जोधा (राठौड़) कुँवर गोपालसिंह खरवा
मेयो कॉलेज-इंग्लैण्ड
की महाराणी विक्टोरिया द्वारा भारत साम्राज्ञी की उपाधि एवं राजमुकुट धारण करने के
बारह वर्ष पश्चात् राजपताना के ए.जी.जी. कर्नल सी के.एम. वाल्टर ने राजपूताना के राजकुमारों
की शिक्षा के लिए अजमेर में एक विशिष्ट एवं उच्च स्तरीय शिक्षण संस्थान स्थापित करने
का सुझाव रखा । तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने उक्त सुझाव के महत्त्व को समझा। वायसराय
लार्ड मेयो ने 22 अक्टूबर
सन 1870 ई. को अजमेर में आयोजित
दरबार में उपस्थित महाराजाओं, राजाओं एवं सामन्त ठाकुरों के सामने उक्त योजना रखी और उनसे उक्त महान कार्य
के निमित्त चंदा देने की पुरजोर अपील की। अन्त में सन. 1875 ई. में राजस्थान के
हृदय स्थल अजमेर नगर में भव्य एवं विशाल शिक्षण संस्थान की स्थापना हुई। तत्कालीन वायसराय
लार्ड मेयो के नाम पर शिक्षा-संस्थान का नाम मेयो कॉलेज रखा गया। समस्त भारतवर्ष में
अपने ढंग का यह निराला शिक्षण स्थान था एवं इस देश के चारों राजकुमार कॉलेजों में महत्त्व.
विस्तार और भव्यता की दृष्टि से इस सर्वोपरि माना गया। (Ajmer by Sarda, p. 121)
वि. सं.
1942 (ई. 1885) में कुँवर गोपालसिंह
को इसी ख्यातनाम संस्था मेयो कॉलेज में प्रवेश दिलाया गया। वहाँ वे छे वर्ष ही अध्ययन
कर पाये थे कि वि. सं. 1948 में
सहसा उन्होंने कॉलेज छोड दी। उस काल उनकी आय 18 वर्ष हो चुकी थी। उक्त समय से एक वर्ष पूर्व ही वि. सं. 1947 (ई. सन् 1890) में उनका विवाह उत्तर
प्रदेश की शिवगढ़ रियासत के गौड़ राजा की राजपुत्री के साथ सम्पन्न हो चुका था।
वि. सं. 1948 फाल्गुण कृष्णा 12 को, उनकी माता राणी चूण्डावत जी का अल्पकालीन रुग्णता के पश्चात् देहान्त हो गया। बीमारी की अवस्था में अपनी माता के अन्तिम दर्शन करने का उन्हें अवसर नहीं मिला। माता की मृत्यु होने पर ही उन्हें मेयो कॉलेज अजमे से खरवा बुला लिया गया। नवयुवा कुं. गोपाल सिंह के मन पर इस घटना से गहर आघात लगा। माता के अन्तिम दर्शन न कर पाने का उन्हें जीवन भर पश्चाताप बन रहा। समय पर सूचना भेज कर उन्हें खरवा समय पर न बलाने का सारा दोष खरव राज्य के तत्कालीन दीवान पर डाला गया। प्रधान दीवान पद पर उस काल जोश किशनलाल (पुष्करणा) नियुक्त थे। तभी से जोशी और क. गोपालसिंह के मध्य तनातन और विरोध का प्रारंभ हुआ। इसी प्रसंग को लेकर कुँवर गोपालसिंह की राव माधोसिंर से भी खटपट शुरू हुई।
घर से प्रस्थान-तेज एवं उग्र स्वभाव कुँवर गोपालसिंह मेयो कॉलेज की पढ़ाई छोड़ कर मंडावा (शेखावाटी) के ठा. अजीतसिंह के पास जयपर चले गये। वे रिश्ते में कँवर गोपालसिंह के फूफा होते थे। मंडावा भवन जयपुर के अल्प कालिक निवास के समय नवयुवा कुँवर गोपालसिंह ने एक रोज वहाँ पर आयोजित शेखावतों की एक मीटिंग का दृश्य देखा। वहाँ पर वे सब अपने स्वत्वाधिकारों की रक्षा के मसले पर विचार-विमर्श करने हेतु इकटे हुए थे। बड़े हाल में फर्श पर बिछी एक लम्बी चौडी जाजम पर बड़े छोटे का भेद भुला कर, ताजीमी और गैर ताजीमी का विचार दिमाग से निकाल कर, बराबरी के भाई चारे की भावना से वे सब उस जाजम पर बैठे हुए थे। उनमें जो पहले आया, आगे जा बैठा, देर से आया तो पीछे जहाँ जगह मिली वहाँ जा बैठा। परस्पर समानता के उस अभूतपूर्व दृश्य को देखकर स्वतंत्र चेता कुँवर गोपाल सिंह भाव विभोर हो उठा। समान बंधुत्व की उस अनूठी भावना से उसके मन मस्तिष्क को आन्दोलित कर डाला। खेतड़ी के राजा अजीतसिंह बहादुर को भी उसने सर्व प्रथम वहीं पर देखा, जो जरा देर से आया था और आते ही जहाँ जगह देखी एक किनारे पर जा बैठा। उसके व्यक्तित्व की महत्ता और भाइयों के साथ बरती सादगी ने भी खरवा के उस नवयुवक कुँवर को अत्यधिक प्रभावित किया था।
अपने
जीवन के क्रांतिकारी काल में भी राव गोपालसिंह शेखावतों के संगठन और समान भाई-चारे
की भावना की मुक्त कंठ से प्रशंसा किया करते थे। जयपुर में गोपाल सिंह अधिक समय तक
नहीं रुक सके। चार मास के पश्चात् वे अजमेर चले आए। और बड़ली ठाकर की हवेली में रहने
लगे। परे एक वर्ष अजमेर में रहने के पश्चात् वि. सं. 1949 में अपनी पत्नी और
सेवकों के साथ उन्होंने श्री चारभुजा नाथ के दर्शनार्थ मेवाड़ में स्थित गढभोरनाथ की
यात्रा की।
ठाकुर सुरजनसिंह शेखावत द्वारा लिखित "राव गोपालसिंह खरवा" पुस्तक से साभार