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History of Asop आसोप के कूंपावत राठौड़ों का इतिहास

 मारवाड़ रियासत के आसोप ठिकाने के योद्धाओं ने अपनी वीरता और पराक्रम के बल पर इतिहास में अपना नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखवाया है | आसोप ठिकाने के इतिहास में एक से बढ़ कर ऐसे योद्धा हुए हैं जिनकी शौर्यगाथा से मारवाड़ के इतिहास के पन्ने भरे हैं | आसोप ठिकाने की नींव जोधपुर के राव रणमल की वंश परम्परा में जन्में सुमेलगिरी युद्ध के महानायक वीरवर राव कूंपा के पुत्र राव मांडण ने वि.सं. 1614 में रखी थी | राव कूंपा के वंशज कूंपावत राठौड़ कहलाते हैं, यानी राव कूंपा के नाम से राठौड़ वंश में कूंपावत शाखा चली |

राव मांडण महाप्रतापी पुरुष थे | राव मांडण को आसोप की जागीर बादशाह अकबर से मिली थी, पर जब राव चंद्रसेन ने अकबर के खिलाफ संघर्ष शुरू किया, तो राव मांडण राव ने चंद्रसेन का साथ दिया | जिसकी वजह से उन्हें आसोप की जागीर खोनी पड़ी | राव चंद्रसेन के निधन के बाद राव मांडण राणा प्रताप के पास चले गये | जब जोधपुर के राजा उदयकरण ने अकबर के साथ संधि कर ली तब राव मांडण वापस मारवाड़ आ गये और उन्हें आसोप की जागीर फिर दे दी गई | आखिर वि सं. 1650 में मारवाड़ राज्य के लिए युद्ध करते हुए राव मांडण अत्यधिक घायल हुए और वीरगति को प्राप्त हुए|

आसोप के गढ़ में मांडण साल और मांडण पोल राव मांडण की स्मृति को चिरस्थाई बनाये हुए है |



राव मांडण के बाद उनके पुत्र राव खींवकरण आसोप की गद्दी पर बैठे | आसोप के रामकुमार सेंगवा जाट ने अपनी पुस्तक “आसोप का इतिहास एवं लोक संस्कृति” में लिखा है कि  राव खींवकरण 18 लड़ाइयों में विजय हासिल की थी वे 40 बार घायल हुए थे | राव खींवकरण बूंदी के हाड़ा छत्रसाल से युद्ध करते हुए गांव मंडाल में वीरगति को प्राप्त हुए थे |

राव खींवकरण के बाद राव कान्हसिंह जिन्हें किसानसिंह के नाम से भी जाना जाता है आसोप की गद्दी पर बैठे और उनके बाद उन्हीं के छोटे भाई राजसिंह ने आसोप की गद्दी संभाली | जोधपुर के राजा जसवंतसिंह जब गद्दी पर बैठे तक उनकी आयु केवल 12 वर्ष थी | अत: राजसिंह को जोधपुर के शासन का उचित प्रबंध करने के लिए जोधपुर का प्रधान नियुक्त किया गया | राजसिंहजी ने बड़ी कुशलता के साथ रियासत का प्रबन्ध किया |  राजसिंहजी ने भी मारवाड़ रियासत के लिए प्राण न्योछावर करने की अपने पूर्वजों की परम्परा को कायम रखा | इतिहास की किताबों में लिखा है कि एक बार रात्री गश्त के दौरान महाराजा जसवंतसिंह पर एक प्रेत का साया पड़ गया और अर्द्धरात्रि को बेहोश हो गये |

सेवकों द्वारा मूर्छित महाराजा को पालकी से किले में लाया गया और तांत्रिकों से इलाज करवाया गया | जब तांत्रिकों ने कहा कि प्रेत बिना नरबलि लिए महाराजा को नहीं छोड़ेगा और बलि भी महाराजा सरीखे व्यक्ति की चाहिए, तब राजसिंहजी आगे आये और तांत्रिकों द्वारा अभिमंत्रित जल पिया, तब प्रेत ने महाराजा का शरीर छोड़ दिया और राजसिंहजी की बलि ले ली अर्थात् अभिमंत्रित जल पीते ही राजसिंहजी का निधन हो गया |

