ठाकुर
डूंगरसिंह - जवाहरसिंह शेखावत
राजपुताना में अठारवीं सदी में
अव्यवस्था बनी हुई थी. औरंगजेब की मृत्यु (1707 ई.) के बाद मुग़ल साम्राज्य पतन की
ओर तेज गति से चला. मुग़ल सल्तनत कमजोर हो चुकी थी, वे नाममात्र के ही शासक रह गए
थे. ऐसे समय में मुग़ल सूबेदार स्वतंत्र होने लगे. मुग़ल दरबार में मराठा सर्वेसर्वा
बने हुए थे. मराठों ने पिंडारियों के साथ मिलकर राजपुताना में जबरदस्त तबाही मचा
रखी थी. यहाँ के राजाओं से बार-बार धन वसूल किया जाता था. धन न चुकाने पर वे आगजनी
और लूटपाट करते थे. यहाँ की रियासतों के अंदरूनी मामलों में वे अनावश्यक दखलन्दाजी
करते थे. यहाँ की प्रजा को बार-बार लूटा जाता था, गांव के गांव जला दिए जाते थे.
ऐसी स्थिति में यहाँ की प्रजा इन लूटेरों से तंग आ चुकी थी. मराठों और पिंडारियों
ने जनता पर अत्याचारों के मामलों में मुस्लिम आक्रान्ताओं को भी पीछे छोड़ दिया था,
राजपुताना की जनता इनके आतंक से त्रस्त थी वहीं राजा भी चैन की सांस नहीं ले सकते
थे. राजाओं से जबरन धन वसूली की जाती थी. मुग़ल सल्तनत, मराठों और पिंडारियों के इन
कुकृत्यों को रोक नहीं पा रही थी.
अंग्रेजों ने सन 1757 ई. में नबाब
सिराजुद्दौला को पराजित करके भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना की. धीरे-धीरे
उन्होंने अपनी स्थिति सुदृढ़ बना ली थी. मराठों व पिंडारियों की लूटपाट से त्रस्त
होकर राजपुताना के राजाओं को विवश होकर सन 1818 ई. में अंग्रेजों से सहायक सन्धि
करनी पड़ी. राजपुताना के राजाओं ने अंग्रेजों के साथ सहायक सन्धि कर ली थी, परन्तु
इस सहायक सन्धि के माध्यम से यहाँ अंग्रेजों का प्रवेश होने लगा जो राजाओं के
अधीनस्थ जागीरदारों व अन्य कई स्वतंत्र छोटे राज्य के राजाओं को पसंद नहीं आया और
वे अंग्रेजों के विरोधी बने रहे.
राजपुताना में शेखावाटी आँचल के
बहुत से ठिकानेदारों ने अपनी क्षमता के अनुसार अंग्रेजों का विरोध करना शुरू किया.
ऐसे ही वातावरण में बठोठ-पटोदा (सीकर) के ठाकुर डूंगरसिंह और जवाहरसिंह शेखावत
जैसे अंग्रेज विरोधी राजपूत क्रांतिकारियों का प्रादुर्भाव हुआ. स्थानीय भाषा में
इन्हें डूंगजी-जवाहरजी के नाम से जाना जाता है. राजस्थान में अंग्रेजी हकूमत के
विरुद्ध देश की स्वतंत्रता के लिए क्रांति के बीज बोने में डूंगजी-जवाहरजी अग्रणी
थे. इन्हीं की तरह शेखावाटी में कई ऐसे ठिकानेदार थे, जिन्हें अंग्रेजों का
हस्तक्षेप रास नहीं आ रहा था और उनके मन में अंग्रेजों के विरुद्ध आक्रोस फ़ैल रहा
था. उन्होंने अपने पड़ौसी अंग्रेज समर्थक राज्यों में लूट-पाट कर आतंक उत्पन्न कर
दिया था. इन ठिकानेदारों द्वारा अंग्रेज समर्थक क्षेत्रों में लूटमार करने पर
अंग्रेजों ने इन्हें लूटेरों की संज्ञा दे दी व स्थानीय शासकों को इन्हें काबू
करने को कहा. जब स्थानीय शासकों ने इन की कार्यवाहियां नहीं रोकी तब इन
क्रांतिकारियों का दमन करने के लिए अंग्रेजों ने मेजर फोरेस्टर के नेतृत्व में
शेखावाटी ब्रिगेड की स्थापना की.
