Religion and Culture of Kachwah Rajputs कछवाह शासकों का धर्म और संस्कृति
धर्म और संस्कृति- आमेर के कछवाहा शासक आरंभ में शैव धर्मानुयायी थे। कछवाहा शासकों में राजा उदयकरण के पौत्र राव मुकुल ने शैव-पूजा के स्थान पर वैष्णव पूजा अंगीकार की। राव मुकुल के प्रतापी पुत्र रावशेखा हिन्दू-मुस्लिम एक्य, समन्वयकों में पहिले व्यक्ति थे, वे अपनी धार्मिक सहिष्णुता औरमुस्लिम उदारता के लिए सर्वप्रसिद्ध है। इनके रसोवड़े में दोनों ही धर्मों वाले भोजन करते थे। यह परम्परा उनकी संतति में भी अवाध रूप से प्रचलित रही। यही नहीं शेखावाटी में न कभी मोर और गऊ वध हुआ और न मुस्लिम समाज के त्याज्य सूअर का माँस भोजनालय में आया। सूअर तो बाम्बे बड़ौदा सैंट्रल इण्डिया रेलवे की ब्रांच रीगस में पहुंचने पर ईसाई स्टेशन मास्टर की नियक्ति के बाद ही शेखावाटी में फैला इससे पूर्व ग्राम्य शूकरों की शेखावाटी में प्रतिछाया भी नहीं थी। राव मोकल के बाद तो राव रायसल और राव लूणकरण की संतति ने शेखावाटी में राम, कृष्ण, लक्ष्मीनारायण, कल्याणराय आदि के शताधिक मन्दिरों का निर्माण करवाया। उनकी भोगराग के लिए हजारों बीघा भूमि भेंट चढ़ाई। पुजारियों को उदक दी और उनके लिए पेटियों की व्यवस्था की।
महाराजा पृथ्वीराज की महारानी बालाबाई परम भागवत नारी रत्न थी। उनके प्रभाव से महाराजा भी वैष्णव बने । दोनों पति-पत्नी भोजन बनाते व गाते थे। इसी प्रकार महाराजा पूर्णमल भी स्वयं भजन लिखते और गाया करते थे। मुगल सम्राट अकबर के दीन इलाही धर्म का विरोध करने का श्रेय महाराजा भगवंतदास आमेर को ही है | महाराजा भगवंतदास और मानसिंह ने ही सर्वप्रथम सम्राट के इस जनून का विरोध किया था।
महाराजा सवाई जयसिंह द्वारा सम्पन्न बाजपेय तथा अश्वमेघ यज्ञ अपने आपमें एक महत्वपूर्ण बात है। अश्वमेघ यज्ञ करने वालों में सवाई जयसिंह अन्तिम हिन्दू नरेश थे। उस महाभागवत और यज्ञ की साक्षी वर्तमान में ब्रजराज का मन्दिर, यज्ञ स्तूप और घृत वाटिका के रूप में विद्यमान हैं। कुछ वर्षों पूर्व तक तो यज्ञ वेदिकाएँ और यज्ञ मण्डप भी अक्षुण्य थे, परन्तु आजादी के बाद मनमानी भूमि पर आधिपत्य करने की प्रवृति ने उन धार्मिक गौरव-स्वरूपों को अपने उदर में लील लिया है।
महाराजा सवाई प्रतापसिंह का ब्रजनिधि मन्दिर,राज परिवार की महारानियों,राजकुमारियों पड़दायतों, दासियों और सेरिकाओं द्वारा निर्मित जयपुर में सैंकड़ों मन्दिर हैं। रामगंज चौपड़ का विशाल मंदिर महाराजा सवाई जयसिंह की पुत्री और जौहरी बाजार में स्थित देवड़ीजी और चांपावत जी के मन्दिर आज भी अपनी निर्माण कथा द्वारा राजपरिवार की वैष्णव भक्ति का इजहार करते हैं। महाराजा माधवसिंह के यहाँ से मन्दिरों को भोगराग के अतिरिक्त नित्यप्रति मन्दिर भेंट और भिक्षुओं को दान की आजीव परम्परा प्रचलित रही। स्टेशन रोड पर स्थित माधोबिहारी जी का विशाल मन्दिर जयपुर राज परिवार द्वारा निर्मित अन्तिम विशाल मन्दिर है। यह महारानी तंवरजी ने बनवाया था।
राव मुकुल और राव लूणकरण,राजा रायसल द्वारा वैष्णव भक्ति की यह परम्परा शेखावत खांप और उनके प्रान्त शेखावाटी में स्वतन्त्रता के पूर्व तक निर्बाध प्रचलित रही। वर्तमान शताब्दि में दांता के ठाकुर उदयसिंह की पत्नी ने उदय बिहारीजी का विशाल और भव्य मन्दिर दांता में बनवाया राव कल्याणसिंह सीकर ने डिग्गी के कल्याणराय जी की भक्ति ग्रहण कर सीकर में कल्याणराय जी के अति अभिराम मन्दिर का निर्माण कर वहाँ सदाव्रत की व्यवस्था की, वर्तमान मंडावा के ठाकुर जयसिंह और नीमोडिया के ठाकुर हरिसिंह और डिग्गी के स्वर्गीय ठाकुर संग्रामसिंह की भी उच्चकोटि के भगवद् भक्तों और परमवैष्णवों में गणना की जाती है।
