राव गोपालसिंह खरवा
राव गोपालसिंह जी का जन्म कार्तिक बदी 11 वि. स. 1930 (19 अक्टूबर
1873 ई.स.) को खरवा में हुआ था. इनके पिता का नाम माधोसिंह जी था. खरवा के
ठिकानेदार सकतसिंघोत जोधा राठौड़ है. जोधपुर के शासक मोटा राजा उदयसिंह के पुत्र
राव सकतसिंह की चौदहवीं पीढ़ी में क्रांति के अग्रणी नेता राव गोपालसिंह का जन्म
हुआ था.
कुंवर गोपालसिंह बारह वर्ष की अवस्था में ही घुड़सवारी और
अस्त्र-शस्त्र चलाने में पारंगत हो चुके थे. साहस और निर्भीकता के वे पुंज थे.
क्षत्रियोचित गुण उन्हें विरासत में मिले थे. आपकी प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुई
थी. आगे की शिक्षा प्राप्ति के लिए अजमेर के मेयो कालेज में प्रवेश दिलाया गया.
वहां वे केवल छ: वर्ष ही अध्ययन कर पाये थे कि वि.स. 1948 में सहसा उन्होंने कालेज
छोड़ दिया. उस समय इनकी आयु 18 वर्ष हो चुकी थी. एक वर्ष पूर्व ही इनका विवाह
उत्तरप्रदेश की शिवगढ़ रियासत के गौड़ राजा की पुत्री के साथ हुआ था.
उग्र स्वभाव के कुंवर गोपालसिंह जी मेयो कालेज की पढाई छोड़कर मंडावा
(शेखावाटी) के ठाकुर अजीतसिंह जी के पास जयपुर चले गये. जयपुर में अधिक समय नहीं
रुके, यहाँ से वे अजमेर चले गये. कुछ समय बाद जोधपुर चले गये. जोधपुर में उस समय
महाराजा जसवन्तसिंह जी (द्वितीय) का शासन था. जोधपुर रहते समय वहां के वातावरण का
कुंवर गोपालसिंह के चरित्र निर्माण पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा. जोधपुर वे दो वर्ष रहे
फिर वहां आकर अजमेर में रहने लगे. कुंवर पदे खरवा की शासन व्यवस्था भी देखी थी.
वहां का राजकार्य व्यवस्थित रूप से चलाया.
राव माधोसिंह जी की मृत्य कार्तिक कृष्णा 9 वि.स. 1955 (16 अक्टूबर,
1897) को हुई. अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् गोपालसिंह जी खरवा ठिकाने के
शासनाधिकारी बने. राव गोपालसिंह जी की गद्दी नशीनी के एक वर्ष पश्चात् वि.स. 1956
में भयानक दुर्भिक्ष पड़ा. जिसे छप्पनिया अकाल कहा जाता गया. राजपुताना के अधिकांश
भागों में वर्षा की एक भी बूंद नहीं गिरी. पूरे प्रदेश में घोर दुर्भिक्ष छा गया.
अन्न के बिना मनुष्य और चारे के बिना पशु मरने लगे. इस अकाल का अत्यधिक प्रकोप
बीकानेर, जैसलमेर और जोधपुर राज्यों में हुआ. परन्तु जयपुर, मेवाड़ और अजमेर
प्रान्त भी अकाल की विभीषिका से अछूते नहीं रहे. इस दुर्भिक्ष से राजपुताना में
हाहाकार मच गया. राजपुताना के राजाओं ने भूख से पीड़ित जनता की सहायता की, जो उनका
कर्तव्य था. भूख से पीड़ित जनता के लिए स्थान-स्थान पर सदाव्रत खोल दिए गए. जनता के
लिए अन्न चारे की व्यवस्था की गई.
खरवा के राव गोपालसिंह जी ने दुर्भिक्ष से पीड़ित जनता को बचाने के लिए
उदारता से सहायता कार्य शुरू किया. यद्धपि उनकी आय के साधन सीमित थे. परन्तु उनका
हृदय महान था, वे परम उदार एवं त्यागमूर्ति थे. उन्होंने अपने इलाके के कई गांव
अजमेर और ब्यावर के सेठों के गिरवी रखकर कर्ज लिया और भूखी जनता की सेवा में जुट
गये. जनता को मुफ्त खाना खिलाया जाने लगा. बाहर से आने वालों को भी अपने यहाँ
आश्रय दिया. राव गोपालसिंह ने सीमित साधन होते हुए भी अपने ठिकाने की आय से अधिक
धन भूखी जनता के पालनार्थ दिल खोलकर खर्च किया. उस समय लाखों का कर्ज ठिकाने पर हो
गया. लेकिन उन्होंने दिल खोलकर अपनी जनता का पालन-पोषण किया. समकालीन चारण कवियों
ने मानवता के प्रति उनकी सेवा और असीम त्याग को
चिरस्थाई बना दिया-
भय खायो भूपति, दुरभख छपनों देख.
पाळी प्रजा गोपलसी, परम धरम चहुँ पेख..
