकर तैयार की गई जो मौका मिलते ही अंग्रेजी सेना पर घात लगाकर आक्रमण करे. इन क्रांतिकारियों की टोलियों के नायक रणधीरसिंह भदौरिया कचोंगरा, अंगदसिंह कच्छवाह सरसई, झन्डा सिंह भदौरिया साँकरी, मंगतराय मधुपुरा भिण्ड, बंकटसिंह कच्छवाह ककहरा भिण्ड बनाये गए. इन क्रांतिकारी सैनिक टुकड़ियों को गुरिल्ला युद्ध प्रणाली से अंग्रेजों पर हमला करने के लिए तैयार किया गया.

आयुवानसिंह स्मृति संस्थान द्वारा प्रकाशित पुस्तक  "स्वतंत्रता समर के योद्धा" लेखक - छाजुसिंह बड़नगर और भोपालसिंह भदौरिया से साभार 


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