अपने स्वामी के लिए प्राणों की आहुति देने वाले राजसिंहजी को जनता आज भी भौमियाजी महाराज यानी लोकदेवता के रूप में पूजती है और मन्नतें मांगती है |

राजसिंहजी के बाद उनके पुत्र पृथ्वीसिंह आसोप ठिकाने के उत्तराधिकारी हुए | पृथ्वीसिंहजी बलशाली पुरुष थे और महाराजा जसवंतसिंहजी  उन्हें अपने साथ रखते थे | बादशाह शाहजहाँ महाराजा जसवंतसिंह को कमजोर करना चाहता था, वह पृथ्वीसिंह के पराक्रम से भलीभांति परिचित था अत: बादशाह ने पृथ्वीसिंह को शेर से कुश्ती कर मारने का षड्यंत्र रचा, पर पृथ्वीसिंह ने खूंखार बब्बर शेर के जबड़े चीर कर मार डाला | बादशाह का षड्यंत्र पूरा होने के बजाय इस घटना से बादशाह बहुत प्रभावित हुआ और पृथ्वीसिंह को नाहरखान की उपाधि से विभूषित किया | नाहरखानजी के साथ भी पिता राजसिंहजी की तरह की घटना घटी, फिर महाराजा पर प्रेत का हमला हुआ और महाराजा के बदले किसी बलशाली पुरुष की बलि देने की जरुरत पड़ी, तब नाहरखानजी ने पिता का अनुसरण किया और अभिमंत्रित जल पीकर महाराजा को प्रेत से मुक्त कराया | अभिमंत्रित जल पीने से नाहरखानजी का निधन हो गया पर आसोप से 15 किलोमीटर दूर रजलानी गांव में उनके गुरु शिवनाथजी महाराज ने चौदह वर्ष के लिए फिर जीवित कर दिया |

नाहरखान जी को भी आज स्थानीय जनता भौमियाजी महाराज के रूप में पूजती है, स्थानीय नवविवाहित जोड़े अपने सफल दाम्पत्य जीवन के लिए उनसे मन्नत मांगने आते हैं |

नाहरखानजी के एक पुत्र भाखरसिंहजी को भी गजसिंहपुरा गांव में भौमियाजी महाराज के रूप में पूजा जाता है | इस तरह आसोप राजपरिवार की तीन पीढियां यानी पिता-पुत्र और पौत्र आजतक लोकदेवता के रूप में पूजित होने का एक अनूठा उदाहरण है | यह उन नेताओं के मुंह पर भी करारा तमाचा है जो सामन्तवाद के नाम पर रियासतकालीन शासकों के खिलाफ दुष्प्रचार करते हैं |

आसोप ठिकाने वीर परम्परा में महेशदासजी का नाम भी स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया है | महेशदासजी ने मारवाड़ राज्य की रक्षार्थ कई युद्ध किये, जिनमें मराठों के खिलाफ तुंगा व मेड़ता के युद्ध प्रसिद्ध है | मेड़ता युद्ध में तो मराठों के आगे मारवाड़ की सेना व उसके सेनापति भाग खड़े हुए थे, ऐसे में लाखों सैनिकों वाली सेना को आउवा व आसोप ठिकाने के चार हजार योद्धाओं ने अपने साहस व वीरता के दम पर युद्ध जीत लिया था | इसी युद्ध में ठाकुर महेशदासजी ने अप्रत्याशित वीरता प्रदर्शित की थी | इस युद्ध में डिबोईन की तोपें आलनियावास की नदी में फंस गई थी, मराठा सेना पर आक्रमण करने का वह सही वक्त था, ठाकुर महेशदासजी व आउवा के ठाकुर उसी वक्त मराठा सेना के तोपखाने पर आक्रमण करना चाहते थे, पर जोधपुर के प्रधान सिंघी खूबचंद व सेनापति सिंघी भींवराज के मध्य चल रहे मनमुटाव के चलते भींवराज ने आक्रमण की अनुमति नहीं दी, तब तक डिबोईन में नदी में फंसी अपनी तोपें निकालकर मोर्चा लिया और बमबारी शुरू कर दी |