वि.स. 1957 (ई.स. 1800) में चीन का युद्ध आरम्भ हुआ. अंग्रेजों
ने भी अपनी सेनाएं इस युद्ध में भेजी थी. बीकानेर और जोधपुर के राजाओं की सेनाएं
भी अंग्रेजों की तरफ से चीन युद्ध में भाग लेने गई थी. खरवा राव गोपालसिंह जी ने
भी इस युद्ध में जाने के लिए प्रार्थना-पत्र भेजकर वायसराय की स्वीकृति चाही,
परन्तु उनका प्रार्थना-पत्र सधन्यवाद अस्वीकृत कर दिया गया. गोपालसिंह जी को अपने
पूर्वजों की भांति युद्ध में जाकर शौर्य दिखाने की इच्छा थी. साथ ही वे विकसित
सामरिक तकनीक का भी अध्ययन करना चाहते थे. परन्तु अजमेर की अंग्रेज सरकार के
उचाधिकारी अजमेर-मेरवाड़ा के सामन्तों को ऐसा अवसर प्रदान करने के पक्ष में नहीं
थे.
मसूदा के राव बहादुरसिंह की निसंतान मृत्यु होने पर उनके खानदान के दो
दावेदारों ने उत्तराधिकार के लिए अपना-अपना पक्ष पेश किया. अजमेर के कमिश्नर ने
अजमेर-मेरवाड़ा प्रान्त के इस्तमरारदार सामन्तों से इस सन्दर्भ में परामर्श करने के
लिए एक मीटिंग बुलाई. खरवा, भिणाय, देवलिया, पीसांगन, जूनियां आदि के सामन्तो से
इस विषय पर विचार-विमर्श करते हुए कमिश्नर ने पूछा- मसूदा के लिए दावेदार लड़ रहे
है. विवाद की जटिलता को देखते हुए ठिकाने को सरकारी अधिकार में ले लिया जाये तो
क्या आपत्ति है. उस समय सभी ठिकानेदार चुप हो गये, परन्तु राव गोपालसिंह जी ने
विरोध किया. इस निर्भीक प्रतिरोध से कमिश्नर उस समय तो चुप हो गया. किन्तु राव
गोपालसिंह जी को वह उसी दिन से शंका की दृष्टि से देखने लगा. उसे उनमें राजद्रोह
की बू आने लगी और वह उनसे असंतुष्ट रहने लगा. उस समय इस्तिमरारदारों के काँजी होज
रखने एवं आबकारी के अधिकारीयों को प्रान्तीय अंग्रेज सरकार ने लेना चाहा, परन्तु
इस्तिमरारदार सामन्तों ने संगठित प्रयास एवं राव गोपालसिंह जी के दबंग नेतृत्व के
कारण वे ऐसा नहीं कर सके. इससे अंग्रेज अधिकारी राव गोपालसिंह के प्रति अधिक
शंकालू बन गये. राव गोपालसिंह का अंग्रेज अधिकारीयों के प्रति उपेक्षा का रवैया
बढ़ता चला गया और वे उनके सन्देह के घेरे में अधिकाधिक आते चले गये.
सम्राट एडवर्ड के राज्यारोहण के उपलक्ष्य में भारत के गवर्नर जनरल
लार्ड कर्जन ने सन 1903 में जनवरी माह में दिल्ली में एक भव्य दरबार का आयोजन
किया, जिसमें उपस्थित होने के लिए भारतवर्ष के समस्त राजा, महाराजा और नबाबों को
आमंत्रित किया गया था. कर्जन के विशेष अनुरोध करने पर उदयपुर के महाराणा फतहसिंह
ने भी इस दरबार में उपस्थित होने का निश्चय किया. बारहठ केसरीसिंह और राजस्थान के
कई अन्य स्वाभिमानी सामन्तों को महाराणा फतहसिंह जी का यह निर्णय अखरने लगा. जयपुर
में हुई एक राजपूतों की मीटिंग में यह निर्णय लिया गया कि महाराणा को दिल्ली दरबार
में जाने से रोकना चाहिए, तदानुसार बारहठ केसरीसिंह ने महाराणा को दिल्ली दरबार
में जाने से रोकने के लिए महाराणा को संबोधित करते हुए कुछ सोरठों की रचना की.
क्योंकि महाराणा स्पेशल ट्रेन से दिल्ली के लिए रवाना हो चुके थे. महाराणा के
सुप्त गौरव को जगाने के लिए उन मर्मस्पर्शी सोरठों को राव गोपालसिंह को महाराणा तक
पहुँचाने को सौंपे गए. राव गोपालसिंह जी ने यह कार्य तुरंत किया, जिससे उन सोरठों
को पढ़कर महाराणा का सुप्त गौरव जाग उठा और वे दिल्ली पहुंचकर भी बिना दरबार में
उपस्थित हुए वापिस आ गए.
राजनीति से क्रांति की ओर- सन 1857 ई. की क्रांति को क्रूरतापूर्वक कुचल
दिए जाने के पश्चात् अंग्रेजों के प्रति भारतियों के मन में छिपी घृणा एवं
प्रतिशोध धीरे-धीरे प्रकट होने लगा. अंग्रेजों के विरुद्ध वातावरण बनने लगा.
