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बाबू कुंवर सिंह : 1857 स्वतंत्रता संग्राम के योद्धा

1857 में स्वतंत्रता की अलख जगाने हेतु सशस्त्र क्रांति करने वाले स्वतंत्रता सेनानियों का नेतृत्व करने वाले इस वृद्ध महानायक और बेजोड़ व्यक्तित्व के धनी बाबू कुंवर सिंह का जन्म 1777 में बिहार के शाहाबाद (अब भोजपुर) जिले जगदीशपुर के उज्जैनी क्षत्रिय (परमार) राज परिवार में हुआ था. आपके पिता का नाम राजा साहिबजादा सिंह व माता का नाम पंचरत्न देवी था. आपका परिवार राजा विक्रमादित्य व राजा भोज की वंश परम्परा का माना जाता है. जगदीशपुर रियासत सम्राट शाहजहाँ ने राजा की उपाधि देकर स्वतंत्र राज्य माना था.



लार्ड डलहौजी की देशी रियासतों को हड़पने की नीति के तहत जगदीशपुर राज्य भी कम्पनी सरकार ने अपने अधीन कर लिया था. जगदीशपुर के राजा कुंवरसिंह आया-पास के इलाकों में अत्यंत लोकप्रिय थे. स्वाधीनता आन्दोलन के समय उनकी उम्र लगभग 80 वर्ष की थी. फिर भी वे बिहार के क्रांतिकारियों के प्रमुख नेता बनने के लिए तैयार हो गए थे. 25 जुलाई 1857 को दानापुर की तीन देशी पलटनों ने स्वाधीनता का ऐलान कर दिया था. जिस समय दानापुर की क्रांतिकारी सेना जगदीशपुर पहुंची, राजा कुंवरसिंह ने उसका जोरदार स्वागत करते हुए उसका नेतृत्व स्वीकार किया. कुंवरसिंह ने इस सेना के साथ आरा पर आक्रमण कर दिया था और अंग्रेजी सेना को हराकर खजाने पर कब्ज़ा कर लिया, जेल तोड़कर कैदियों को मुक्त करा दिया. आरा किले के अन्दर सिखों की सेना थी और उन्होंने किला खाली करने से इन्कार कर दिया. तीन दिन तक आरा किले के कब्जे को लेकर कुंवरसिंह और अंग्रेजों की सिख सेना के मध्य युद्ध हुआ. 22 जुलाई 1857 को दानापुर से कप्तान डनवर के अधीन करीब 300 गोरे सिपाही और 100 सिख आरा के किले की रक्षा के लिए आ गये.

राजा कुंवरसिंह ने अपने कुछ सिपाही आम के बाग़ में आम के पेड़ों की डालियों में छिपा दिए थे. रात का समय था. जब दानापुर की अंग्रेज सेना वृक्षों के नीचे पहुंची तो कुंवरसिंह के सैनिकों ने अचानक उन पर गोलियां बरसाना शुरू कर दिया. अंग्रेजी सेना के लगभग 400 सिपाही मारे गये. कप्तान डनवर इसी बाग़ में मारा गया. बचे हुए सैनिक भागकर दानापुर पहुंचे.

बीबीगंज का युद्ध- मेजर आयर एक बड़ी सेना लेकर तोपों सहित आरा के लिए रवाना हुआ. 2 अगस्त 1857 को बीबीगंज के निकट कुंवरसिंह की सेना से मेजर आयर की सेना का मुकाबला हुआ. मेजर आयर की सेना बहुत बड़ी थी और उसके पास तोपें भी थी. कुंवरसिंह की सेना ने 8 दिन तक युद्ध किया परन्तु शक्तिशाली अंग्रेज सेना के मुकाबले कमजोर पड़ कर पीछे हटना पड़ा. आरा के किले पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया. कुंवरसिंह अपनी रियासत जगदीशपुर लौट आये. मेजर आयर ने जगदीशपुर पर आक्रमण कर दिया. 14 अगस्त 1857 को जगदीशपुर पर अंग्रेजों का कब्ज़ा हो गया.