भयानक बमबारी होते ही मारवाड़ का सेनापति सिंघी भींवराज युद्ध मैदान से भाग खड़ा हुआ, उसे देख अन्य योद्धा भी भाग खड़े हुए, तब आउवा ठाकुर शिवसिंहजी के आव्हान पर ठाकुर महेशदासजी सिर्फ 22 योद्धाओं के साथ मराठा तोपखाने पर भूखे शेर की तरह टूट पड़े | इन मुट्ठीभर वीरों के प्रबल प्रहार से मराठा सैनिकों में खलबली मच गई | जनरल डिबोईन तोप के नीचे घुसकर महेशदासजी की तलवार के वार से बच गया, पर फौलादी तलवार के वार से तोप की नली कटी देखकर उसकी घिघ्घी बंध गई | दूसरी ओर आसोप व आउवा के योद्धाओं का रणकौशल देखकर मारवाड़ के कई सरदारों में जोश भर गया और वे मराठा सेना पर टूट पड़े | वि. सं. 1847 में यह सेना माधोराव सिंधिया ने लकवादादा, जीवादादा, सधाशिवभाऊ और जनरल डिबोईन जैसे प्रमुख योद्धाओं के नेतृत्व में भेजी गई थी |

ठाकुर महेशदासजी ने इस युद्ध में प्राणों का उत्सर्ग कर मातृभूमि की रक्षार्थ बलिदान देने का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया | ठाकुर महेशदासजी की स्मृति में कई जगह स्मारक बने है |

वीरता, पराक्रम और मातृभूमि के लिए प्राणों की बाजी लगाने वाले आसोप राजपरिवार के वीरों में एक नाम ऐसा भी है जो देश की स्वतंत्रता के इतिहास में गर्व के साथ अंकित है | और वह नाम है आसोप के ठाकुर शिवनाथसिंहजी का |

मारवाड़ राज्य की अंग्रेजों के साथ संधि थी और ठाकुर शिवनाथसिंहजी मारवाड़ राज्य के सामंत थे, बावजूद ठाकुर शिवनाथसिंहजी ने अंग्रेजी हकुमत की सिर्फ खिलाफत ही नहीं की, बल्कि कम्पनी सरकार के खिलाफ युद्ध भी लड़ा |

मारवाड़ में आउवा, गूलर, आसोप, आलनियावास सहित कई ठिकानेदार अंग्रेज विरोधी गतिविधियों में सक्रीय थे | जोधपुर के महाराजा तख्तसिंहजी ने अपने इन ठिकानोंदारों को अंग्रेजों का विरोध ना करने के लिए खूब समझाया, ना मानने वालों की जागीरें जब्त की पर स्वतंत्र्यचेता इन योद्धाओं ने जोधपुर महाराजा की एक ना सुनी | सन 1857 ई. में स्वतंत्रता संग्राम शुरू हुआ तो डीसा और एरिनपुरा की छावनी के सैनिकों ने विद्रोह किया | जब ये सैनिक मारवाड़ आये तो आउवा के ठाकुर कुशालसिंह जी ने उनका स्वागत किया व शरण दी | यह खबर सुनकर ठाकुर बिशनसिंह गूलर और ठाकुर अजीतसिंह आलनियावास भी अपनी सेना सहित आउवा विद्रोहियों से आ मिले |

इस विद्रोह को कुचलने के लिए अंग्रेजों के आग्रह पर जोधपुर की सेना ने आउवा को घेर लिया | कैप्टन मेशन भी अपनी सेना सहित आउवा पहुंचा | सूचना मिलते ही ठाकुर शिवनाथसिंह जी आसोप से अपनी सैनिक टुकड़ी लेकर आसोप पहुंचे और अक्समात अंग्रेज सेना पर भयंकर आक्रमण किया | जोधपुर की सेना के प्रमुख व्यक्तियों में ओनाड़सिंह व राजमल लोढा मारे गये | जोधपुर के सेनापति कुशलराज सिंघवी व विजयमल मेहता भाग खड़े हुए | कैप्टन मेशन भी स्वतंत्रता संग्राम के योद्धाओं के हाथों मारा गया | इस कार्यवाही से जोधपुर के महाराजा बहुत नाराज हुए और उन्होंने आउवा व आउवा के जिलेदारों की जागीरें जब्त कर दी | कुछ समय बाद आसोप की जागीर भी जब्त की गई | तब ठाकुर शिवनाथसिंहजी आसोप से बड़लू (वर्तमान में भोपालगढ़) चले गये | जोधपुर की सेना ने उन्हें वहां जाकर घेर लिया | युद्ध हुआ, शिवनाथसिंहजी के कई योद्धा मारे गये |