डूंगजी (डूंगरसिंह शेखावत) शुरू में
शेखावाटी ब्रिगेड में रिसालदार के पद पर थे. अंग्रेजों द्वारा शेखावाटी क्षेत्र में "शेखावाटी
ब्रिगेड" की स्थापना का उदेश्य शेखावाटी में शांति स्थापना के नाम पर
शेखावाटी में पनप रहे ब्रिटिश सत्ता विरोधी विद्रोह को कुचल कर शेखावाटी के शासन
में हस्तक्षेप करना था|
शेखावाटी
ब्रिगेड ने क्रांतिकारियों के विरुद्ध अभियान चलाया. शेखावाटी में सन 1833-34 ई.
के लगभग शेखावाटी ब्रिगेड अंग्रेजी विरोधी स्थानीय शासकों के गढ़ तोड़ने लगी. कभी
क्रांतिकारियों की शेखावाटी ब्रिगेड से झड़पें भी हो जाती थी. क्रांतिकारी दलेलसिंह
शेखावत, गुढा ऐसी ही एक झड़प में काम आये. मेजर फोरेस्टर ने उनका मस्तक मंगवाकर
झुंझुनू में लटका दिया था ताकि क्रांतिकारी भयभीत हो जायें. लेकिन एक साहसी युवक
रात्रि में दलेलसिंह शेखावत का मस्तक उतार कर ले आया.
शेखावाटी के सामंत व गांवों के लोग
भी शेखावाटी ब्रिगेड के खिलाफ थे. गांवों के लोग अंग्रेजी सेना के घोड़ों के लिए
घास-दाना भी नहीं देते थे. अंग्रेज अधिकारीयों ने ठिकानेदारों को पत्र लिखा कि वे
अपनी प्रजा को आदेश दें कि अंग्रेजी सेना के घोड़ों के लिए घा-दाना बेचें. लेकिन
लोगों पर इसका कोई असर नहीं पड़ा. ऐसे समय में डूंगरसिंह शेखावत शेखावाटी ब्रिगेड
में रहकर अपने ही लोगों को कुचलने वालों का साथ कैसे दे सकते थे, सो वि.सं.1891 में
शेखावाटी की तत्कालीन परिस्थियों को भांपते हुए ठाकुर डूंगर सिंह जी ने अपने कुछ
साथियों सहित शेखावाटी ब्रिगेड से हथियार, उंट, घोड़े लेकर विद्रोह कर दिया और अंग्रेज शासित प्रदेशों में लूटपाट कर आतंक
फैला दिया, डूंगरसिंह जी शेखावत व जवाहरसिंह जी पटोदा जनता
में क्रांतिकारी भावनाएं फैला लगे. इन्होंने लोगों के हौसले बुलन्द किये, जिससे
लोग इनके साथ हो गये. लोटिया जाट, करणिया मीणा और किशन नाई जैसे साहसी व्यक्ति
इनके साथ हो गये और क्रांतिकारियों का एक दल बन गया. इनके साथ अन्य विद्रोहियों के मिल जाने से अंग्रेज सत्ता आतंकित
हो इन्हे पकड़ने के लिए उतेजित हो गयी| शेखावाटी
ब्रिगेड के साथ ही सीकर, जयपुर ,बीकानेर,जोधपुर की सेनाएं इनके खिलाफ सक्रिय हो गयी|
डूंगजी-जवाहरजी का क्रांतिदल काफी
बड़ा था. अत: उस दल के सदस्यों का खर्चा व उनके ऊंट घोड़ों के लिए चारा-दाना आदि के
लिए काफी धन की आवश्यकता थी. इसकी पूर्ति के लिए उन्होंने रामगढ- शेखावाटी के
धनाढ्य सेठों से कहा कि अंग्रेज जम गए तो सब गुलाम बन जायेंगे. अत: आप हमें धन दो
जिससे हम अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े और उन्हें इस देश से भगा दें. फिर बाद में हम
आपको आपका धन वापिस लौटा देंगे. इस प्रकार क्रांति के लिए डूंगजी-जवाहरजी ने सेठों
से धन उधार मांगा. लगभग सभी सेठ अंग्रेज भक्त थे और उन्होंने डूंगजी-जवाहरजी के