आजमगढ़ - कुंवरसिंह अपने बारह सौ सैनिकों व परिवार के स्त्री-बच्चों को लेकर जगदीशपुर से बाहर चले गये. कुंवरसिंह ने अपनी शक्ति को बढाने के लिए अन्य क्रांतिकारियों को संगठित कर सेना को शक्तिशाली बनाया. 18 मार्च 1858 को कुंवरसिंह ने अंग्रेजी सेना पर अपने दल के क्रांतिकारियों की सहायता से आजमगढ़ के पास आक्रमण कर दिया. मेजर मिलमैन की सेना भी 22 मार्च को अतरोलिया के मैदान में आ पहुंची. दोनों सेनाओं में युद्ध हुआ और कुंवरसिंह ने अपने सैनिकों को पीछे हटने का आदेश दिया और वे सेना सहित जंगल की ओर चले गये. अंग्रेजों ने समझा कि कुंवरसिंह हार कर भाग गए. मिलमैन की सेना विजय उत्सव मनाकर भोजन कर रही थी, ठीक उसी समय कुंवरसिंह की सेना ने आक्रमण कर दिया. अचानक हुए आक्रमण के कारण अंग्रेजी सेना संभल न सकी और उसके बहुत से सैनिक मारे गये और मिलमैन अपनी बची हुई सेना के साथ आजमगढ़ पहुंचा.

कर्नल डेम्स की पराजय- मिलमैन की सहायता के लिए एक दूसरी सेना कर्नल डेम्स के नेतृत्व में बनारस और गाजीपुर से चलकर आजमगढ़ पहुंची. आजमगढ़ से कुछ दूरी पर  कुंवरसिंह और कर्नल डेम्स की सेना में घमासान संग्राम हुआ. कर्नल डेम्स की हार हुई. कुंवरसिंह के देशभक्त सैनिकों के शौर्य के आगे कर्नल डेम्स को भागकर आजमगढ़ के किले में शरण लेने को मजबूर होना पड़ा. एक बार कुंवरसिंह ने पुन: विजय प्राप्त की. कुंवरसिंह की सेना ने आजमगढ़ के किले पर आक्रमण किया और उस पर अधिकार कर लिया. अंग्रेजी सेना आजमगढ़ खाली करके चली गई.

बनारस पर आक्रमण- जब कुंवरसिंह की सेना बनारस के उत्तर में थी तब लखनऊ के भागे अनेक क्रांतिकारी आकर कुंवरसिंह की सेना में शामिल हो गए. यह समाचार सुनकर गवर्नर जनरल लार्ड केनिंग घबरा गया. उसने अपने लार्ड मार्क के अधीन तोपों सहित एक सेना कुंवरसिंह के मुकाबले के लिए भेजी. 6 अप्रेल 1858 को कुंवरसिंह और लार्ड मार्क की सेना में संग्राम हुआ. कुंवरसिंह सफ़ेद घोड़े पर सवार होकर युद्ध कर रहे थे. इस युद्ध में लार्ड मार्क की पराजय हुई. वह मैदान छोड़कर तोपों सहित आजमगढ़ की ओर चला गया. लार्ड मार्क ने अपने बचे हुए सिपाहियों सहित आजमगढ़ के किले में शरण ली. आजमगढ़ शहर क्रांतिकारियों के कब्जे में था. अंग्रेज सेनापति लगई एक दूसरी सेना लेकर लार्ड मार्क की सहायता के लिए आजमगढ़ की ओर बढ़ा.लगई की सेना तान (टोंस) नदी के पुल पर से आजमगढ़ आने वाली थी. कुंवरसिंह को जैसी ही यहाँ खबर मिली, उन्होंने तुरन्त अपनी सेना का एक दल उस पुल पर लगई की सेना का मुकाबला करने के लिए भेज दिया. कुंवरसिंह स्वयं सेना सहित गाजीपुर की तरफ बढे. पुल पर लगई की सेना से इस छोटे से सैन्य दल ने वीरतापूर्वक मुकाबला किया. जब इस दल को पता चला कि कुंवरसिंह की सेना काफी दूर निकल गई है तो वह दल धीरे धीरे हट कर उस सेना से जा मिला. इतिहासकार मालसेन ने इस सैनिक टुकड़ी की वीरता की खूब प्रशंसा की है. इसके बाद लगई की सेना ने कुंवरसिंह का बारह मील तक पीछा किया, किन्तु कुंवरसिंह हाथ न आये. कुंवरसिंह ने लगई की सेना को चकमा देकर पीछे से हमला कर दिया. अचानक हमले से लगई घबरा गया और इस लड़ाई में उसके कई अधिकारी व सैनिक मारे गये. उसे हारकर पीछे हटना पड़ा. कुंवरसिंह गंगा नदी की तरफ बढ़ गए.