राजस्थान में इन दिनों राव गोपालसिंह खरवा और बारहठ केसरीसिंह का उदय हुआ. इन
दोनों ने राजपुताना के सुप्त गौरव और स्वाभिमान की पुन: जागृति के लिए क्रांति के
कठिन मार्ग को अपनाया. लोकमान्य तिलक के उग्र राष्ट्रवादी विचारों के अनुयायी राव
गोपालसिंह खरवा शस्त्र-शक्ति में विश्वास रखने वाले क्षात्र धर्म के उपासक व्यक्ति
थे. उनकी मान्यता थी कि क्षात्र कर्म के माध्यम से ही देश को गुलामी से मुक्त किया
जा सकता है. वे अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े जा रहे अहिंसक असहयोग आन्दोलन के समर्थन
नहीं थे. प्रथम विश्व-युद्ध के समय को उपयुक्त अवसर जानकर देश के अन्य क्रांतिकारी
नेताओं के साथ मिलकर उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति का शंखनाद किया.
रासबिहारी बोस और शचीन्द्रनाथ सान्याल के संगठन में उनका भी नाम था. 1915 ई. के
स्वतंत्र्य विद्रोह के समय अजमेर-मेरवाड़ा में जन विद्रोह का संचालन किया था.
प्रान्त को अंग्रेजों के अधिकार से मुक्ति दिलाने के कार्य के अग्रणी नेता राव
गोपालसिंह जी ही थे.
राजस्थान में क्रांति की ज्योति जगाने में अग्रणी राव गोपालसिंह खरवा
और बारहठ केसरीसिंह के अलावा अर्जुनलाल सेठी भी प्रमुख व्यक्ति थे. अर्जुनलाल सेठी
राव साहब के सहयोगी थे. ये जयपुर में एक पाठशाला चलाते थे. अपने छात्रों में
देशभक्ति की भावना भरने एवं स्वतंत्रता के लिए संघर्षों में भाग लेने हेतु उन्हें
तैयार करने का उल्लेखनीय कार्य भी करते थे. "अभिनव भारत समिति" नाम से
उन्होंने एक संगठन गुप्त रूप से खड़ा किया, जिसके सदस्य देशहित में संघर्ष करने की
शपथ लेते थे.
प्रमुख सहयोगी क्रांतिकारी- ब्यावर के सेठ दामोदरदास राठी, राव गोपालसिंह के
अभिन्न मित्र एवं विश्वस्त साथी थे. दामोदरदास माहेश्वरी वैश्य थे, पोकरण उनका
पैतृक स्थान था. राठीजी ब्यावर में अपने पिता द्वारा स्थापित कृष्णा मिल चलाते थे.
उन्होंने मेरवाड़ा के बेरोजगार लोगों को रोजगार में लगाने का जनहित कार्य किया. इसके
साथ ही वे क्रांतिकारियों को गुप्त रूप से आर्थिक सहयोग भी देते थे. दामोदरदास
राठी, ठाकुर भोमसिंह मीठड़ी को चाँदी भेजते थे. ठाकुर भोमसिंह उस चाँदी के सिक्के
बनाकर क्रांतिकारियों को देते थे, जिससे क्रांतिकारी हथियार खरीद सकें. क्षेत्रों
में कार्य करते हुये परस्पर सम्पर्क बनाये हुए थे. दिल्ली और पंजाब के
क्रांतिकारियों का अलग संगठन था. उत्तरप्रदेश और बिहार के क्रांतिकारी बंगाल की
"बंग अनुशीलन समिति" से जुड़े हुए थे. उक्त संगठन के प्रमुख सूत्रधार रास
बिहारी बोस और शचिन्द्रनाथ सान्याल इस प्रयत्न में लगे हुए थे कि उत्तरी भारत के
समस्त क्रांतिकारी संगठनों को मिलाकर एक शक्तिशाली संगठन बनाकर कार्य संचालन किया
जावे, ताकि संगठन की शक्ति और एकरूपता बनी रहे.
राव गोपालसिंह अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति की तैयारियां कर रहे थे,
उनकी कार्यविधि दूसरे क्रांतिकारियों से अलग थी. वे इन सब संगठनों से जुड़े हुए थे.
उन्होंने अपना एक क्रांतिकारी संगठन खड़ा किया. राव गोपालसिंह के अनुयायी अधिकांश
क्रांतिकारी उन सैनिक जातियों से थे जो जन्मजात योद्धाओं के गुण रखते थे.
तलवार-बन्दूक चलाने, ऊंटों-घोड़ों की लम्बी सवारी करने में कुशल तथा कठिनाइयाँ सहने
में माहिर थे. मगरा-मेरवाड़ा के पार्वत्य क्षेत्र के निवासी राजपूत, रावत, मेहरात
और गुर्जर युद्ध प्रिय प्रवृति के लोग उनके सहयोगी थे. ये लोग छापामार युद्ध में
पारंगत थे. जोधपुर की घुड़सवार सेना के अनेक सेवानिवृत सैनिक राव गोपालसिंह जी के
पास खरवा आ गये थे. उनमें बलवन्तसिंह महेचा, गाड़सिंह डेह, मेड़तिया सवाईसिंह
ततारपुरा और मेड़तिया बख्तावरसिंह, चन्द्रसिंह जोधा प्रमुख थे. ये लोग राव
गोपालसिंह जी के इशारे पर अपने प्राणों की बाजी लगाने को तैयार रहते थे.