कार्य को अंग्रेजों के खिलाफ राजद्रोह समझ किसी भी प्रकार की सहायता नहीं दी. इन
सेठों का माल दूर-दूर तक आता जाता था. करणिया मीणा और लोटिया जाट गुप्तचर का कार्य
भी करते थे. उन्होंने पता लगाया कि रामगढ के सेठों का माल अजमेर की तरफ जा रहा है. सूचना मिलने पर डूंगजी-जवाहरजी व उनके साथियों
ने मिलकर उस माल को लूट लिया. अंग्रेजों के हिमायती सेठों ने इस लूट की शिकायत
अंग्रेज अधिकारीयों को दी. अंग्रेजों ने डूंगजी-जवाहरजी की लूट की यह घटना सुनी तो
वे उन्हें पकड़ने का कोई उपाय सोचने लगे. अंग्रेज उनसे चिढ़े हुए भी थे क्योंकि
इन्होने शेखावाटी क्षेत्र में अंग्रेजों के खिलाफ काफी उपद्रव फैला रखा था.
शेखावाटी ब्रिगेड को भी इन्होंने भारी हानि पहुंचाई थी. अंग्रेजों ने इन्हें पकड़ने
के लिए अभियान चलाया तो ये सतर्क हो गये. काफी दिनों तक ये अंग्रेजों की पकड़ से
बचते रहे. अपनी गिफ्तारी का कोई भी मौका नहीं दिया.
एक बार डूंगजी अपने ससुराल में गए
थे. किसी भेदिये ने उनके वहां होने की सूचना दे दी. अत: 24 फरवरी 1846 को धोखे से
उन्हें पकड़ लिया गया. उन्हें 4 मार्च 1846 को आगरा जेल में बंदी बनाकर रखा गया.
डूंगरसिंह व जवाहरसिंह आपस में भाई लगते थे. होली के दिन डूंगरसिंह की पत्नी ने
जवाहरसिंह शेखावत को ताना दिया कि भाई तो अंग्रेजों की कैद में पड़ा है और आप यहाँ
मौज-मस्ती कर रहे है. जवाहरसिंह को यह ताना दिल में लगा और वे सचेत हुए. वे
डूंगरसिंह को आगरा की जेल से मुक्त कराने के प्रयास में लगे. उन्होंने अपने
सहयोगियों का एक दल गठित किया. उस दल में शेखावाटी के लोगों के अलावा अंग्रेज
विरोधी क्रांतिकारी विचारों वाले बीकानेर राज्य के राजपूत भी शामिल हुए. उनमें
बीकानेर राज्य के ठाकुर खुमाणसिंह लोडसर, ठाकुर कानसिंह मलसीसर, ठाकुर जोरसिंह
मींगणा, कुंवर उजीणसिंह मींगणा, अनजी भोजोलाई, ज्ञानसिंह, रघुनाथसिंह भीमसर,
हरिसिंह बड़ा खारिया, हठीसिंह कान्धलोत, हनुवन्तसिंह महडू (चारण), छलुसिंह नरुका
भीमसर, बख्तसिंह मंगलूणा, मालमसिंह, करणसिंह रुपहेली आदि थे.
इन्होंने डूंगरसिंह को जेल से
छुड़ाने की योजना बनाई. योजना के अनुसार लोटिया जाट और करणिया मीणा छद्म रूप से
साधू बन गए. दोनों ने आगरा किले के पास जाकर धूणी जमाई. उन दोनों ने साधू के वेश
में तपस्या शुरू कर दी. दल के बाकी लोग आगरा से दूर ही रहे. साधू बने लोटिया जाट
और करणिया भील के पास अनेक व्यक्ति दर्शन के लिए आने लगे. धीरे-धीरे नगर में उनकी
प्रसिद्धि फ़ैल गयी और वे सिद्धहस्त साधू माने जाने लगे. साधू के वेश में वे आगरा
के किले में जहाँ डूंगरसिंह कैद थे पहुँच गए. उनको डूंगरसिंह ने बताया कि उन्हें
महीने भर में काला पानी भेज दिया जायेगा, सो जो करना है वह शीघ्र करो. यह सूचना
पाकर दोनों उन्हें शीघ्र ही कैद से छुड़ाने का आश्वासन देकर आ गए.
