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History of Jhala Rajputs of Mewar : मेवाड़ के झाला राजपूतों का इतिहास

 History of Jhala Rajvansh of Mewar : मेवाड़ के झाला क्षत्रिय राजपूत 

चंद्रवंशीय क्षत्रियों की उत्पत्ति महर्षि अत्रि के पुत्र चंद्र से मानी जाती है। क्षत्रियों के सूर्यवंश की भांति ही इस वंश की भी क्षत्रियों के प्राचीन छत्तीस कुलों में गणना की जाती है। चंद्रवंशीय क्षत्रिय नरेशों में पुरुरवा, नहुष और ययाति प्रतापी राजा हुए। पुराणों में इन की विविध आख्यायिकाएँ प्राप्त हैं। इस प्राचीन राजवंश में ब्रहभूरिख नामधेय परम धार्मिक राजा हुए। उसने अश्वमेघ यज्ञकर तात्कालीन राज-समाज में अपनी महानता की घोषणा की। उसका पौत्र राजा मख (मक) हुआ जिससे क्षत्रियों के चन्द्रवंश की मकवाण शाखा का उद्भव हुआ। मख के उत्तराधिकारियों ने दीर्घकाल तक कुन्तलपुर पर राज्य किया।



मख का पुत्र वीरोचन और उसका पुत्र रायल हुआ। रायल ने रणभूमि में शत्रुओं के दर्प का दलन कर क्षत्रियों की क्षात्र संज्ञा को सार्थक किया। उसका उत्तराधिकारी वासुदेव (वैरा) और उसका क्रमानुयायी केशरदेव हुआ। केशरदेव सिंध के राजा हमीर सूमरा से लड़कर वीरगति को प्राप्त हुआ। उसका पुत्र हरपालदेव पाटन के राजा कर्ण सोलंकी के पास गया। राजा कर्ण ने हरपालदेव को तैईस सौ ग्राम राज्य प्रदान कर अपना सभासद् बनाया। हरपालदेव ने पाटड़ी नामक स्थान को अपनी राज्य की राजधानी बनाया। तब से मकवाणों (झालों) का आदि स्थान पाटड़ी तथा पाटड़ी राणा का विरुद्ध प्रसिद्ध हुआ। 

हरपालदेव का पुत्र सोहडुदेव (सोढलदेव) हुआ। सोहडदेव की शिशुकाल में उसकी देवीस्वरूपा माता ने एक उन्मत्त गजराज के आघात से जीवन रक्षा की थी। उसने हाथी की चपेट से सोहडदेव को हाथ से झाल कर (ऊपर उठा कर) बचाया था। इसलिए सोहडदेव की संतति मकवाना के साथ-साथ झाला जातीय सम्बोधन से भी पुकारी जाने लगी।

सोहडदेव के क्रमानुयायी जैतसिंह पर गुजरात के यवन शासक ने चढ़ाई कर उससे पाटड़ी का राज छीन लिया। जैतसिंह का यथाक्रम तृतीय वंशधर बाघ हुआ। वह अपने राज्य की पुनर्घाप्ति के प्रयत्न में गुजरात के सुल्तान से लड़कर वीरगति को प्राप्त हुआ। बाघ का उत्तराधिकार राजा राजधर (राजसिंह) ने प्राप्त किया। राजा राजसिंह बड़ा भाग्यधनी राजा था। उसने वि.सं. 1544 माघ कृष्णा 13 को पाटड़ी के पास हलवद नगर का निर्माण कर उस को अपना मुख्यावास बनाया। राजा राजसिंह के अज्जा, सज्जा और राणा (राणकदेव) नामक तीन पुत्र हुए। राजा राजसिंह के तीनों ही पुत्र सुयोग्य और कर्मशील हुए। राजा राजसिंह के पुण्य प्रताप से झाला राजवंश का कालांतर में काठियावाड़ के हलवद (ध्रांगधरा) राज्य के अलावा वढवाणा,वांकानेर,लीमड़ी,लखतर,नरवर तथा राजस्थान में झालावाड़ पर शासन रहा। मुगलकाल में मालवा के गंगाधर परगने पर भी झालों का राज्य था। बादशाह शाहजहाँ के समय गंगाधर का स्वामी रावत दयालदास झाला था। वह नरहरिदास का पुत्र था। शाहजादों के उत्तराधिकार के धर्मत्त के युद्ध मे दयालदास अपने भ्राता राघदेव तथा झाला रणछोड़दास सहित मारा गया था। तब रावत दयालदास 9 सदी,जात, पांच सौ सवार का मनसबदार था।

यद्यपि राजा राजसिंह के वास्तविक उत्तराधिकारी अज्जा और सज्जा थे परन्तु उन दोनों भाईयों के राजसिंह की शवयात्रा में चले जाने पर छोटे भाई रणकदेव ने पीछे से हलवद की गद्दी पर अधिकार कर लिया। उन्होंने अनाधिकृत राज्य लुब्ध रणकदेव से विग्रह कर हलवद पर शासन करना उचित नहीं समझा। फलतः पुरुषार्थ और साहस के प्रतिरूप वीरवर अज्जा

और सज्जा ने अपने पैतृक राज्याधिकार का सहर्ष त्याग कर भीष्म पितामह की भाँति आदर्श उपस्थित किया और कालांतर में भी अपनी संतति के मन में राज्याधिकार की भावना तथा पैतृक राज्य-प्राप्ति के लोभ का अंकुर प्रस्फुटित होकर वंश-नाशक कलह न हो जाय, यह विचार कर उन महान त्यागी उभय बन्धुओं ने हलवद ही नहीं काठियावाड़ प्रदेश का ही सदा-सर्वदा के लिए त्याग कर राजस्थान की ओर प्रयाण किया। उन्हें अपने बाहबल और वीरता पर असीम विश्वास था। 

कुंवर देवीसिंह मंडावा द्वारा लिखित “राजपूत शखाओं का इतिहास” पुस्तक से साभार 


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