उत्तरी भारत के क्रांतिकारी राजनैतिक हत्याओं, डकैतियों एवं बम-धमाकों
से ब्रिटिश भारत में आतंक, भय और विद्रोही भावना फ़ैलाने में प्रवृत थे. राव
गोपालसिंह जी ऐसे कार्यों से सर्वथा अलग रहकर अपने ढंग से अंग्रेज-विरोधी संघर्ष
में भाग लेने की तैयारी कर रहे थे. उन्होंने यथा शक्ति अस्त्र-शस्त्रों का संग्रह
किया था. हेनरी मार्टिन बन्दूकें जगह-जगह से खरीदकर मंगाई गई. उस समय बन्दूकों के
कारतूस अप्राप्य थे. इस हेतु कारतूस भरने के औजार मंगाकर अपने विश्वस्त लोगों को
कारतूस भरने के कार्यों में लगाया. कुचामन से तोपें ढलवा कर मंगवाई गई. देशी
बन्दूकों व तोपों का बारूद मंगाया गया. यह सब कार्य वे गुप्त रूप से करते थे.
राव गोपालसिंह जी अन्य क्रांतिकारियों को भी शस्त्र देते थे. अन्य
क्षेत्रों के क्रांतिकारी उनके यहाँ गुप्तरूप से ठहरते थे. सन 1908 से 1915 ई. तक
का सात वर्ष का समय राव गोपालसिंह जी द्वारा देश की स्वतंत्रतता के लिए किये गए
क्रांतिकारी कार्यों का इतिहास रहा है.
23 दिसंबर, 1912 को वायसराय लार्ड हार्डिंग गजारूढ़ होकर दिल्ली के
चाँदनी चौक बाजार से गुजर रहा था. जुलूस में भीड़ में से किसी ने उनको निशाना बनाकर
बम फैंका. वायसराय बच गये, लेकिन उनका अंगरक्षक मारा गया. वायसराय पर बम फैंकने
वाला बारहठ जोरावरसिंह था, जो क्रांतिकारी कवि केसरीसिंह बारहठ का लघु भ्राता था.
इस घटना से पूर्व क्रांतिकारी विष्णुदत्त ने राजपुताना के क्रांतिकारी युवकों के
सहयोग से बिहार प्रान्त में नीमेज गांव के एक मठाधीश महन्त की तथा कोटा में जोधपुर
के प्यारेराम रामस्नेही साधु की हत्या कर दी, जिसका उद्देश्य क्रांतिकारियों के
लिए धन संग्रह करना था. इस कार्य में उसके साथी अर्जुनलाल सेठी की जैन पाठशाला के
तीन युवक थे. कोटा के युवकों में जोरावरसिंह बारहठ और उसके साथी थे. अजमेर के
आर्य-छात्रावास के दो छात्र सोमदत्त लहरी और नारायणसिंह थे. हार्डिंग बम-काण्ड की
जांच के समय से ही ख़ुफ़िया विभाग की आँखें सेठी जी और बारहठ केसरीसिंह जी पर लगी
हुई थी. सेठी का एक साथी शिवनारायण इन्दौर में घूमता हुआ पुलिस के द्वारा सन्देह
में पकड़ लिया गया. बम-काण्ड के सम्बन्ध में उसे कुछ जानकारी नहीं थी, परन्तु पुलिस
द्वारा दी गई यातना से उस व्यक्ति ने नीमेज हत्याकाण्ड का भेद खोल दिया. उसी आधार
पर अर्जुनलाल सेठी और केसरीसिंह बारहठ दोनों को बन्दी बना लिया गया. उस काण्ड के
प्रमुख अभियुक्त पंडित विष्णुदत्त और सोमदत्त लहरी पकड़े गये और उन्हें दस वर्ष की
काले पानी की सजा दी गई. राठौड़ नारायणसिंह गोवलिया उस धर-पकड़ से पहले ही क्षय रोग
से ग्रस्त होकर मृत्यु को प्राप्त हो चुके थे.
इन घटनाओं से राव गोपालसिंह जी का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं था. सरकारी
ख़ुफ़िया विभाग ने भी जांच के पश्चात् उन्हें उक्त हत्याकाण्ड से जोड़ने की चेष्टा
नहीं की. सोमदत्त लहरी ने अपने बयानों में कहा था कि- "वह अजमेर आर्य समाज
पाठशाला में खरवा के राव गोपालसिंह की आर्थिक सहायता से पढता था. विष्णुदत्त भी
खरवा आता-जाता रहता था. बारहठ केसरीसिंह जी भी खरवा राव गोपालसिंह जी के मित्र है.
राव साहब अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत करने के लिए राजपूतों की सेना तैयार कर रहे
है." अंग्रेजी सरकार को राव गोपालसिंह पर अराजकतावादी तत्वों से सम्पर्क रखने
और उन्हें संरक्षण देने का सन्देह उत्पन्न हुआ.