लोटिया जाट और करणिया मीणा द्वारा लाई
गई सूचना के बाद ठाकुर डूंगरसिंह जी को आगरा किले की अतिसुरक्षित जेल से छुड़ाने की
योजना बनी. इस कार्य हेतु स्वतंत्रता के दीवाने कई क्रांतिकारियों का एक दल बना.
लेकिन दल के इतने सारे हथियारबन्द यौद्धाओं का आगरा जाना संभव नहीं था, सो
जवाहरसिंह ने दूल्हे का भेष बनाया और क्रांतिकारियों का यह दल फर्जी बारात के रूप
में बदल गया. चार सौ पांच सौ वीरों ने
बारात का बहाना बना कर आगरा की ओर प्रस्थान किया और उपयुक्त अवसर की टोह में
दूल्हा के मामा के निधन का कारण बना कर पन्द्रह दिन तक आगरा में रुके रहे। तदन्तर
मुहर्रम के ताजियों के दिन यकायक निश्रयणी (सीढ़ी) लगा कर दुर्ग में कूद पड़े। किले
के रक्षकों, प्रहरियों और अवरोधकों को
मार काट कर डूंगरसिंह सहित समस्त बंदियों को मुक्त कर निकाल दिया। इस महान् साहसिक
कार्य से अंग्रेज सत्ता स्तब्ध रह गई। अंग्रेजों की राजनैतिक पैठ उठ गई। आजादी के
बलिदानी योद्धाओं के देश भर में गुण गीत गूजने लगे। आगरा के कथित युद्ध में ठाकुर
बख्तावरसिंह शेखावत श्यामगढ़, ठाकुर उजीणसिह मींगणा (बीकानेर)
हणू तदान मेहडू चारण ग्राम दांह (सुजानगढ़ तहसील) आदि लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त
हुए।
वि.स. 1903 की पोष सुदी 14 (ई.सन
1846 की 31 अगस्त) की रात को शेखावत डूंगरसिंह आगरे के किले का जेलखाना तोड़कर अन्य
कैदियों के साथ बाहर निकल गए. अब डूंगरसिंह-जवाहरसिंह शेखावत का यह दल अंग्रेजों
पर धावा मारने के लिए और अधिक सक्रीय हो गया. सबसे पहले रामगढ शेखावाटी के सेठों
को लूटा जिन्होंने उनकी शिकायत अंग्रेजों को की थी. फिर यह दल अजमेर की तरफ चला.
वहां से नसीराबाद छावनी पहुंचा. ई.सन 1847 जून 18 को इस दल ने नसीराबाद स्थित
अंग्रेज सैनिक छावनी पर आक्रमण किया और उसे लूट लिया. अंग्रेज सेना देखती ही रह
गई. छावनी के खजाने से लूटा गया माल गरीब व जरूरतमंद लोगों में बाँट दिया गया और
बाकी बचा धन देवी मंदिर में माँ भवानी के चरणों में अर्पित कर दिया. ब्रिटिश सरकार
ने उन्हें पकड़ने के लिए नाकाबंदी की, देशी रियासतों को उन्हें गिरफ्तार करने में
सहायता हेतु पत्र लिखे गए. 21 अगस्त सन 1847 को कर्नल सदरलैंड ने भारत सरकार को
पत्र लिखा कि बिना बाधा के अंग्रेजी छावनी लूट ली गई. सामन्तों ने पकड़ने की कोई
कोशिश नहीं की. जयपुर, जोधपुर और शेखावाटी के शासकों को अंग्रेज अधिकारीयों ने
पत्र लिखे कि वह अपनी सीमा में नाकेबन्दी करें और डूंगरसिंह व जवाहरसिंह शेखावत को
पकड़े. पता चला कि डूंगरसिंह-जवाहरसिंह नसीराबाद छावनी लूटकर परबतसर होते हुए बुडसू
के पास कचोलिया गांव की तरफ चले गए है, तब जोधपुर के राजा ने उन्हें पकड़ने के लिए
विजयसिंह सिंघवी, कुशलराज के नेतृत्व में एक सेना भेजी. इस सेना के साथ वायसराय के
एजेन्ट ने लेफ्टिनेंट ई.एच.मोकमेसन और हार्डकसल को साथ भेजा. पॉलिटिकल एजेन्ट
एल.एल. ग्रेटब्रेड भी इस सेना में सम्मिलित हो गया. इस प्रकार ब्रिटिश सत्ता में
हलचल मच गई. डूंगरसिंह और जवाहरसिंह को पकड़ने के लिए सेना के तीन दल बनाये गए.
