राजा रघुनाथसिंह राठौड़
राजा रघुनाथसिंह राठौड़ का जन्म मालवा क्षेत्र के अमझेरा (धार) रियासत
के राजा बख्तावरसिंह की रानी सीसोदेवी के गर्भ से भादो सुदी 3 सम्वत 1894 (सन
1837) को हुआ था. सन 1857 के वीर क्रांतिकारी राजा बख्तावरसिंह को अंग्रेजों
द्वारा 10 फरवरी 1858 को इन्दौर में फांसी दे दी गई थी. अमझेरा की रानी ने
अंग्रेजों से निवेदन किया कि उनका बेटा रघुनाथसिंह निर्दोष है, उसे अमझेरा का राजा
घोषित किया जावे. परन्तु अंग्रेजों ने कोई विचार नहीं किया और अमझेरा का राज्य
ग्वालियर के अंग्रेज भक्त सिन्धिया को दे दिया गया. अंग्रेजों ने सिन्धिया को आदेश
दिया कि इस राज्य से कुछ भाग जागीर के तौर पर उन लोगों को दिया जावे, जिन्होंने
राजा बख्तावरसिंह को गिरफ्तार करने में मदद की थी.
महाराज बख्तावरसिंह को फांसी दिए जाने के पश्चात् क्रांतिकारियों ने
आम जनता के सहयोग से लालगढ़ के किले में ही युवराज रघुनाथसिंह को राजा घोषित कर
अमझेरा का महाराज बना दिया. राजा रघुनाथसिंह ने लालगढ़ के किले में ही सामरिक
तैयारी प्रारम्भ कर दी. इससे अंग्रेजों में भय व्याप्त हो गया और उन्होंने
ग्वालियर के राजा सिन्धिया से अमझेरा राज्य के सम्बन्ध में चर्चा की. 18 अगस्त 1858 को ग्वालियर के पॉलिटिकल एजेन्ट ने
एक आदेश जारी कर घोषित किया कि अमझेरा में विद्रोह करने वालों को गोली से उड़ा दिया
जावे.
इस आदेश का अमझेरा के युवा महाराजा रघुनाथसिंह पर कोई प्रभाव नहीं
पड़ा. उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध प्रचण्ड विद्रोह कर क्रांति का संचालन किया.
अंग्रेजों और सिन्धिया की सेनाओं ने क्रांति को कुचलने के लिये अमझेरा पर आक्रमण
कर दिया. राजा रघुनाथसिंह के नेतृत्व में क्रांतिकारी सेना और जनता ने
आक्रमणकारियों का बहादुरी से मुकाबला किया. परन्तु शत्रु की सेना और तोपों के
सामने अधिक समय तक मुकाबला नहीं कर सके. क्रांतिकारियों की सेना अमझेरा नगर छोड़कर
पीछे जंगलों की ओर हट गई. लालगढ़ किले पर राजा रघुनाथसिंह और क्रांतिकारी सैनिकों
का कब्ज़ा बना रहा.
सिन्धिया और अंग्रेजों की सेना ने लालगढ़ के किले पर आक्रमण कर दिया.
क्रांतिकारियों की सेना ने आगे बढ़कर मोर्चा सम्भाला. विंध्य पर्वत की घाटियों में
युद्ध हुआ. सिन्धिया और अंग्रेजों की सेना घाटियों के मार्ग में भटक गई और
क्रांतिकारियों की सेना ने भील सैनिकों की सहायता से अंग्रेजों की सेना के सैनिकों
को बड़ी संख्या में हताहत किया. उन्हें पीछे धकेल दिया. इस पर सिन्धिया ने
अंग्रेजों की ओर से एक सन्धि प्रस्ताव रखा. इस सन्धि प्रस्ताव की शर्तें थी कि
ब्रिटिश सेना के अमझेरा राज्य स्वतंत्र कर देगी. क्रांतिकारी सेना ब्रिटिश सेना की
छावनियों पर आक्रमण नहीं करेगी. महाराजा रघुनाथसिंह ने यह सन्धि स्वीकार कर ली.
इस सन्धि के पश्चात् राजा रघुनाथसिंह ने लालगढ़ किले को सामरिक दृष्टि
से तैयार करवाया. किले के प्रमुख स्थलों पर सैनिक मोर्चे तैयार कर सैनिक टुकडियां
तैनात कर दी. राजमहल को पूर्णत: सुरक्षित कर दिया. पहाड़ों की घाटियों में धनुषबाण
लेकर भील सैनिकों को तैनात कर दिया. छापामार दस्तों को तैनात कर लालगढ़ किले के
निर्देश पर कार्यवाही करने का आदेश दिया गया. राजा रघुनाथसिंह सैन्य स्थिति पर
विचार विमर्श के लिए किले के बाहर भी बैठकें करते रहते थे.
अंग्रेजों द्वारा सन्धि का उलंघन किया गया. राजा रघुनाथसिंह को न तो
अमझेरा का राजमहल वापिस दिया और न अमझेरा राज्य स्वतंत्र घोषित किया गया. राजा
अंग्रेजों की कूटनीति समझ चुके थे. राजा के हृदय में अंग्रेजों द्वारा पिता को
फांसी दिए जाने के खिलाफ आग धधक रही थी, वे अंग्रेजों से अपने पिता की फांसी का
बदला लेने की तैयारी कर क्रांतिकारियों की सेना के साथ सन 1865 में भोपावर में
अंग्रेज छावनी पर आक्रमण करने के लिए आगे बढे. अंग्रेजों को गुप्तचरों द्वारा इसकी
सूचना मिल चुकी थी. अंग्रेज सेनापति ने ग्वालियर के पॉलिटिकल एजेन्ट को आदेश देकर
विन्ध घाटी में सिन्धिया की सेनाएं जगह जगह तैनात करवा दी गई. सिन्धिया और
अंग्रेजों की सेना ने राजा रघुनाथसिंह की क्रांतिकारी सेना के लिए नाकेबन्दी कर दी
थी. रात के अँधेरे में सिन्धिया और अंग्रेजी सेना ने मिलकर लालगढ़ के किले पर
जबरदस्त हमला किया. उस समय क्रांतिकारियों की सेना भोपावर छावनी पर आक्रमण करने
में व्यस्त थी. लालगढ़ के किले में सुरक्षा की दृष्टि से केवल एक हजार सैनिक थे.
किले की रक्षा के लिए राजा रघुनाथसिंह ने भयंकर युद्ध किया. शत्रु पक्ष के पास
अधिक शक्तिशाली सेना और तोपखाना था. अंग्रेजों और सिन्धिया की सेनाओं के प्रहार से
लालगढ़ के किले की दक्षिणी रक्षा पंक्ति ध्वस्त हो गई और शत्रु पक्ष की सेनाओं ने
किले में प्रवेश कर लिया. राजा रघुनाथसिंह युद्ध लड़ते हुए शहीद हो गए. उनके पुत्र
किसनसिंह और राजपरिवार के दो अन्य सदस्यों की भी हत्या कर दी गई. इस युद्ध में अनेक क्रांतिकारी शहीद हो गये थे.
सिन्धिया और अंग्रेजी सेना की तोपों ने लालगढ़ को ध्वस्त कर दिया. इस
दुर्ग के भग्नावशेष आज भी क्रांतिवीर रघुनाथसिंह के शौर्य, शहादत तथा देशप्रेम की
अमर कहानी सुना रहे है.