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महार कलां गांव के चमत्कारी संत सालागनाथजी


 
महार कलां Mahar Kalan गांव में सुरम्य पहाड़ी की तलहटी में संत सालगनाथजी का स्थान है, कभी यहाँ गांव बसने से पूर्व एक छोटे से तिबारे में नाथ संत सालगनाथजी विराजते थे | महार गांव आमेर के राजा चंद्रसेन जी के युवराज कुम्भाजी के पुत्र उदयकरणजी ने बसाया था | युवराज कुम्भाजी के पुत्र उदयकरणजी जिनका आमेर राज्य पर अधिकार था, पर उन्हें आमेर छोड़ महार कलां क्यों आना पड़ा, इस विषय पर महार के इतिहास पर अगले लेख में जानकारी दी जायेगी | महार कलां बसाने के बाद दिवंगत युवराज कुम्भाजी की माता टांकणजी ने उनकी सेवा-सुश्रुषा की अच्छी व्यवस्था करवाई | संत ने प्रसन्न होकर उन्हें एक शिव मंदिर बनाने का निर्देश दिया | अत: संत के तिबारे के पास ही एक छोटा सा शिव मंदिर बनवाया गया |

बाद में महार के रावत रामजी ने उसी शिव मंदिर के ऊपर एक विशाल गुम्बद, पानी के कई कुण्ड और तिबारियों का निर्माण कराया | संत सालगनाथजी की इच्छा के अनुसार सालगनाथजी के गुरु के नाम पर शिव मंदिर का नाम मालेश्वर नाथ रखा गया | संत सालगनाथजी ने कहा था कि आमेर में तुम्हारे कुलदेवता अम्बिकेश्वर महादेव है उन्हीं की मैंने यहाँ स्थापना करवाई है | गांव में आबादी के बढ़ने पर संत सालगनाथजी ने शिव मंदिर के पास का स्थान छोड़कर गांव के बाहर इस जगह अपना आसन लगाया | यह स्थान आज भी आसन के नाम से जाना जाता है, जहाँ सालगनाथजी की समाधी है | हालाँकि आज यह स्थान गांव के बीच में है क्योंकि आबादी बढ़ने पर गांव के परकोटे को बढाया गया था |

संत का स्थान गांव की आबादी के बीच में आने के कारण संत सालगनाथजी के शिष्यों ने गांव के बाहर कुछ दूर पहाड़ी पर बना लिया, जो आज भी श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र है | संतों के इसी स्थान के पास गांव के कुँओं का पानी रिचार्ज करने के लिए कभी यहाँ के शासकों ने एक छोटा सा बाँध यानी एनिकट बनवाया गया था |अब बात करते हैं संत सालगनाथजी के चमत्कारों की – अफगानिस्तान में विद्रोह व पंजाब में शेरशाह सूर के समर्थकों द्वारा किये गए उपद्रवो का दमन करने के लिए बादशाह अकबर स्वयं  सेना लेकर के रवाना हुआ। उसके साथ आमेर के राजा भगवन्तदासजी व कुंवर मानसिंहजी भी थे। उधर कुम्भावत उदयकरणजी की मृत्यु के बाद उनके पुत्र लूणकरणजी भी अकबर के साथ रहे जो इस अभियान में भी साथ थे। लूणकरणजी की सेना का बलूच बाजी खाँ से सामना होने पर उन्हाहोंने जी खाँ के सामने प्रस्ताव रखा कि खून खराबा करने के बजाय हम दोनों आपस में मल्ल युद्ध करें। यदि मैं पराजित हो जाऊँगा तो तेरा साथ दूँगा व अगर तू (हाजी खाँ) हारा तो तुझे बादशाह के सामने उपस्थित होना पड़ेगा।

हाजी खाँ लूणकरणजी से बलिष्ठ था, इसलिए उसने यह शर्त स्वीकार कर ली, पर लूणकरणजी पर संत सालगराम जी की असीम कृपा थी अत: मल्ल युद्ध में हाजी खाँ लूणकरणजी से परास्त हो गया और वचन का पालन करते हुए अपने दो साथियों सहित लूणकरणजी के साथ बादशाह के सम्मुख उपस्थित हो गया। बादशाह इससे बहुत प्रसन्न हुआ और उसने लूणकरण जी को ‘रावत’ की उपाधि दी।

इस अभियान में बादशाह अकबर पंजाब तक साथ रहा, आगे  कुंवर मानसिंह आमेर के नेतृत्व में काबुल विजय अभियान चलाया गया | उस अभियान में महार कलां ठिकाने के कुम्भावत भी शामिल थे | आपको बता दें युवराज कुम्भाजी के वंशज कुम्भावत कछवाह कहलाते हैं | काबुल अभियान में एक जगह सेना के लिए रसद नहीं पहुँच पाई, जिसकी वजह से सेना के लिए भोजन की व्यबस्था नहीं बनी, तभी कुंवर मानसिंहजी को कुम्भावतों के डेरे से धुंआ उठता नजर आया, तब उन्होंने एक सहायक को भेजा कि – जाकर पतों करो कि उनके पास भोजन की व्यवस्था है क्या ? कुम्भावतों के डेरे में जाने पर कुम्भाजी के छोटे पुत्र शेखाजी के पुत्र कर्मचंदजी मौजूद थे, जिन पर महान संत सालागनाथजी की असीम कृपा थी | उनसे पूछने पर उन्होंने कहा हमारे पास आटा है आपको चाहिए तो ले जा सकते हैं |

बारी बारी से आमेर की सेना सहित मुग़ल सेना की कई टुकड़ियों के मुखिया वहां आटा लेने आते रहे व एक आटे की बोरी में से कर्मचंदजी ने सभी की आपूर्ति कर दी | काबुल विजय के बाद जब आमेर के युवराज कुंवर मानसिंहजी आगरा लौटे तो लोगों ने एक ही बोरी आटे में से पूरी सेना को आटा देने की बात बादशाह अकबर को बताई | तब बादशाह अकबर ने करमचंदजी को बुलाकर बोदला का ख़िताब दिया और कोटड़ी धमाणा क्षेत्र की राजा मानसिंह जी से सवा लाख की जागीर दिलवाई |
संत के आशीर्वाद व कृपा से आटे की एक बोरी से आमेर व मुग़ल सेना को आटे की आपूर्ति करने के बदले कर्मचंदजी को बोदला की उपाधि वि.सं. 1657 में दी थी | कर्मचंदजी ने कोटड़ी में एक किला बनवाया था, वहीँ उनका देहांत हुआ और वे आज भी उसी किले में स्थानीय जनता द्वारा भोमियाजी के रूप में पूजित थे | History of Mahar Kalan Village, History of Kumbhavat Kachhvah Rajput

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