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स्वतंत्रता समर के योद्धा राव गोपालसिंह खरवा का व्यक्तित्व



राव गोपालसिंह का व्यक्तित्व बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न था। यद्यपि उन की शिक्षा-दीक्षा उच्चस्तरीय शिक्षण स्तर तक नहीं पहुंच पाई थी। मेयो कॉलेज की पढ़ाई उन्होंने आठ वर्ष बाद ही छोड़ दी थी। घर पर उन्होंने संस्कृत और हिन्दी की शिक्षा सुयोग्य पंडित द्वारा प्राप्त की थी। किसी स्कूल, कॉलेज या उच्च शैक्षणिक संस्था में प्रवेश लेकर उन्होंने शिक्षा प्राप्त नहीं की थी। फिर भी अंग्रेजी में लिखित, उच्च कोटि की पुस्तकें, जिनमें इतिहास वेदान्त और राजनीति के गहन विषय निबद्ध होते थे, वे बड़ी आसानी से पढ़ते और समझ लेते थे। अंग्रेजी में धारा प्रवाह बोलकर वे अपने भावों को अच्छी तरह से व्यक्त कर सकते थे। हिन्दी पत्रों में प्रकाशित उनके लेखों और सभा-मंचों से दिए गए उनके भाषणों से ज्ञात होता है कि हिन्दी भाषा पर उनका अच्छा अधिकार था।

संस्कृत के प्राचीन ग्रन्थ रामायण, महाभारत, गीता आदि में वर्णित गहन विषयों की उन्हें अच्छी जानकारी थी। इतिहास विषयक उनका ज्ञान इतना बढ़ा-चढ़ा था कि राजस्थान से इतर गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश के क्षत्रिय वंशों के संदर्भ में वे एक विशेषज्ञ की भांति बोलते थे। खनिज धातुओं के संदर्भ में भी उनका अध्ययन था। उनका व्यक्तित्व sall made था। विविध विद्याओं व गहन विषयों का ज्ञान उन्हें किसी ने सिखलाया नहीं था, किन्तु उन्होंने अपनी जन्मजात प्रतिभा एवं पूर्व जन्म के संस्कारों से स्वयम् अर्जित किया था। उन्हें किसी ने महान् बनाने का प्रयत्न नहीं किया, किन्तु वे अपने महान् कार्यों से ही महान् बन गए थे।

उस समय की राजनीति में उनका उल्लेखनीय स्थान था। वे उस काल के राजनीतिक रंगमंच के प्रमुख पात्रों में से एक थे। उस काल के जिन क्रान्ति नेताओं का इतिहास में नाम मिलता है, उनमें गोपालसिह खरवा का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जाने योग्य है। उन्होंने अपने राजपूती साहस और शौर्य से प्रेरित होकर उस विप्लवकारी समय में एक ऐसा उल्लेखनीय कार्य कर बताया, जो अनेक शताब्दियों तक काल के थपेड़े सहता हुआ भी अमिट बना रहेगा। देश भक्ति और त्याग के कार्य में देश के अन्य क्रान्तिकारी नेताओं में वे अग्रणी थे। देश की स्वतंत्रता हेत किए गए क्रान्ति संघर्ष की सजा के रूप में अंग्रेजों ने उनकी पैतक जागीर जब्त करली थी। उन्हें जेल की सजा दी गई। नजरबन्दी तोड़कर उन्होंने जंगलों मे कठिन जीवन बिताया। अन्त में शक्तिशाली अंग्रेज सेना का सामना करते हुए मरनेमारने को सन्नद होना पड़ा। कूटनीति में चतुर अंग्रेज शासकों ने उन्हें सन्मुख मुकाबले में मृत्यु का वरण करने का मनोवांछित अवसर नहीं दिया। वरना आज इस महावीर राजपूत का इतिहास ओर ही तरह से लिखा जाता।

क्षात्रत्व की वे प्रतिमूर्ति थे। क्षात्रधर्म को वे स्वधर्म मानते थे। “स्वधर्म-निधनम् श्रेयः" के गीतोक्त वाक्य के मर्म को उन्होंने खूब समझ रखा था। क्षात्र-धर्म के तेज, वीरता, निडरता, साहस, परित्राण, दया, क्षमा, औदार्य आदि गुणों का उनमें अद्भुत सम्मिश्रण था। अहिंसा और हिंसा के भेद को उन्होंने सूक्ष्मता से समझ रखा था। अन्याय और उत्पीड़न को मिटाने और दुष्ट व अत्याचारियों को नष्ट करने हेतु किया गया कार्य हिंसा नहीं माना जाता है, यह उनकी मान्यता थी। “परित्राणाय-साधुना, विनाशाय च दुष्कृताम्" का असली भावार्थ यही है कि सज्जनों की रक्षा करना और अत्याचारियों व दुष्टजनों का विनाश करना ही क्षत्रिय का धर्म है-स्वकर्त्तव्य है। उसमें हिंसा मानना कायरता और नपुंसकता का द्योतक है।

