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History of Parmar Kshatriya Rajvansh परमारों का इतिहास

राजस्थान का प्रथम परमार वंश- राजस्थान में ई.400 के करीब राजस्थान के नागवंशों के राज्यों पर परमारों ने अधिकार कर लिया था। इन नाग वंशों के पतन पर आसिया चारण पालपोत ने लिखा है

परमारा रूंधाविधा नाग गया पाताळ। हमै बिचारा आसिया, किणरी झूमै चाळ ॥ 

इससे स्पष्ट है कि नागों को परास्त कर परमारों ने पश्चिमी राजस्थान में अपने राज्य स्थापित कर लिए थे। इस प्रदेश को नो कूटी मारवाड़ कहते हैं। परमारों के इन नौ दुर्गों के नाम हैं—(1) मंडोबर, (2) साँभर, (3) पूंगल, (4) लोद्रवा, (5) घाट; (6) पारकर, (7) पलम्, (8) आबू, (9) जालौर। राजस्थान के परमार शासकों में धरणी वराह बड़ा ही प्रतापी व वीर राजा था। जिसका पूरे पश्चिमी क्षेत्र पर राज्य था। किन्तु धरणी वराह अदूरदर्शी शासक था। उसने अपने राज्य को अपने नौ भाइयों में विभाजित कर दिया था जिससे परमारों की शक्ति क्षीण हो गई। 400 से 500 ईस्वी तक फैला विशाल परमार राज्य शनैः शनैः दूसरों के अधिकार में चला गया। वासुदेव चौहान ने साँभर प्रदेश तथा चावड़ों ने भीनमाल और उसके चारों ओर का प्रदेश जीत लिया। मंडोर पर प्रतिहारों का अधिकार हो गया। लोद्रवा तथा पश्चिमी प्रदेश तक भाटियों का अधिकार हो गया। धरणी वराह का शासनकाल डा. दशरथ शर्मा ने 967 ईस्वी के करीब माना है किन्तु यह वो धरणी वराह नहीं है जिसे नौकूटी मारवाड़ का स्वामी था जिसे दशरथ शर्मा ने माना है क्योंकि इस नाम के इस वंश में एक से अधिक राजा होना स्वाभाविक है। पहला धरणी वराह शक्तिशाली था जिसका राज्य भी काफी विस्तृत था।



मालवा के परमार- मालव भू-भाग पर परमार वंश का शासन काफी समय तक रहा। भोज के पूर्वजों में पहला राजा उपेन्द्र का नाम मिलता है जिसे कृष्णराज भी कहते हैं । यह वीर परुष था जिसने अपने बाहबल से एक बडे स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की थी। डा. बलर के अनसार कष्णराज 800 ईस्वी के करीब शासक था जिसके बाद इस राज्य का स्वामी बैरीसिंह हुआ। बैरीसिंह का प्रथम पुत्र सीयक बैरीसिंह के बाद मालवा का राजा बना। दूसरा पुत्र अबरसिंह था जिसने उस समय के वागड़ प्रदेश (डूंगरपुर-बांसवाडा) को जीतकर अपना राज्य स्थापित किया जो मालवा के अधीन था। सीयक के पुत्र वाकपति के समय परमारों की राजधानी अवन्ती थी। वाकपति बड़ा वीर था जिसने गंगानदी से समुद्र तक आक्रमण किये थे।

वाकपति का पुत्र बैरीसिंह द्वितीय बड़ा बहादुर था। गौड़ प्रदेश में बगावत के समय उसका मुकाबला हणों से हआ जिसमें इसकी विजय हुई। इसने कर्णाटक के राष्ट्रकूट नरेश खोट्टिगदेव पर आक्रमण किया जिसमें परमार सेना विजयी हुई किन्तु वागड़ का शासक एवं परमार सेना का सेनापति कर्कदेव मारा गया। यह युद्ध 972 ईस्वी में खलिघट्ट नामक स्थान पर लड़ा गया था। श्री हर्ष ने राष्ट्रकूटों की राजधानी मान्यखेट को विजयी किया।

श्री हर्ष का पुत्र मुञ्ज बड़ा पराक्रमी, विद्वान और उच्चकोटी का कवि था। यह वाकपतिराज नाम से भी जाना जाता है जो दानवीर और विद्वानों का आश्रदाता था। मुञ्ज ने सहस्त्रबाहु के वंशज चैदां के राजा युवराज द्वितीय को परास्त कर उसकी राजधानी त्रिपुरी जिला जबलपुर को लूटा। उसने कर्णाटक के चालुक्य राजा तैलप को कई बार परास्त किया था। उत्तर में परमारों ने झालावाड़ को जीता तथा चितौड़ पर भी अधिकार कर लिया तथा गुहिलौतों की राजधानी आहड़ का विध्वंस कर दिया। उदयपुर (ग्वालियर) के प्राप्त लेखों में चोल देशों व केरल विजय के विवरण प्राप्त होते हैं। गुर्जरदेश का राजा मूलराज चालुक्य परास्त होकर राजस्थान के मरूप्रदेशों में भाग गया। तैलप ने तैयारी के साथ आक्रमण किया किन्तु वह मुञ्ज से परास्त होकर गोदावरी को पार कर भाग गया जहाँ मुञ्ज ने पीछा किया। तैलप ने छल से मुंज को पकड़कर उसे मरवा दिया। उसकी मृत्यु का समय 997 ई. माना गया है।

श्री हर्ष का दूसरा पुत्र सिन्धुराज था। यह भी बड़ा ही वीर पुरुष था। इसके शासनकाल में परमार राज्य की निरन्तर प्रगति हुई। उसने हूण, कौशल, लाट और मूरल पर विजय प्राप्त की।

कुंवर देवीसिंह मंडावा लिखित पुस्तक  "क्षत्रिय राजवंशों  इतिहास" से साभार 


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