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महाराज पृथ्वी सिंह कोटा

 

महाराज पृथ्वी सिंह कोटा

भारत की स्वतंत्रता के लिए अपना बलिदान देने वालों में महाराज पृथ्वी सिंह हाडा का अग्रणी स्थान है। पृथ्वी सिंह कोटा के महाराव उम्मेद सिंह के छोटे पुत्र थे। महाराव किशोरसिंह उनके बड़े भाई थे। राजस्थान में अंग्रेजों का कोटा क्षेत्र में जालम सिंह झाला प्रमुख समर्थक तथा सहयोगी था। वह भी अंग्रेजों के माध्यम से कोटा पर अपना राजनैतिक प्रभुत्व जमाये रखना चाहता था। महाराज पृथ्वी सिंह अंग्रेजों तथा जालिम सिंह की राजनैतिक कूटनीतियों को समझते थे। महाराज पृथ्वीसिंह ने कोटा क्षेत्र में स्वतंत्रता आन्दोलन किया.

जालिम सिंह ने महाराव किशोर सिंह कोटा, कोयला के स्वामी राज सिंह हाडा, बलभद्र सिंह गैता, सलामत सिंह, दयानाथ हाडा, अनुज दुर्जनशाल, देव सिंह राजगढ़, प्रभ्रति हाडा व चन्द्रावत वीरों को अंग्रेजों के परतंत्रता से मातृभूमि को मुक्त करने के लिए तैयार किया।

स्वतंत्रता सेनानियों के विरुद्ध काली सिन्ध नदी के पास अंग्रेज अधिकारी कर्नल जेम्स टाड, लेफ्टीनेंट कर्नल जैरिज.लेफ्टीनेंट कलार्क, लेफ्टीनेंट रीड के नेतृत्व में अंग्रेज सेना ने तोपखाने के साथ इन पर आक्रमण किया। उधर स्वंत्रता के रक्षक महाराज पृथ्वी सिंह के आव्हान पर आठ हजार हाडा वीर अपनी ढालें-तलवारों, पुराणी देशी बंदूकों, तीर-कमान, भालों से सज्जित होकर युद्ध क्षेत्र में आ डटे। दोनों ओर के वीरों को वाध्यों के स्वरों से वीरों को प्रोत्साहित किया गया। हाडा वीर युद्ध क्षेत्र में अंगद के समान अडिग होकर युद्ध के लिए डट गए। अंग्रेजों के धधकते अंगारे बरसाते तोपखानों पर अपने प्राणों को न्योछावर करने वाले रण बाँकुरे हाडा टूट पड़े। शत्रुओं की रक्षा पंक्तियों को क्षण भर में छिन्न-विछिन्न कर ठाकुर देवी सिंह राजगढ़ ने लेफ्टिनेंट क्लार्क और कुमार बलभद्र सिंह गैंता ने लेफ्टिनेंट रीड को मारकर मैदान साफ कर दिया। लेफ्टिनेंट जैरिज युद्ध क्षेत्र में घायल होकर गिर पड़ा। इस युद्ध में महाराज पृथ्वी सिंह की विजय हुई। महाराज पृथ्वी सिंह का क्रोध शांत नहीं हुआ। वह ठाकुर देवी सिंह राजगढ़ सहित अपने चुने हुए हाडा वीरों के साथ राणा जालिम सिंह की सेना पर टूट पड़े। युद्ध की विकरालता से जालिम सिंह की सेना में कोहराम मच गया। सैकड़ों वीरों के मस्तक रण क्षेत्र में लुढ़कने लगे। जमीन पर लहु का कीचड़ हो गया।

अंत में महाराज पृथ्वी सिंह और ठाकुर देवी सिंह भी तिल-तिल घावों से छक कर रणभूमि पर सो गए। कर्नल टॉड ने उन्हें पालखी में उठवाकर उपचार के लिए शिविर में पहुँचाया, जहाँ वे दुसरे दिन वीरगति को प्राप्त हुए। संवत 1871 वि. को मांगारोल स्थान के उस युद्ध में स्वतंत्रता समर के योद्धा महाराज पृथ्वी सिंह ने आजादी के समर यज्ञ में अपने प्राणों की आहुति देकर उसे प्रज्ज्वलित किया।

यद्दपि भारतीय इतिहासकारों ने ब्रिटिश सत्ता के प्रकोप से उक्त वीरों को अपने इतिहासों में महत्व नहीं दिया है। इस वीर के बलिदान के प्रति सभी ओर से उपेक्षा बरती गयी तथापि सम-सामयिक राजस्थानी कवियों ने अपने कवि धर्म का पालन किया। महाराज पृथ्वी सिंह द्वारा अंग्रेजों की आधुनिक युद्ध सज्जा से युक्त एवं युद्ध कला से प्रशिक्षित शत्रु सेना से घमासान युद्ध कर वीरगति प्राप्त करने का जो वर्णन किया है वह स्वतंत्रता स्वर के उद्बोधक कविवर जसदान आढ़ा ने महाराज पृथ्वी सिंह की रण क्रीडा को होली के पर्व पर रमी जाने वाली फाग क्रीड़ा से तुलना करते हुए कहा है -

बौली चसम्मा मजीठ नखंगी घूप रै बागां

पैना तीर गोळी सांग लागा आर पार।

होळी फागां जेम खागां उनंगी पीथलै हाडै,

हिलोळी फिरंगा सेना पैंतीस हजार।।

वीरवर पृथ्वी सिंह , तीक्षण -बाणों , गोलियों ओर भालों के प्रहार से क्षत विक्षत हो जाने पर और क्रुद्ध होकर तलवार से प्रहार करने लगा द्य होलिकोत्सव की फाग क्रीडा के समान नग्न तलवारों के आघात कर उसने अंग्रेजो की पैतीस हजार सेना को आंदोलित कर दिया।

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