अश्व संचालन, शस्त्र संचालन एवं जंगलों में एकाकी भ्रमण करते रहने जैसे परम्परागत क्षत्रियोचित्त गुण उनमें विद्यमान थे। सन् 1915 ई. में आयोजित क्रान्ति के समय नसीराबाद सैनिक छावनी पर आक्रमण करने की योजना, टॉडगढ़ की नजरबन्दी तोड़ने का अति साहसिक कार्य, सलेमाबाद मंदिर में अंग्रेज सेना द्वारा घेरे जाने के समय 500 सैनिकों से अकेले लोहा लेने की तत्परता तथा सदर काश्मीर भूमि पर हिन्दू हितों की रक्षार्थ मरने-मारने का व्रत लेकर कूच करना आदि कार्य, उनकी राजपूती के ज्वलंत एवं जीवन्त प्रमाण है। यही वे शानदार स्थल थे जहाँ उनकी राजपूती के दर्शन किए जा सकते थे।

वे जैसे वीर पुरुष थे, वैसे ही समर्पित भगवद् भक्त थे। उनके अन्तिम महाप्रयाण का रोमांचक दृश्य जिन लोगों ने स्वनेत्रों से देखा था, वे जान सकते हैं कि उनकी ईश्वर में शरणागति भावना कितनी उच्चावस्था तक पहुँची हुई थी। राजपूती परम्परा और भारतीय संस्कृति पर उन्हें गर्व था। देशभक्ति और त्याग में वे किसी से कम नहीं थे। उनकी ईश भक्ति और साधु सेवा सराहनीय थी। हिन्दू, बौद्ध जैन, सिख सभी धर्मों के आचार्यों और मुनियों का वे समान भाव से आदर करते थे।खरवा में चतुर्मास करने वाले जैन मुनियों के उपाश्रय में पैदल जाकर दर्शन करते थे। उस कालखण्ड में होने वाले देशी राजाओं में, देश के नेताओं में और विद्वत् समाज में वे मान्य नेता थे। उपर्युक्त विशेषताओं के साथ-साथ उनमें कुछ कमियाँ भी थीं जो ऐसे असाधारण परुषों में प्रायः पाई ही जाती हैं। वे मितव्ययी नहीं थे। उन्होंने सदेव अपनी आय से अधिक खर्च किया। जिससे उनको कर्जदार बनना पड़ा और जब तक ठिकाने पर उनका अधिकार बना रहा-ठिकाना लाखों रुपयों का कर्जदार बना दिया गया था। उन्होंने साधु-महात्माओं, कवि-कोविदों और अभावग्रस्तों को औदार्य भाव के साथ आर्थिक मदद दी। कल का खर्च कैसे चलेगा-उस ओर उनका ध्यान कभी नहीं गया।
समय के वे कभी पाबन्द नहीं रहे। सभास्थलों पर वे सदैव देर से पहुँचते थे। उपस्थित जनसमूह को उनकी प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। रेल्वे स्टेशन पर वे कभी समय पर नहीं पहुंचते थे। उनके ठीक समय पर न पहुँचने के कारण रेल छूट जाने पर रेलडिब्बों में रखा उनका सामान अनेक बार रेल से प्लेटफार्म पर उतारना पड़ता था। अथवा स्टेशन मास्टर और रेल्वे गार्ड से अनुरोध कर गाड़ी रुकवानी पड़ती थी।

अपनी मनेच्छा के विपरीत तथ्य को मानने के लिए वे कभी तैयार नहीं होते थे। स्वभाव में जिद्द और हठ भरा हुआ था। साधु संतों के प्रभाव में बहुत जल्दी आ जाते थे। चाहे वह साधु ढोंगी ही क्यों न हो। परन्तु इन मानवोचित दुर्बलताओं के बावजूद भी वे अपने समय के एक असाधारण पुरुष थे। उनका बाह्य रूप देखकर क्षत्रिय के शरीर की शास्त्रोक्त कल्पना साकार हो जाती थी। उस भव्य दर्शनीय शरीर के भीतर क्षत्रियोचित्त गुणों से अलंकृत लोह-पुरुष विराजमान था।

राव गोपालसिंह का विवाह संयुक्त प्रान्त के रायबरेली जिले में स्थित शिवगढ राज्य के राजा विश्वेश्वर सिंह की पुत्री राजकुमारी छत्रपाल कंवर के साथ वि. सं. 1947 में सम्पन्न हुआ था। शिवगढ़ संयुक्त प्रान्त में गौड़ राजपूतों का एक समृद्ध एवं प्रतिष्ठित राज्य था। राणी गौड़ जी के गर्भ से चार पुत्र सन्तानें हुई, किन्तु उनमें से तीन शैशवास्था में ही चल बसीं। कुंवर गणपतसिंहजी उनकी चतुर्थ सन्तान थे, जो बाद में खरवा के शासक बनाए गए।


 

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