कुंवरसिंह को रोकने के लिए कम्पनी सरकार की दूसरी सेना सेनापति डगलस के अधीन भेजी गई. नघई नामक गांव के पास डगलस और कुंवरसिंह की सेना में युद्ध हुआ. कुंवरसिंह ने अपनी सेना तीन भागों में विभाजित कर तीन दल बनाये. इस तरह युद्ध नीति का परिचय दिया. एक दल सामने से डगलस की सेना से लड़ता रहा, दूसरा और तीसरा दल पीछे से आक्रमण का इंतजार करता रहा. जैसे ही डगलस की सेना चार मील तक युद्ध करती हुई थक गई, उसी समय अचानक कुंवरसिंह की सेना के दोनों दलों ने डगलस की सेना पर आक्रमण कर दिया. डगलस की सेना इस अचानक हमले का मुकाबला नहीं कर पाई और हार कर पीछे हट गई. इस तरह इस युद्ध में कुंवरसिंह की विजय हुई. कुंवरसिंह की विजयी संयुक्त सेना गंगा की तरफ बढ़ी और वे सिकन्दरपुर पहुँच गए. उन्होंने घाघरा नदी पार कर मनोहर गांव में पड़ाव डाला. डगलस की सेना ने इस पड़ाव पर हमला कर कुंवरसिंह के कुछ हाथी, बारूद और कुछ रसद पर कब्ज़ा कर लिया. कुंवरसिंह ने फिर अपनी सेना के कई छोटे-छोटे दल बनाकर अलग-अलग रास्तों से निकल कर नियत किये स्थान पर मिलने की आज्ञा दी. कुंवरसिंह अपनी सैन्य टुकड़ी के साथ गंगा की तरफ बढ़ गए.

इधर चम्बल घाटी के क्षत्रिय यौद्धा झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के साथ मिलकर अंग्रेजों से युद्ध कर रहे थे. कालपी के मैदान में अंग्रेज और क्रांतिकारियों के मध्य भयंकर युद्ध हुआ. कम्पनी की सेना के पास तोपें और आधुनिक बन्दूकें थे. क्रांतिकारियों ने आधुनिक शस्त्रों से लेश कम्पनी सेना का वीरतापूर्वक मुकाबला किया, किन्तु हार गए. रानी लक्ष्मीबाई ने पुन: क्रांतिकारियों को संगठित करने हेतु सभी दलों की एक बैठक बुलाई. इस बैठक में कुंवरसिंह भी आकर शामिल हुए. इस मंत्रणा बैठक में समस्त क्रांतिकारी सेनाओं के नेतृत्व का अधिकार किसी एक व्यक्ति को सौंपे जाने पर विचार हुआ, ताकि उसी एक व्यक्ति के नेतृत्व में, उसी के आदेशों का पालन करते हुए क्रांति का संचालन किया हो. इस हेतु राजा कुंवरसिंह, नाना साहब, रानी झाँसी, तांत्या टोपे आदि नाम प्रस्तुत किये गए परन्तु इनमें किसी एक नाम पर सहमति नहीं बन सकी.