कछवाहा राजवंश में राजा आशकरण नरवर, राजा भगवानदास और उनकी संतति बांकावत कछवाहा, बख्तावरसिंह (महाराजा सवाई प्रतापसिंह के समय कालीन), केशरसिंह टकणोत, आदि कतिपय भक्त, भक्तकवि और परमधार्मिक पुरुष हुए हैं। खण्डेला के राजा नृसिंहदास की अनन्य तथा प्रगाढभक्ति की तो क्षेत्रिय इतिहासों में आम चर्चाएँ हैं।
राव मनोहरदास फारसी और बृजभाषा के उच्चकोटि के कवि थे। इसी प्रकार रावल नरेन्द्रसिंह जोबनेर,बृजनिधिकुमारी खंगारोत भाटखेड़ी,ठाकुर कल्याणसिंह खाचरियावास,ठाकुर भूरसिंह मलसीसर,कुं. आयुवानसिंह हूढील,सुजानसिंह मूंडरू,केशरीसिंह रेटा,रावल हरनाथसिंह डूंडलोद आदि कवि, लेखक और इतिहास के विद्वान थे। वर्तमान में भी ठा.सुरजनसिंह झाझड़, कुंवर देवीसिंह मंडावा, सौभाग्यसिंह भगतपुरा, सवाईसिंह धमोरा, डा. शंभुसिंह मनोहर, डा. गोरधन सिंह,डा.कल्याणसिंह,डा.अर्जुनसिंह,सुमेरसिंह शेखावत,कल्याणसिंह राजावत,बिशनसिंह शेखावत और भागीरथसिंह भाग्य, साहित्य, इतिहास, कला, अनुसंधान, पत्रकारिता आदि क्षेत्रों में जाने माने हस्त दस्तक हैं।
साहित्य-कछवाहा शासक जहाँ साहित्यकारों के आश्रयदाता थे वहाँ उन में स्वयं भी कई उच्चकोटि के विद्वान हुए हैं। राजा बीजलदेव संस्कृत के श्रेष्ठ विद्वान थे। उन्होंने संस्कृति भाषा का एक व्याकरण बनाया था। राजा पृथ्वीराज और उनकी भार्या महारानी बालाबाई दोनों दम्पति विद्वान थे। इस दम्पत्ति के रचित भक्तिपद प्रसिद्ध हैं। नाभादास और चरणदास ने अपनी भक्तमालों में इनका सश्रद्ध उल्लेख किया हैं। महाराजा मानसिंह प्रथम द्वारा एक घड़ी में छह चारण-राव कवियों को भूमि दान और लाख पसाव देकर सम्मानित करना उनके साहित्य अनुराग का प्रतीक है। वे स्वयं भी दोहे, आदि छन्द लिखा करते थे। महाराजा सवाई प्रतापसिंह तो भक्त कवियों के मुकुट तुल्य माने जाते हैं। ब्रज और राजस्थानी में उनके पद तथा विविध छन्द बृजनिधि ग्रन्थावली के माध्यम से चर्चित ही हैं। अलवर नरेश महाराजा बख्तावरसिंह और जयसिंह भी कवि हृदय शासक थे। महाराजा बख्तावरसिंह रचित कृष्णदान लीला भाषा में प्रणीत बड़ी सरल काव्य कृति है। कवि ने इसमें अनेक छन्दों में कृष्णदान लीला का वर्णन किया है। राव सूरजमल शेखावत,राजा रायसल शेखावत और राव हणवन्तसिंह पर रचित छन्द शास्त्र के ग्रन्थ हणवंत प्रकाश में उनके काव्य प्रेम का अनूठा बखान है। सीकर के राव देवीसिंह, केशरीसिंह टकनेत, ठाकुर शिवसिंह डूंडलोद आदि अनेक साहित्य सेवी शेखावत समाज में हुए हैं। राजा रामदास दरबारी तो कवियों के लिए दानवीर कर्ण के समतुल्य परिगण्य रहे हैं। बादशाह जहाँगीर द्वारा भी उनकी वदान्यता की सराहना की गई थी।
महाराजा रामसिंह द्वि. ने जैसा कि पूर्वोल्लेख हो चुका है, नाट्यशाला, थियेटर, जनाने अखाड़े, मल्ल विद्या, पिग स्टिकिंग, पैंथर स्टिकिंग, चौगान के खेल, सिंहादि की आखेट आदि मनोरंजन कलाओं तथा चित्र एवं स्थापत्य कलाओं का विकसित और प्रोत्साहन सर्वविदित है। महाराजा सवाई जयसिंह अलवर और महाराजा सवाई मानसिंह जयपुर विश्व विख्यात पोलो खिलाड़ी रहे हैं। भारत में पोलो की लोकप्रियता और प्रसिद्धि का कारण इन कुछ कछवाहा नरेशों के हिस्से में ही अधिक जमा होता है।
शिक्षा के क्षेत्र में भी कछवाहा शासकों की देन उल्लेखनीय रही है। भूतपूर्व जयपुर, अलवर राज्य तथा शेखावाटी के सीकर, खेतड़ी के विद्यालय तथा जोबनेर का कृषि कॉलेज कछवाहा समाज के प्रेम और जनहित के अक्षय विद्या मन्दिर हैं।
स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसे विद्वानों और समाजोन्नयनकों को आर्थिक सहयोग देकर भारत के गौरव की विश्व में पुनर्स्थापना की मशाल भी ज्वलित करने का श्रेय कछवाहों का कम नहीं हैं।
कुंवर देवीसिंह मंडावा की पुस्तक "राजपूत शाखाओं का इतिहास" से साभार