ठाकुर अब्बू सिंह
1857
की क्रांति अर्थात आजादी की पहली लड़ाई में न जाने
कितने स्वाभिमानी व देश भक्तों व आजादी के परवानों ने अपने खून से इस भारत भूमि के
चप्पे चप्पे को सींचा और इस सर-जमीं पर जगह जगह थर्मोपल्ली बनाई. लेकिन अफसोस !
बहुत ही कम गिने-चुने शहीदों को ही पहचान मिल सकी. हम, हमारे इतिहासकार और हमारे रहनुमाओं ने इन
राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए यज्ञ की बलिवेदी में अपने प्राणों की आहुति देने
वाले शहीदों की भी पहचान उजागर करने में भेदभाव बरता. न जाने कितने स्वाभिमानी,
देश प्रेमियों ने सहा होगा अंग्रेजों की
दमनकारी नीतियों के तहत यातनाओं को. न जाने कितने ही आजादी के परवानों ने हँसते-
हँसते पिया होगा मौत का जाम और सो रहे है आज तक गुमनामी का कफन ओढ़कर.
इसकी एक मिसाल है हरियाणा के भोहडा कलां (गुडगाँव) गाँव के जमींदार और
महान क्रांतिकारी ठाकुर अब्बू सिंह जिनको अंग्रेजी हुकूमत ने बगावत के
जुर्म में तत्कालीन मजिस्ट्रेट लार्ड क्रिनिंग की अदालत के आदेस पर 16 दिसम्बर 1857 को विलियम फोर्ड
मजिस्ट्रेट के सामने सोहना के पहाड़ पर सरेआम फँसी पर लटका दिया था. ताकि उनकी
फांसी देख अन्य कोई भारतवासी अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की सोच भी नहीं सके.
अब्बुसिंह ने भारत भूमि को विदेशियों से आजाद कराने की मुहीम में फांसी को गले लाग
लिया, लेकिन अंग्रेजों के सामने क्षात्र धर्म का पालन करते हुए एक सच्चे क्षत्रिय
की भाँती गर्दन नहीं झुकाई और देश के स्वाभिमान व स्वतंत्रता के लिए फांसी के फंदे
पर हँसते हँसते झूलते हुए शहादत दे दी. यही नहीं अंग्रेजों ने फांसी के बाद ठाकुर
अब्बू सिंह का पार्थिव शरीर भी परिजनों को नहीं सौंपा और अफ़सोस इस काम में उनके
साथ बगावत के समय के कुछ साथियों ने थोड़े से लालच के लिए गद्दारी की. अंग्रेजी
हुकुमत ने ठाकुर अब्बू सिंह की 62 किले जमीन जो बिनौला गाँव में थी, जब्त कर फांसी दिये जाने के आठ
वर्ष बाद नीलाम कर दी.
शहीद अब्बुसिंह का जन्म भोहडा
कलां के ठाकुर जीया राम के घर हुआ था.