आखिर जोधपुर के सेनापति ने समझा बुझाकर ठाकुर शिवनाथसिंह जी को मना लिया और जोधपुर ले आया | जहाँ उन्हें नजर कैद किया गया | कुछ समय बाद अवसर पाकर शिवनाथसिंहजी जोधपुर किले की कैद से निकल कर मेवाड़ चले गये | मारवाड़ के इन स्वतंत्रताचेता जागीरदारों ने अपनी जागीरें जब्त होने के बाद अंग्रेज विरोधी गतिविधियाँ बढ़ा दी | अंग्रेजों को डर था कि इनकी देखा देखी राजस्थान के अन्य जागीरदार भी विद्रोह करेंगे, क्योंकि वे इन विद्रोहियों का साथ दे रहे थे | अत: शांति स्थापित करने के उद्देश्य से अंग्रेजों ने एक फौजी अदालत गठित की | उस अदालत ने इन ठिकानेदारों को कैप्टन मेसन की हत्या से बरी कर दिया |

फौजी अदालत द्वारा बरी करने के बाद जोधपुर महाराजा ने भी माफ़ करते हुए इन सभी विद्रोही ठिकानेदारों की जब्त की हुई जागीरें वापस दे दी | इस तरह ठाकुर शिवनाथसिंहजी को भी आसोप की जागीर पुन: मिल गई |

शिवनाथसिंहजी के बाद क्रमश: चैनसिंहजी, फ़तेहसिंहजी, देवीसिंहजी आदि आसोप ठिकाने के उत्तराधिकारी बने और उन्होंने अपने समय आसोप ठिकाने का विकास किया और जनहित के कार्य किये | आपको बता दें आसोप ठिकानेदारों को राजा की पदवी दी गई थी | राजा देवीसिंहजी के दो पुत्र विजेन्द्रसिंह व पृथ्वीसिंह हुए | विजेन्द्रसिंहजी का निधन हो चुका और पृथ्वीसिंहजी भारतीय सेना से सेवानिवृत कर्नल है | विजेन्द्रसिंहजी के दो पुत्र दिग्विजयसिंह जी व हर्षवर्धन सिंहजी है, वर्तमान में आसोप के मांडण गढ़ में कर्नल पृथ्वीसिंहजी राजा दिग्विजयसिंह व हर्षवर्धनसिंह अपने परिजनों के साथ निवास करते हैं | गांव में कूंपावत राठौड़ों के कुछ और भी परिवार निवास करते हैं जिन्हें स्थ्यानीय लोग जूने जागीरदार कहते हैं, कूंपावतों के इतिहास में भी इन जूने जागीरदारों के बारे में विवरण मिलता है |  

रियासती काल में जल संग्रह के लिए बने आसोप के तालाब हमारे देश की जल संग्रहण तकनीक के उम्दा उदाहरण है | आसोप की जनता ने आज भी इन तालाबों को संरक्षित कर रखा है और ये तालाब स्थानीय निवासियों के पेयजल के मुख्य स्रोत है|

आसोप के तालाबों व कस्बे में बने मंदिरों की संख्या यहाँ की निवासियों की धार्मिक आस्था का अनायास ही परिचय करा देती है | यहाँ का नौसर तालाब अपना अलग ही महत्त्व रखता है | नौसर तालाब के किनारे आसोप के विभिन्न राजाओं व योद्धाओं की स्मृति में कलात्मक व अनूठी छतरियां बनी है, जो अपने आपमें सदियों पुराना रोचक इतिहास समेटे है तो नौसर तालाब की पाल पर ही एक ओर कूंपावत राठौड़ों का गुरुद्वारा कहा जाने वाला ठाकुरजी का मंदिर बना है और मंदिर प्रांगण में बनी है अनेक संतों की समाधियाँ |

आपको बता दें आसोप की भूमि वीर प्रसूता ही नहीं संतों की तपोभूमि भी रही है और इन संतों का यहाँ के वीरों पर हमेशा आशीर्वाद रहा है | नौसर तालाब को दिवंगत संतों व योद्धाओं का संगम स्थल कहा जाये तो भी कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी |   

 

 

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