अजमेर जिला कलक्टर ए. टी. होमर ने 29 अक्टूबर 1914 ई. को राव
गोपालसिंह को एक आरोप पत्र लिखा. आरोप-पत्र का समुचित उत्तर देकर राव गोपालसिंह जी
ने उस विपत्ति को एक बार तो टाल दिया. यह भी सम्भव है कि अंग्रेज अधिकारीयों ने
केवल एक अपराधी के बयानों के आधार पर ही प्रान्त के एक प्रभावशाली प्रमुख ताजिमी
सरदार पर पुष्ट प्रमाणों के अभाव में कार्यवाही करना न्यायोचित न समझा. किन्तु वे
राव गोपालसिंह जी को अत्यधिक सन्देह की दृष्टि से देखने लगे.
दिल्ली निवासी पंडित बालकृष्ण क्रांतिकारियों का सहयोगी था. वह दिल्ली
में चाँदनी चौक बाजार में एक दुकान चलाता था. दिल्ली जाने पर राव गोपालसिंह जी
उसके यहाँ ठहरते थे तथा उसके माध्यम से दिल्ली और पंजाब के क्रांतिकारियों से उनकी
भेंट होती थी. गुजरात निवासी मणिलाल, पंडित बालकृष्ण का विश्वासी व्यक्ति था. वह
क्रांतिकारियों के मध्य काम करता था. वह दिल्ली के क्रांतिकारियों की तरफ से राव
साहब से मिलता था और वहां की गतिविधियों की जानकारी देता था. पंडित बालकृष्ण के
कहने पर राव साहब ने उसे एक पिस्टल तथा कारतूस दिए थे. शचिन्द्रनाथ सान्याल तथा
राव गोपालसिंह जी के सम्पर्क की कड़ी का काम बन्दी बनाये जाने से पूर्व बारहठ
केसरीसिंह जी का पुत्र प्रतापसिंह करता था. उसके माध्यम से शचिन्द्रनाथ के पास कुछ
रिवाल्वर तथा कारतूस भेजे गये थे.
जनवरी 1915 ई. के आरम्भ में राव गोपालसिंह जी खरवा के बाहर जंगलों में
तम्बुओं में रहने चले गये. ऐसा वे पहले भी करते थे. खरवा और मसूदा के बीच पहाड़ी
क्षेत्र में उनके डेरे तम्बू लगे हुए थे. मगरा और मारवाड़ से आने वाले लोगों से
सम्पर्क रखने हेतु यह स्थान उपयुक्त था. शस्त्रों से सज्जित राव गोपालसिंह जी अपने
विश्वस्त साथियों के साथ इस क्षेत्र में लगे कैम्पों में रह रहे थे. उनके साथ
संघर्ष में जूझने वाले और उनके लिए प्राणोत्सर्ग करने वाले साथी उस्थित थे. उनके
कुटुम्ब के काका ठाकुर मोड़सिंह भवानीपुरा, खरवा के राजपुरोहित मोड़सिंह, राव साहब
के निजी सचिव भूपसिंह, सवाईसिंह ततारपुरा, चन्द्रसिंह देवगढ, बख्तावरसिंह मालावास
आदि लोग हरदम रहते थे.
खरवा गढ़ में विश्वस्त राजपूत हरदम चौकस पहरा दे रहे थे. ग्रामीण जनता
में अनेक तरह की अफवाहें फ़ैल रही थी. कहा जा रहा था कि युद्ध में विजयी होकर जर्मन
सेनाएं जल्दी ही अंग्रेजों को निकालने के लिए भारत पर हमला कर देंगी. भारतीय सैनिक
भी विद्रोह करके छावनियों से बाहर आ जायेंगे. देश से अंग्रेजों को बाहर निकालने का
यही मौका है.
राव गोपालसिंह जी का लक्ष्य नसीराबाद की छावनी पर अधिकार करके अजमेर
पर हमला करना था. यह कार्य नसीराबाद की छावनी के देशी सैनिकों के पूर्ण सहयोग से
ही संभव था, जिसके लिए वे पहले से ही प्रयास कर रहे थे. इन छावनियों में
क्रांतिकारियों ने गुप्त रूप से प्रवेश पा लिया था. ऐसी विद्रोही गतिविधियों की
सूचना सरकार को गुप्तचरों के द्वारा मिल गई थी. छावनियों में अंग्रेज सैनिकों की
संख्या बढ़ा दी गई. गुप्तचर विभाग के लोग सतर्क हो गये. कुछ छद्म रूप से
क्रांतिकारियों से मिले हुये थे. इसलिए उत्तर भारत के प्रमुख नगरों में
क्रांतिकारियों के गुप्त स्थानों पर अचानक छापे मारे गये. कई क्रांतिकारी बन्दी
बना लिए गये. उन्हें कठोर यातनाएं दी गई. जो लोग यातना सहने में कच्चे थे,
उन्होंने अपने साथियों के नाम और ठिकाने बता दिये.
पंडित बालकृष्ण ने तुरन्त दिल्ली से खरवा आदमी भेजकर खरवा गुप्तचर
विभाग की कार्यवाही की सूचना भेज दी दी. तत्काल क्रांतिकारियों को सावधान कर दिया
गया. गोली-बारूद गुप्त स्थानों पर छिपा दिए गये. उत्तम दर्जे की विलायती बन्दूकें
सुरक्षित रखने हेतु अपने विश्वस्त लोगों के पास मारवाड़ क्षेत्र में भेज दी गई.