कुंवरसिंह ने वृद्धावस्था के चलते नेतृत्व स्वीकार करने में असमर्थता व्यक्त की व संगठन में बने रहने का निश्चय कर अपनी सेना लेकर कानपुर की ओर बढे. कुंवरसिंह ने कानपुर जेल का ताला तोड़ कर बंदियों को रिहा कराया. इस समय उनके साथ राणा बेनी माधोसिंह, पृथ्वीपाल सिंह, मुज्जफरखां आदि लोग भी थे. कुंवरसिंह की सेना ने आगे बढ़कर गाजीपुर को स्वाधीन कराया. 27 मार्च 1858 को अंग्रेज सेना के सेनापतियों ने मिलकर कुंवरसिंह को घेरने का प्रयास किया, किन्तु वे सफल नहीं हुए. 17 अप्रैल 1858 को नघई में अंग्रेज जनरल डगलस की विशाल सेना से कुंवरसिंह का भीषण युद्ध हुआ और इस युद्ध में अंग्रेज सेना को पीछे हटना पड़ा. इस युद्ध में कुंवरसिंह के कई यौद्धा शहीद हो गए थे. कुंवरसिंह सेना सहित पीछे मुड़कर सिकन्दर वलिया होते हुए गाजीपुर पहुंचे. कुंवरसिंह गंगा नदी पार कर जगदीशपुर पहुंचकर युद्ध संचालित करना चाहते थे. परन्तु जनरल डगलस, जनरल वेली दोनों सेनाएं लेकर गंगा नदी के किनारे आ पहुंचे. रात के अँधेरे में कुंवरसिंह नाव में बैठकर गंगा पार कर रहे थे. जिसकी गुप्त सूचना अंग्रेजी सेना को मिल चुकी थी और उसने गंगा नदी के किनारे मोर्चा बंदी कर ली थी. कुंवरसिंह के ऊपर गंगा नदी में अंधाधुंध गोलीबारी की गई. कुंवरसिंह के बाएं हाथ में एक गोली लग गई. घाव ज्यादा विषाक्त होने से बचने के लिए उन्होंने अपनी तलवार से अपना बायाँ हाथ कर गंगा नदी में फैंक दिया और घायल अवस्था में ही वे अपनी जन्म भूमि जगदीशपुर पहुंचे. जगदीशपुर से 2-3 मील की दूरी पर अंग्रेजी सेना से उनकी सेना का युद्ध हुआ. इस युद्ध में भी अंग्रेज सेना की पराजय हुई. अंग्रेज लेखक व्हाईट लिखता है कि "यह हार हमारी पूर्ण तथा सबसे बुरी पराजय थी." उसी दिन जगदीशपुर में बड़े हर्ष, उल्लास के साथ आम जनता का दरबार लगाया गया. राजा कुंवरसिंह के कटे हुए हाथ का घाव ठीक नहीं हो सका. 24 अप्रैल 1858 को इस महान देशभक्त ने संसार से विदा ली. संसार छोड़ने से पहले इस वीर यौद्धा ने जगदीशपुर में स्वाधीनता का झंडा फहरा दिया था. क्षत्रिय परम्परा के अनुरूप हार हार कर भी अपने उद्देश्य की सफलता के लिए संघर्ष करने का प्रेरणापूर्ण उदाहरण प्रस्तुत किया.

भारत की स्वाधीनता संघर्ष के इतिहास में वीर बाबू कुंवरसिंह का नाम स्वर्णिम अक्षरों में लिखा गया है, 80 वर्ष की आयु में भी उनके द्वारा मातृभूमि के लिए किया गया संघर्ष देश की आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा स्त्रोत बना रहेगा.

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