डूंगरसिंह व जवाहरसिंह ने यह खबर
सुनी तो जवाहरसिंह बीकानेर की तरफ चल गए. बीकानेर के राजा रतनसिंह ने उन्हें अपने
राजमहल में शरण दे दी. अंग्रेज सरकार ने जवाहरसिंह को सौंपने का कहा तो राजा ने
इंकार कर दिया साथ ही उन्होंने अंग्रेज सरकार कोप वचन दिया कि जवाहरसिंह अब
बीकानेर छोड़कर कहीं नहीं जायेंगे. अंग्रेज सरकार ने जवाहरसिंह को बीकानेर में रहने
की स्वीकृति दे दी.
डूंगरसिंह अपने दल के साथ जोधपुर क्षेत्र
में चले गए. अंग्रेज सेना ने उन्हें घड़सीसर के पास
जा घेरा. ठाकुर डूंगरसिंह घड़सीसर के सैनिक घेरे से निकल कर जैसलमेर राज्य की ओर
चले गए। जैसलमेर के गिरदड़े ग्राम के पास मेड़ी में हुकमसिंह और मुकुन्दसिंह भी उनसे
जा मिले। राजकीय सेना ने फिर उन्हें जा घेरा। दिन भर की लड़ाई के बाद ठाकुर
प्रेमसिह लेड़ी तथा नींबी के ठाकुर आदि के प्रयत्न से मरण का संकल्प त्याग कर आत्म
समर्पण कर दिया। हुकमसिंह और चिमनसिह को जैसलमेर के भज्जु स्थान पर शस्त्र त्यागने
के लिए सहमत किया गया। जोधपुर के राजा तख्तसिंह ने डूंगरसिंह के गिरफ्तार होने पर
अंग्रेज अधिकारीयों से यह वचन लिया था कि गिरफ्तारी के बाद अंग्रेज उन्हें जोधपुर
राज्य को सौंप देंगे. तभी महाराजा तख़्तसिंह के कहने पर ठाकुर प्रेमसिह लेड़ी तथा नींबी
के ठाकुर आदि ने प्रयास कर डूंगरसिंह को मरण का संकल्प त्याग कर आत्म समर्पण के
लिए मनाया.
लेकिन डूंगरसिंह
के आत्म-समर्पण के बाद अंग्रेजों ने डूंगरसिंह शेखावत को जोधपुर के राजा को नहीं
सौंपा और उन पर मुकदमा चलाया जाने लगा. आखिर राजपुताना में बखेड़ा खड़ा होने की
आशंका से डूंगजी को जोधपुर राजा को सौंप दिया गया जहाँ वे जोधपुर किले में आजन्म
ससम्मान नजर कैद रहे. जवाहरसिंह बीकानेर में नजरबन्द रहे और छूटने के बाद अपने
गांव पटोदा आ गए. पोष सुदी 9 वि.स.1938 को उनका स्वर्गवास हुआ.
इन दोनों के
कार्यकलापों से राजपुताना के लोग बड़े प्रभावित हुए. उनकी प्रशस्ति में जगह जगह
गाया जाने लगे
जै कोई जणती
रानियाँ, डूंग जिस्यो दिवाण
तो इण हिंदुस्तान
में, पळतो नहीं फिरंगाण