बहुत से सहयोगियों को अज्ञात स्थानों पर भेज दिया गया. गोपालसिंह जी अपने साथियों
के साथ खरवा आ गये. देश में क्रांतिकारियों की धर पकड़ जारी थी. क्रांतिकारियों के
नये नये नाम और उनके गुप्त भेद ख़ुफ़िया पुलिस की जानकारी में आ रहे थे. आने वाली
विपत्ति से राव गोपालसिंह जी सतर्क थे.
गुजरात का मणिलाल नामक युवक पकड़ा गया. दिल्ली षड्यंत्र केश की जाँच कर
रहे अधिकारी के सामने उसने स्वीकार किया कि वह खरवा जाता था और वहां से पिस्टल और
कारतूस लाकर क्रांतिकारियों को देता था. सन 1914 में गिरफ्तार सोमदत्त लहरी ने
अपने बयान में बताया था कि खरवा राव गोपालसिंह जी लोगों को अंग्रेजों के विरुद्ध
भड़का रहे है और विद्रोह के लिए उनकी एक सेना तैयार कर रहे है. मणिलाल के बयान के
आधार पर अंग्रेज अधिकारीयों ने गोपालसिंह जी को बन्दी बनाने और उन पर विद्रोह का मुकदमा
चलाने की तैयारी की. सभी पहलुओं पर विचार करके अंग्रेजों के दिल्ली स्थित राजनैतिक
विभाग ने राव गोपालसिंह जी को "भारत रक्षा कानून" के तहत बन्दी बनाने का
निर्णय लिया.
राव गोपालसिंह जी को बन्दी बनाया जाना- 21 जून 1915 ई. को अजमेर के कमिश्नर मिस्टर
ए.टी. होम ने राव गोपालसिंह जी को अजमेर पहुँच कर उनसे मिलने हेतु टेलीग्राम
द्वारा सूचना दी. राव गोपालसिंह जी ने टेलीग्राम द्वारा सूचना दी कि वे अजमेर आने
में असमर्थ है. तब 27 जून 1915 ई. को अजमेर के कमिश्नर ए.टी.होम अन्य अधिकारीयों
के साथ खरवा आ गये. कमिश्नर को गढ़ के भीतर बुला लिया गया. कमिश्नर ने राव साहब से
एकान्त में बातें की. ए.जी.जी. राजपुताना एवं चीफ कमिश्नर अजमेर-मेरवाड़ा द्वारा
भारत-रक्षा कानून (Defence
of India Act) के अंतर्गत उनकी
नजरबन्दी हेतु प्रसारित आदेश-पत्र उन्हें पढाया. इस आदेश-पत्र में निर्देश था कि
यह आदेश मिलने के 24 घन्टे के भीतर खरवा छोड़कर टॉडगढ़ के लिए रवाना हो जाओ और वहां
पर सरकार द्वारा निर्धारित स्थान पर जब तक नया आदेश न मिले रहो और आदेश-पत्र में
लिखित नियमों और हिदायतों का पालन करो. 28 जून 1915 को राव गोपालसिंह जी शाम को
ट्रेन द्वारा खरवा से ब्यावर पहुंचे. उसी रात घोड़ों की बग्गी द्वारा टॉडगढ़ के लिए
रवाना हो गये. 29 जून को वे प्रात: वहां पहुंचे. टॉडगढ़ में उनके साथ 15व्यक्ति थे.
उनके साथ मोड़सिंह भवानीपुरा, पुरोहित मोड़सिंह, सवाईसिंह ततारपुरा, निजी सचिव
भूपसिंह और बाकी के सेवक थे. जो लोग गोपालसिंह जी के साथ गये उनमें किसी भी पर भी
राजद्रोह का अभियोग नहीं था. केवल राव गोपालसिंह जी के लिए नजरबन्दी का आदेश था.
राव गोपालसिंह जी के टॉडगढ़ जाने के पश्चात् पुलिस व सेना के जवानों ने
खरवा गढ़ की घेराबन्दी करके सघन तलाशी ली. वहां रखे शस्त्रों को अधिकार में लेकर
ब्यावर राजकीय शस्त्रागार में जमा करा दिये. बहुत से आभूषण, जवाहरात, सोना, चांदी
जो हाथ लगा सरकारी अधिकार में ले लिए गया. टॉडगढ़ में भारतीय पुलिस अधिकारीयों की
सहानुभूति गुप्त रूप से राव गोपालसिंह जी के साथ थी. उसी समय लाहौर षड्यंत्र केस
में पकड़े गये एक व्यक्ति ने अपने बयानों से भूपसिंह से मिलने एवं उसके द्वारा खरवा
से बन्दूकें व कारतूस प्राप्त करने की बात कही थी. पुलिस सब-इंस्पेक्टर ने
गोपालसिंह जी को इस बात की जानकारी दे दी थी कि भूपसिंह पर सरकार को शंका है. उसके
बयान लेने के लिए अजमेर से पुलिस इंस्पेक्टर आ रहा है. गोपालसिंह जी ने इस गुप्त
सूचना को पाकर भूपसिंह को उसी रात टॉडगढ़ से निकालकर भूमिगत कर दिया.
