सन 1857 के स्वाधीनता संग्राम में अग्रणी क्षत्रिय योद्धाओं के
साथ-साथ क्षत्रिय वीरांगनाओं का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है. परन्तु इतिहास में
कुछ ही महिलाओं के नाम से देश का बच्चा-बच्चा परिचित है. कुछ अल्पज्ञात महिलाएं
जैसे जैतपुर की रानी, धार की राजमाता, तुलसीगढ़ की रानी तथा रायगढ़ की रानी आदि ने
स्वाधीनता संग्राम में अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष किया और अंतिम समय तक हार नहीं
मानी.
जैतपुर बुन्देलखण्ड की एक छोटी सी रियासत थी. इस राज्य में स्वतंत्र
अस्तित्व को लार्ड एलनब्रू ने समाप्त कर अंग्रेजों के अधिकार में कर लिया था.
नवम्बर 27 सन 1842 को लार्ड एलनब्रू ने जैतपुर के दोनों किलों पर अपना अधिकार कर उसे ब्रितानी साम्राज्य में मिला लिया
था। उस समय जैतपुर पर आजादी के प्रेमी राजा परीक्षित शासन कर रहे थे। उनका मुख्य
उद्देश्य ब्रितानी सत्ता को भारत से उखाड़ फैंकना था। पर वे कंपनी की तुलना में
कमजोर थे। अतः कंपनी की सेना ने बहुत आसानी से उन्हें पराजित कर दिया और जैतपुर पर
अधिकार कर लिया। ऐसी स्थिति में परीक्षित को जैतपुर छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा।
ब्रिटिश सरकार ने अपने एक समर्थक सामंत को जैतपुर का शासन-भार सौंप दिया। इससे
जैतपुर के राजा परीक्षित को मानसिक आघात पहुँचा। वे इस दुःख को सहन नहीं कर सके और
इस दुनिया से चल बसे।
जैतपुर के राजा परीक्षित की मृत्यु के बाद उनकी
रानी ने प्रतिज्ञा की कि वे अपने जीवन के अंतिम समय तक अंग्रेजों की दासता स्वीकार
नहीं करेंगी। रानी के लिए अंग्रेजों का व्यवहार असहनीय हो गया और उन्होंने प्रथम
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय अन्य राजाओं की भाँति विद्रोह किया और अपने
राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिए अंग्रेजों से संघर्ष प्रारंभ कर दिया। समस्त
मालवा प्रान्त में पहले से अंग्रेजों के विरुद्ध गहरा आक्रोश था. बानपुर, शाहगढ़,
पतेरा आदि के राजाओं ने भी विद्रोह कर दिया. जैतपुर की रानी के नेतृत्व में
अंग्रेजों से मोर्चा लेने की तैयारी की गई.
सन 1857 की क्रांति के आरम्भ होते ही जैतपुर की
रानी ने अपने को स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया. रानी ने तहसीलदारी के सुरक्षित कोष
पर अपना अधिकार कर लिया. हमीरपुर के कलेक्टर जी.एच.फ्रिलिंग ने गवर्नर जनरल को
लिखा कि- "इस परगना के समस्त ठाकुर रानी का साथ दे रहे है." दतिया के
राजा देशपत और कुर्जप्रसाद भी रानी का साथ दे रहे थे. राजा हुनजी एवं टैटसिंह भी
रानी के साथ थे. ये दोनों राजा देशपत के सम्बन्धी थे. दतिया के राजा देशपत ने
अंतिम क्षण तक रानी का साथ दिया था. दिसम्बर 30 सन 1857 के "हिन्दू
पैट्रियट" कलकत्ता के अंक में लिखा हुआ था- कि बुन्देलखण्ड क्षेत्र में
समय-समय पर विद्रोह की ज्वाला फूट पड़ती है. जैतपुर क्षेत्र में देशपत का प्रभाव
था. इस प्रदेश के चारों ओर घने जंगल थे. विद्रोहियों को पकड़ना बहुत कठिन था.
अंग्रेजों ने देशपत के पास अपने कई सन्देशवाहक भेजे. देशपत ने उनमें से छ: के
टुकड़े-टुकड़े कर डाले. हमीरपुर के कलेक्टर ने देशपत को कुख्यात डाकू की संज्ञा दी
थी. ऐसे अद्वितीय साथी के सहयोग से जैतपुर की रानी ने अंग्रेजों को नाकों चने चबवा
दिए थे.
जैतपुर की रानी ने ब्रितानियों के विरुद्ध
संघर्ष जारी रखा, परंतु अंत में उन्हें युद्ध के मैदान से भागने के लिए विवश होना पड़ा।
भारत के लिए यह दुर्भाग्य की बात है कि अपने ही लोग संकट के समय देश के दुश्मन की
मदद करते हैं। अगर प्लासी के युद्ध (1757) में नवाब सिराजुद्दौला के मुख्य सेनापति
मीर जाफर ब्रितानियों से मिलकर नवाब के साथ धोखा न करते, तो आज भारत का इतिहास भी कुछ और होता।
प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में जहाँ तक एक ओर रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, बाबू कुंवरसिंह आदि ने ब्रितानी हुकूमत
को धराशायी करने के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया, वहाँ दूसरी और कुछ शासकों ने इस
संग्राम को कुचलने में अँग्रेज सरकार की मदद की। यहाँ भी यही हुआ। एक महिला
ब्रितानियों के खिलाफ संघर्ष कर रही थी, तो कुछ देशद्रोही शासक तथा सामंत उनके
विरुद्ध ब्रितानियों की मदद कर रहे थे। चरखेरी के राजा ब्रितानियों के मित्र थे।
उन्होंने ब्रिटिश सरकार के समर्थन में रानी की सेना से युद्ध प्रारंभ कर दिया।
रानी ने अपूर्व वीरता का परिचय दिया. कुछ दिनों तक भयंकर युद्ध चला, जिसमें अनेक क्रांतिकारी इस देश की
आजादी के लिए शहीद हो गए। ऐसी स्थिति में विवश होकर रानी टिहरी की ओर चली गईं। उनके
सहयोगी दतिया के देशपत जैतपुर के घने जंगलों में छिप गए और जीवनपर्यन्त अंग्रेजों
से लोहा लेते रहे. वीर सेनानी हारकर भी नहीं हारते. जैतपुर की रानी की वीरता एवं
देशभक्ति की भावना इतिहास के पन्नों में अमर रहेगी.
जैतपुर की रानी के उत्साह एवं साहस को हम कभी नहीं भुला सकते। उन्होंने अपने त्याग और बलिदान के कारण भारतीय इतिहास में अपना नाम अमर कर दिया।