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राजपूतों की उत्पत्ति को लेकर फैलाये भ्रम का निवारण - 3

 पिछले भाग से आगे .....ऊपर हम बतला चुके हैं कि पुराणों के अनुसार चंद्रवंशी राजा द्रुह्य गांधार देश का राजा था। उसके पांचवें वंशधर प्रचेता के अनेक पत्रों ने भारतवर्ष से उत्तर के म्लेच्छ देशों में अपने राज्य स्थापित किये थे। मुसलमानों के मध्य एशिया विजय करने के पूर्व उक्त सारे देश में भारतीय सभ्यता फैली हुई थी। सुप्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता डॉ. सर ऑरलस्टाइन ने ई.सं. १९०१ (वि.सं. १९५८) में चीनी तुर्किस्तान में प्राचीन शोध का काम करते समय रेत के नीचे दबे हुए कई स्थानों से खरोष्ठी लिपि के लेखों का बड़ा संग्रह किया । 

उक्त लेखों की भाषा वहां की लौकिक (तुर्की) मिश्रित भारतीय प्राकृत है। उनमें से कितने ही का प्रारंभमहनुअव महरय लिहति' (महानुभाव महाराजा लिखता है) पद से होता है। कई लेखों में 'महाराज' के अतिरिक्त 'भट्टारक' 'प्रियदर्शन (प्रियदर्शी) और देवपुत्र भी वहां के राजाओं के खिताब (बिरुद) मिलते हैं । 'भट्टारक' (परमभट्टारक) भारत के राजाओं का सामान्य खिताब था, प्रियदर्शन'(प्रियदर्शी) मौर्य राजा अशोक का था, और 'देवपुत्र' भारतवर्ष में मिलने वाले कुशनवंशी राजाओं के शिलालेखों के अनुसार उनकी कई उपाधियों में से एक थी। कई एक लेखों में संवत् भी लिखे हुए हैं, जो प्राचीन भारतीय शैली के हैं, अर्थात उनमें 'संवत्सर', 'मास' और सौर दिवस दिये हुए हैं । ये लेख चीनी तुर्किस्तान में भारतीय सभ्यता के प्रचार की साक्षी दे रहे हैं।

चीनी यात्री फाहियान ई.सं.३९९ (वि.सं. ४५६) में अपने देश से भारत की यात्रा को निकला और ई.सं. ४१४ (वि.सं. ४७१) में
समुद्र-मार्ग से स्वदेश को लौटा। वह मध्य एशिया के मार्ग से भारत में आया था और अपनी यात्रा के वर्णन में लिखता है- "गोबी की मरुभूमि को सत्रह दिन में बड़ी कठिनता से पारकर हम शेनशन प्रदेश (चीनी तुर्किस्तान) में पहुंचे। इस देश का राजा बौद्ध है। यहां अनुमानतः ४००० से अधिक श्रमण (बौद्ध साधु) रहते हैं, जो सब हीनयान संप्रदाय के अनुयायी हैं। यहां के लोग, क्या गृहस्थ क्या श्रमण, सब भारतीय आचार और नियम का पालन करते हैं, अंतर इतना ही है कि गृहस्थ सामान्य रूप से और श्रमण विशेष रूप से। यहां से पश्चिम के सब देशों में भी ऐसा ही पाया गया। केवल लोगों की भाषा में अंतर है तो भी सब श्रमण भारतीय ग्रंथों और भारतीय भाषा का अध्ययन करते हैं । यहां से पश्चिम में यात्रा करता हुआ वह खोतान में पहुंचा जहां के विषय में उसने लिखा है-यह देश रम्य और समृद्धिशाली है। यहां की जनसंख्या बहुत बड़ी और जनता संपन्न है । सब लोग बौद्ध धर्म को मानते हैं और एकत्र होकर धार्मिक संगीत का आनंद लूटते हैं।

यहां कई अयुत (दस हजार) श्रमण रहते हैं, जिनमें से अधिक महायान संप्रदाय के अनुयायी हैं। यहां का प्रत्येक कुटुंब अपने द्वार के सामने एक-एक स्तूप बनवाता है, जिसमें से छोटे से छोटा स्तूप बीस हाथ से कम ऊंचा न होगा। चारों ओर से आने वाले श्रमणों के लिए लोग संघारामों (मठों) में कमरे बनाते हैं जहां उन (श्रमणों) की आवश्यकताएं पूरी की जाती हैं। यहां के राजा ने फाहियान और उसके साथियों को गोमती नामक विहार (संघाराम) में, जहां ३००० श्रमण रहते थे, बड़े सत्कार के साथ ठहराया था।फाहियान अपने कुछ साथियों सहित रथयात्रा का उत्सव देखने के लिए यहां तीन मास ठहर गया। उसने रथयात्रा का जो वर्णन किया है वह बहुत अंश में जगदीश (पुरी) की वर्तमान रथयात्रा से मिलता जुलता है। इसी तरह हुएन्संग ने अपनी भारत की यात्रा करते हुए भारत में प्रवेश करने के पूर्व और लौटते समय मध्य एशिया के देशों के धर्म और सभ्यता आदि का जो वर्णन किया है उससे भी वहां भारतीय सभ्यता का साम्राज्य होना पाया जाता है ।

क्रमश :.....

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