पिछले लेख से आगे .... जिस समय मध्य एशिया से शक लोग इस देश में आये उस समय उनके धर्मसंबंधी विचारों एवं उनके साथ यहां वालों के बर्ताव का अब हम कुछ विवेचन करते हैं
विजयी शक अपना राज्य बढ़ाते हुए शकस्तान' (सीस्तान) तक पहुंच गये। फिर वि.सं. की पहली शताब्दी के आसपास उन्होंने अफगानिस्तान और हिन्दुस्तान में प्रवेश किया। इस देश में उनका एक राज्य पंजाब में, दूसरा मथुरा के आसपास के प्रदेश पर, और तीसरा राजपूताना, मालवा, गुजरात, काठियावाड़ तथा महाराष्ट्र पर रहा। इन तीन राज्यों में से पहले दो तो शीघ्र ही अस्त हो गये, परंतु तीसरा राज्य समय की प्रगति के साथ घटता बढ़ता लगभग तीन सौ वर्ष तक किसी प्रकार बना रहा, जिसका अंत गुप्तवंश के प्रतापी राजा चंद्रगुप्त द्वितीय ने किया। इन शकों के समय के शिलालेख एवं सिक्कों पर के चिह्नों आदि से पाया जाता है कि उनमें से कोई बौद्ध धर्म के अनुयायी थे, तो कोई वैदिक धर्म को मानते थे। उक्त तीसरे शक राज्य के राजाओं (महाक्षत्रपों) के सिक्कों में एक ओर सूर्य चंद्र के बीच पर्वत (मेरु) का चिह्न और उसके नीचे नदी (गंगा) का चिह्न हैं ।
आजकल
जैसा ब्राह्मण धर्म और जैन धर्म वालों के बीच बर्ताव है, वैसा ही जनता में उस समय वैदिक और बौद्ध
धर्मवालों के बीच था। जैसे आजकल ओसवाल तथा अग्रवाल आदि महाजनों में कई कुटुम्ब
वैदिक धर्म के एवं कई जैन धर्म के अनुयायी हैं, कहीं कहीं तो पति वैष्णव है तो स्त्री जैन है। ऐसा ही प्राचीन समय में भी
व्यवहार होता था। पश्चिमी क्षत्रय राजा नहपान का दामाद उषवदात (ऋषभदत्त), जो शक दीनीक का पुत्र था, वेदधर्म को मानने वाला था, परन्तु उसकी स्त्री दक्षमित्रा बौद्ध मत की
पोषक थी। क्षत्रप राजा रुद्रदामा को यहां की कई राजकन्याओं ने अपनी प्राचीन रीति
के अनुसार स्वयंवर में,
वरमालाएं पहनाई थी। उसी
रुद्रदामा की पुत्री का विवाह पुराण-प्रसिद्ध एतद्देशीय आंध्रवंशी राजा
वासिष्ठीपुत्र शातकर्णी के साथ हुआ था, ऐसा प्राचीन शिलालेखों से स्पष्ट है ।
इन सब
बातों का निष्कर्ष यही है कि उस समय यहां वाले बाहर से आये हुए इन शकों को असभ्य
या जंगली नहीं,
किन्तु अपने जैसे ही
सभ्य और आर्य जाति की संतति मानते और उनके साथ विवाह-संबंध जोड़ते थे। यहां के
ब्राह्मण आदि लोग धर्म-संबंधी बातों में आज की भांति संकीर्ण विचार के न थे और अटक
से आगे बढ़ने पर अपना धर्म नष्ट होना नही मानते थे। अनेक राजाओं ने भारत से उत्तरी
देशों के अतिरिक्त कई अन्य देशों पर अपने राज्य स्थिर किये थे और वहां पर भारतीय
सभ्यता का प्रचार किया था। समात्रा, जावा आदि द्वीपों में भी उनके राज्य थे। वहां अनेक हिन्दू मंदिर थे, जो अब तक विद्यमान हैं, और उनके संस्कृत शिलालेख भी कई जिल्दों में छप चुके हैं। बोलियों के टापू में राजा मूलवर्मा
के यज्ञ आदि के लेखवाले कई स्तंभ खड़े हुए हैं ।
अफगानिस्तान
पर मुसलमानों के पहले हिन्दू राजाओं का ही राज्य था, ईरान प्राचीन आर्य सभ्यता और अग्नि की उपासना
के लिए उधर का केंद्र था। ईरान तक ही नहीं, किन्तु वहां से पश्चिम के एशिया माइनर से मिले हुए कीलाक्षर (Cuneiform) लिपि के शिलालेखों से पाया जाता है कि उक्त
प्रदेश के मलेटिआ (Malatia)
विभाग पर ई.सं.पूर्व
१५०० और १४०० में राज्य करने वाले मिटन्नि (Mitanni) के राजा आर्य नाम धारण करते थे और ऋग्वेद के
इंद्र, वरुण, मित्र और नासत्य देवताओं के उपासक भी थे।
ऐसी
दशा में यदि राजपूतों के प्रचलित रीति-रिवाज शकों के रीति-रिवाजों से मिलते हुए
हों तो उसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि दोनों ही क्षत्रिय जातियां थी । सूर्य की उपासना वैदिक काल से आर्य
लोगों में प्रचलित थी और जहां-जहां आर्य लोग पहुंचे वहां उसका प्रचार हुआ। शकों की
पुरानी कथाओं का यहां की प्राचीन कथाओं से मिलना भी यही बतलाया है कि वे कथाएं
यहां से ही मध्य एशिया आदि देशों में आर्यों के साथ पहुंची थी। सती होने की प्रथा
भी शकों के इस देश में आने से पूर्व की है। पांडु की दूसरी स्त्री माद्री सती हुई
थी। अश्वमेध यज्ञ आर्यों ने शकों से सीखा, यह कथन सर्वथा निर्मूल हैं,क्योंकि वैदिक काल से ही भारतीय राजा अश्वमेध करते आये हैं । युधिष्ठिर आदि
अनेक क्षत्रिय राजाओं ने अश्वमेध किये थे। शस्त्र और घोड़ों की पूजा प्राचीन काल
से लेकर अब तक बराबर होती है। एक दूसरे से बहुत दूर बसने के कारण उनकी भाषा, पोशाक, रहन-सहन में समयानुसार अंतर पड़ना स्वाभाविक है। मध्य एशिया तक के दरवर्ती
देश की बात जाने दीजिये.यदि इन बातों की दृष्टि से कश्मीर और पंजाब के वर्तमान हिन्दुओं
का बंगाल,
राजपूताना, गुजरात और महाराष्ट्र के हिन्दुओं से मिलान
किया जाय तो परस्पर बड़ा अन्तर पाया जाता है।