भारत में एक से बढ़कर एक योद्धा हुए हैं | यहाँ की हर घाटी व मैदान रणक्षेत्र रहा है, फिर सवाल उठता है कि भारत गुलाम क्यों हुआ ? इस सवाल के जबाब में कई किताबें लिखी जा सकती है और लिखी भी गई है और ज्यादातर इतिहासकारों ने इस विषय पर गहन मंथन भी किया है | लेकिन वर्तमान में ज्यादातर लोग भले उन्हें इतिहास से जलन हों, या राजनैतिक कारण हों, वे विदेशी आक्रमणकारियों से हार का ठीकरा राजपूत शासकों पर फोड़ने से नहीं चुकते | राजपूत शासकों की कई कमियाँ इतिहासकार भी गिनाते हैं | पर हजारों वर्षों तक अपने प्राणों का बलिदान देने वाले योद्धाओं पर ये आक्षेप कितने सही है, इस पर चर्चा करेंगे इस लेखमाला में..
डा. निजामी, डा. के एस लाल और मजुमदार जैसे इतिहासकारों ने भारतियों की पराजय के पीछे उनकी दोषपूर्ण पतित सामाजिक व्यवस्था को माना है पर “दिल्ली सल्तनत” नामक इतिहास पुस्तक के लेखक डा. गणेशप्रसाद बरनवाल ने इस तथ्य को नकारा तो नहीं पर उन्होंने लिखा है –“भारतियों के पराभव में उनकी पतित सामाजिक स्थिति एक दूरस्थ कारण थी |” डा. बरनवाल ने इस स्थिति पर लिखते हुए भारतियों के अन्दर “कोऊ नृप होई हमें का हानि” भाव को माना है | उन्होंने लिखा है – “कोऊ नृप होई हमें का हानि” का भाव नविन स्थिति को स्थापित होने में योगदान देता है| राजनीतिक चेतना शून्यता इस काल के समाज की जानलेवा दुर्बलता थी | ऐसे में राजनैतिक डकैतों के हमलावर गिरोहों का भारत कब तक शिकार ना होता |”
इस तरह डा. बरनवाल ने देश की गुलामी में यहाँ की जनता के मन में कि “कोऊ नृप होई हमें का हानि” यानी राजा कोई भी हो, हमें क्या ? हमें तो कर चुकाना है और जीना है, इस शासक को ना सही, उसे चुका देंगे | इसी मानसिकता के चलते आम जन विदेशी आक्रमणों से दूर रहता था, और जीते पक्ष के स्वागत को आतुर रहता था | ऐसे में बाहरी विजेता को स्थानीय राजा को परास्त करने के बाद शासन सञ्चालन में कोई दिक्कत नहीं आती थी और वो अपनी जड़ें यहाँ जमा लेता था |
गुलामी के कारणों की श्रृंखला के अगले लेख में अन्य कारण पर लिखा जायेगा |