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ठाकुर नवलसिंह शेखावत, नवलगढ़ के संस्थापक


 
ठाकुर नवलसिंह झुंझुनू में नबाबी राज्य की नींव उखाड़ने वाले ठाकुर शार्दूलसिंह के पांचवे पुत्र थे | इनका जन्म वि.सं. 1772 में हुआ था | ठा, शार्दूलसिंह ने अपने जीवन काल में अपने पुत्रों को उनके ठिकाने बांधने हेतु कुछ ग्राम बांट दिये थे। झुंझुनू राज्य का सम्पूर्ण बंटवारा उनकी मृत्यु के पश्चात् हुआ, किन्तु बंटवारे की संभावना और आवश्यकता उनके जीवन काल में ही दृष्टिगोचर होने लगी थी और उनका उपरोक्त कार्य उसी संभावना के आरंभ का संकेत था ।

नवलसिंह ने कुंवर पदे में ही रोहिली’ नामक स्थान पर सं. 1794 वि. में गढ़ की नींव डाली और उसी स्थान पर अपने नाम पर नवलगढ़ नामक शहर बसाना आरंभ किया’ शहरके चौतरफा चौड़ी तथा पर्याप्त ऊँची सुदृढ़ शहर प्राचीर का निर्माण कराया गया। चारों दिशाओं में खुलते चार नगर द्वार बनाये गये। इस प्रकार सुदृढ़ प्राचीरों से रक्षित शहर के मध्य में बाला किला के नाम से प्रसिद्ध उनका गढ़ बना हुआ था। शहर के बाजार के मध्य भाग में गोपीनाथ जी का मंदिर बनाया|

ठा. नवलसिंह ने अपने समय में अपने क्षेत्र में घटित अधिकांश राजनैतिक घटनाओं और हलचलों में सक्रिय भाग लिया। वे इस क्षेत्र के माने हुये नेता थे। सं. 1814 वि. के लगभग बीकानेर महाराजा गजसिंह के भादरा, डूंगराणा, रावतसर और महाजन के सामन्तों ने विद्रोह कर बीकानेर राज्य को उपद्रवों से हिला डाला। उस अराजकता और संकट पूर्ण समय में नवलसिंह बीकानेर राज्य की ढाल बनकर सामने आये। नवलसिंह ने अपने चार हजार शेखावत योद्धाओं के दम पर इस विद्रोह का दमन किया |

नवलसिंह ने जयपुर राज्य की भी हर संभव सहायता की और जयपुर के तीन राजाओं के साथ कार्य किया | सवाई ईश्वरीसिंहजी के समय बूंदी के साथ हुए युद्ध, मावन्डा-मंडोली में भरतपुर के साथ हुए युद्ध में नवलसिंह ने जयपुर के पक्ष में भाग लिया | भागती हुई भरतपुर की सेना से नवलसिंह ने जो तोपें छिनी थी वे आज भी फतहगढ़ (कचियागढ़) में रखी है |

ठाकुर नवलसिंह के नेतृत्व में सबसे महत्त्वपूर्ण युद्ध मांडण में लड़ा गया था | यह युद्ध शेखावतों व मुग़ल सेना के मध्य हुआ था, जिसमें जयपुर व भरतपुर की सेना शेखावतों की सहातार्थ आई थी | इस युद्ध में मुग़ल सेना पराजित हुई पर झुंझुनू क्षेत्र के शेखावतों का ऐसा कोई घर शायद ही बचा हो जिसमें से एक न एक योद्धा ने बलिदान ना दिया हो | ठाकुर नवलसिंह बीकानेर के महाराजा के घनिष्ठ सम्बन्धी थे। वहां के राज दरबार में उनका अत्यधिक प्रभाव था। जयपुर राजवंश की तीन पुश्तों (महाराजा ईश्वरीसिंह – माधोसिंह और पृथ्वीसिंह) की उन्होंने प्राण परण से सेवा की। अनेक युद्धों में भाग लेकर कछवाहों के कीर्ति ध्वज को ऊँचा रखा। किन्तु साथ ही दिल्ली मुगल दरबार से भी उनका मित्रता पूर्ण सम्पर्क बना रहा। दिल्ली का वजीर और प्रधान सेनापतिमिर्जा नजफखां, हरियाणाकाहाकिम नफजकुलीखाँ, और शाही सेना के तोपखाने का सर्वोच्च अधिकारी समरू (वाल्टररैन हार्ड) उनका सम्मान करते थे। सम्राट शाह आलम ने उन्हें अपना मदसबदार बनाकर एक स्वतंत्र शासक के रूप में मान्यता दे रखी थी। जोधपुर महाराजा विजयसिंह ठा. नवलसिंह के साथ आत्मीयता का व्यवहार रखते थे। माँचेड़ी के राव प्रतापसिंह नरूका ठा. नवलसिंह के परम मित्र एवं सहायक थे। उन दोनों कर्मठ वीरों ने संकट के समय एक दूसरे की सहायता की थी।

ठा. नवलसिंह के सम्बन्ध में प्रचलित एक रोचक एवं हृदय स्पर्शी घटना का जो उनकी महानता, उदारता दर्शाती है कि एक बार वे दिल्ली खिराज का बकाया जमा कराने के लिए बाईस हजार रूपये की हुंडी लेकर जा रहे थे, पर रास्ते में दादरी कस्बे में एक वैश्य स्त्री के भाई नहीं होने के कारण उसका दुःख देख, उसके भाई बनकर बाईस हजार रुपयों की हुण्डी, जो उस समय उनके पास थी, उस लड़की के मायरे में भेंट कर दी | ठा. नवलसिंह की मृत्यु काणोड़ (महेन्द्रगढ़) के किले में शत्रु आक्रमण का प्रतिरोध करते हुए, अकस्मात बीमार हो जाने से 24 फरवरी सन् 1780 ई.को सिंघाणा पहुँचकर हुई थी।

सन्दर्भ पुस्तक : “मांडण युद्ध” लेखक : ठाकुर सुरजनसिंह शेखावत

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