टॉडगढ़ से फरार- उन्हें पता चला कि अंग्रेज अधिकारी उनके पास
रखने के हथियार भी छिनना चाहते है. इस हद तक अपमानित होने को वे तैयार नहीं थे.
टॉडगढ़ के तहसीलदार और सब-इंस्पेक्टर राव गोपालसिंह जी के पास गये और उन्हें शस्त्र
सौंप देने का आदेश सुनाया. राव गोपालसिंह जी ने अपने शस्त्र नहीं सौंपे. मोड़सिंह
भवानीपुरा को साथ लेकर राव गोपालसिंह जी टॉडगढ़ से 10 जुलाई को फरार हो गये. दोनों
शस्त्रों सहित घोड़ों पर सवार होकर वहां से निकल गये. अंग्रेज अधिकारी उन्हें ढूढते
रहे, लेकिन उनका कोई पता नहीं चला. खरवा को सरकार ने अपने अधिकार में ले
लिया.'उदयपुर और जोधपुर में नियुक्त अंग्रेज रेजिडेन्टों को सूचित किया गया कि वे
वहां के शासकों पर दबाव डालें जिससे राव गोपालसिंह जी उनके राज्यों में शरण न सकें
एवं उन्हें बन्दी बनाने में सहयोग करें. मेवाड़ की भूमि प्राचीनकाल से ही
विद्रोहियों की शरणस्थली रही है अत: राव गोपालसिंह जी ने मेवाड़ में गुप्त रूप से
शरण ले ली. वहां के जागीरदार और चारण खरवा राव साहब के प्रति श्रद्धा रखते थे.
अंग्रेजों ने काफी तलाश किया लेकिन राव गोपालसिंह जी का उन्हें पता नहीं चला.
मेवाड़ से निकलकर वे जयपुर और टोंक क्षेत्र के गांवों से होकर किशनगढ़ राज्य में चले
आये. रोहण्डी के ठाकुर राव साहब के मित्र थे. इस क्षेत्र के बहुत से ठिकानेदार भी
राव गोपालसिंह जी के समर्थक थे. सवाईसिंह और बख्तावरसिंह के गांव भी इसी क्षेत्र
में थे. वे यहाँ भूमिगत रहे.
सलेमाबाद में राव गोपालसिंह जी का घिरना- सलेमाबाद में निम्बार्क पीठ
का राधा-कृष्ण का भव्य मंदिर है. यह मंदिर गढ़ की तरह बना हुआ है. एक दिन राव
गोपालसिंह जी की सलेमाबाद जाकर भगवत दर्शन करने की इच्छा हुई. अपने ऊंट को जंगल
में बांधकर मोड़सिंह भवानीपुरा के साथ पैदल मंदिर में गये. मंदिर में प्रवेश द्वार
के बाहर बैठे लोगों में एक व्यक्ति पुलिस ख़ुफ़िया विभाग का था. वह राव गोपालसिंह जी
को पहचान गया. राव गोपालसिंह जी सांयकाल मन्दिर में पहुंचे थे. उन्होंने रात्रि
विश्राम मंदिर में ही किया. इसी दरमियान उस व्यक्ति ने प्रवेश द्वार के फाटक बन्द
कर दिये और शीघ्र ही किशनगढ़ खबर पहुंचा दी. राज्य का दीवान बहुत से घुड़सवारों के
साथ प्रात:काल से पूर्व ही सलेमाबाद पहुँच गया. उसने अजमेर कमिश्नर को सूचना भेज
दी थी. ए.जी.जी. राजपुताना के सैक्रेटरी और इंस्पेक्टर जनरल पुलिस मिस्टर केई
तत्काल पुलिस दल के साथ सलेमाबाद पहुँच गये. नसीराबाद छावनी के 50 सैनिक मि. केई
के साथ थे. मन्दिर की एक बुर्ज पर चढ़कर
राव साहब ने यह सब देखा. यह घटना 26 अगस्त 1915 ई. की है.
राव गोपालसिंह जी और उनके काका मोड़सिंह जी ने बुर्ज पर मोर्चा जमा
लिया. इससे पूर्व मन्दिर के महन्त श्री बालकृष्ण शरण देवाचार्य जी ने मन्दिर से
बाहर निकालने के लिए कहा. जो कुछ होगा मैं सह लूँगा. सरकार मेरा क्या बिगाड़ लेगी.
लेकिन उन्होंने मंदिर से निकलने के बजाय मुकाबले के लिए तैयारी की. मन्दिर के घेरे
का संचालक मि. केई रक्तपात के पक्ष में नहीं था. वह गोपालसिंह जी को बन्दी बनाना
चाहता था. उन्हें आत्म-समर्पण के लिए तैयार करने के प्रयत्न में लगा.
अजमेर-मेरवाड़ा के चीफ कमिश्नर और राजपुताना के ए.जी.जी मि. केई को यही राय दी गई
कि खरवा राव साहब को ससम्मान समर्पण के लिए तैयार किया जाये.
मि. केई मन्दिर के अन्दर वार्तालाप करने के लिए गया. उसने राव
गोपालसिंह जी को बताया कि उनके विरुद्ध काशी-षड्यंत्र केस में शामिल होने का
पुख्ता सबूत सरकार को नहीं मिला है. आप पर केवल "भारत रक्षा कानून" के
तहत टॉडगढ़ से फरार होने का अभियोग है, जिसके फलस्वरूप आपको अधिक हानि नहीं होगी.
मि. केई ने ये सब बातें लिखित में दे दी. राव गोपालसिंह जी ने शर्त रखी कि शस्त्र
राजपूतों के लिए पूजनीय धार्मिक चिन्ह माने जाते है अत: उनसे शस्त्र लेने की
चेष्टा न की जाये. इस शर्त को मानने में क़ानूनी बाधाएं पैदा हो सकती थी. अत: तय
किया गया कि सरकार राव गोपालसिंह जी से शस्त्र नहीं लेगी, किन्तु वे अपने शस्त्र
मन्दिर में ठाकुर जी की प्रतिमा के भेंट चढ़ा देंगे, जो मन्दिर की सम्पत्ति मानी
जायेगी. उन्हें वहां से हटाने का किसी को भी अधिकार नहीं होगा.
मन्दिर में हुए वार्तालाप में राव साहब ने इच्छा प्रकट की थी कि मि.
केई घेरा उठाकर अजमेर चले जायें तथा वे स्वयं दूसरे दिन सुबह अजमेर पहुँच जायेंगे.
मि. केई राव साहब के कथन पर विश्वास करके घेरा उठाकर अजमेर चला गया. 27 अगस्त 1915
को राव गोपालसिंह जी अजमेर पहुँच गये. भारत रक्षा कानून के तहत नजरबन्दी तोड़ने के
अपराध में उन पर मुकदमा चलाया गया. अजमेर के जिला कमिश्नर ए.टी.होम ने जिला
मजिस्ट्रेट की हैसियत से उन पर मुकदमें की सुनवाई की. उन्हें दो वर्ष के कारावास
की सादी सजा सुनाई गई. बनारस षड्यंत्र के अभियोग में उन्हें मुक्त कर दिया गया.
उन्हें अजमेर जेल में रखा गया. यह सजा पूरी होने के बाद उन्हें मुक्त कर देना
आवश्यक था. परन्तु भारत में पूर्णरूप से शान्ति स्थापित नहीं हुई थी. अत: सरकार ने
ऐसे प्रभावशाली और लोकप्रिय व्यक्ति को जनता के बीच में रहना खतरनाक समझा. उन्हें
भारत रक्षा कानून के तहत पुन: नजरबन्द कर दिया गया. पांच माह पश्चात् उन्हें
"तिलहर" नामक स्थान पर स्थान्तरित कर दिया गया. तिलहर उत्तरप्रदेश के
शाहजहांपुर जिले में है. तिलहर में दो वर्ष नजरबन्दी जीवन बिताने के पश्चात् मार्च
1920 में उन्हें मुक्त किया गया. जेल से मुक्त होने पर वे अजमेर आये जहाँ नगर की
जनता ने अपने प्रिय नेता का अभूतपूर्व स्वागत किया.
राव गोपालसिंह जी सशस्त्र क्रांति द्वारा स्वतंत्रता प्राप्ति में
विश्वास करते थे. वे लोकमान्य तिलक के अनुयायी थे. गाँधी जी के राजनीति में प्रवेश
करने पर कांग्रेस में दो दल बन गये. एक तिलक की उग्र विचारधारा मानने वाले गरम दल
और दूसरा गाँधी जी की अहिंसक विचारधारा को मानने वालों का नरम दल. गोपालसिंह जी
अहिंसात्मक असहयोग की लचीली और नरम नीति में आस्था नहीं रखते थे, अत: वे सन 1922
से ही कांग्रेस से दूर हटते चले गये. सन 1931 में राव गोपालसिंह जी ने अपने पुत्र
कुंवर गणपतसिंह को शासन भार सौंप दिया.
राव गोपालसिंह जी जीवन के अन्तिम दिनों में बीमार रहने लगे. डाक्टरी
जाँच में कैन्सर के लक्षण पाये गये. रोग से संघर्ष करते हुए वि.स. 1995 में चैत्र
शुक्ला कृष्णा सप्तमी, 12 मार्च 1939 ई. को राव गोपालसिंह जी का स्वर्गवास हुआ.
राजनीति से हटने के बाद गोपालसिंह जी अन्य सामाजिक गतिविधियों से
जुड़े. वे आर्य समाजी विचारधारा से प्रभावित थे. राजपूतों में शिक्षा प्रचार-प्रसार
के वे शुरू से ही पक्षपाती रहे. गरीब छात्रों को छात्रवृतियां प्रदान करके अजमेर
के आर्य समाज छात्रावास में भर्ती करा देते थे. राव गोपालसिंह जी की पं. मदनमोहन
मालवीय जी के प्रति असीम श्रद्धा थी और उनके द्वारा संचालित हिन्दू हित-साधक
कार्यों में वे सदैव उनके समर्थक व सहयोगी रहे. काशी विश्वविद्यालय की स्थापना के
समय राव गोपालसिंह जी ने अपने सामर्थ्य के अनुरूप आर्थिक अनुदान दिया था.