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निशान सिंह : अंग्रेजों का काल

निशान सिंह : अंग्रेजों का काल

चारों तरफ अंग्रेज सैनिक खड़े थे। सूरज अपने चरम पर था। एक विशाल हवेली का प्रांगण भीड़ से भरा हुआ था। भीड़ में डरे सहमे लोग भवन के मुख्य द्वार की तरफ टकटकी लगाये देख रहे थे। तभी कुछ अंग्रेज सैनिक एक पुरुष को जकड़े हुये भवन में से निकलते हैं। वीर पुरुष बिना किसी भय एवं संताप के इठलाता हुआ चल रहा था। भीड़ को पता था कि जिस वीर को लाया जा रहा है उसे मृत्यु दंड दिया जाना पक्का है फिर भी भीड़ ने उस वीर के श्रीमुख पर चिंता या मृत्यु डर के भाव कहीं चिंहित ही नहीं हो रहे थे. वह बांका वीर तो उस हवेली में उसी शान के साथ चला आ रहा था जब कभी इसी हवेली में अपने राज्याभिषेक के समय गर्वीले अंदाज में पेश हुआ था । कुछ ही देर में अंग्रेज सैनिक अपने उच्चाधिकारियों के आदेश का पालन करते हुए उसे प्रांगण के बीचों बीच रखी तोप से बाँध देते हैं। सामने खड़ा एक अग्रेज अधिकारी जो कभी इस वीर का नाम सुनते ही कांप जाया करता था पर आज इस वीर के बेड़ियों में जकड़े होने की वजह से रोबीले अंदाज में आदेश देता है ापसस ीपउ। तोप के पीछे खड़ा अंग्रेजों का भाड़े का भारतीय सिपाही तोप में आग लगा देता है और उस वीर पुरुष के परखच्चे उड़ जाते हैं। इस तरह एक राष्ट्रभक्त क्षत्रिय योद्धा भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अपने जीवन की आहुति देकर सदा सदा के लिए भारत माता के आँचल में भारत माता के स्वाभिमान, स्वतंत्रता व गौरव के लिए संघर्ष करता हुआ अपने प्राणों का उत्सर्ग करता हुआ हवेली के बड़े प्रांगण में छितरा गया, जहाँ कभी उसने बचपन में अठखेलियाँ करते हुए खेल खेले थे, कभी उसी हवेली में जनहित के फरमान जारी किये थे, कभी उसी हवेली में अंग्रेजों को देश से बाहर भगाकर भारत माता को स्वतंत्र कराने के सपने देखते हुए योजनाएं बनाई थी और उनका क्रियान्वयन करने के लिए अपने सहयोगियों की बैठकें आयोजित की थी, जिस हवेली को उसने भारत माता की लाज बचाने हेतु कर्मस्थली बनाया था आज तोप के गोले से चिथड़े चिथड़े बने उसके शरीर के टुकड़े छितरा कर ऐसे पड़े थे मानों वे बिना दाह संस्कार के ही अपनी मातृभूमि की मिटटी में मिलने को आतुर थे. 

    स्वतंत्रता की बलिवेदी पर अपने प्राणों की आहुति देने वाले इस बांके क्षत्रिय वीर योद्धा निशान सिंह का जन्म बिहार के आरा जिले के शाहबाद में रघुवर दयाल सिंह के घर हुआ था। ये सासाराम और चौनपुर परगनों के 62 गाँवों के जागीरदार थे। 1857 में जब भारतीय सेना ने दानापुर में विद्रोह किया तब वीर कुंवर सिंह और निशान सिंह ने विद्रोही सेना का पूर्ण सहयोग किया एवं खुलकर साथ दिया फलस्वरूप विद्रोही सेना ने अंग्रेज सेना को हरा दिया एवं आरा के सरकारी प्रतिष्ठानों को लूट लिया। ये अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का आगाज  व भारत की स्वतंत्रता का शंखनाद भी था। निशान सिंह को सैन्य संचालन में महारत हासिल थी और वे महान क्रांतिकारी वीर कुंवर सिंह के दाहिने हाथ थे. अंग्रेजों ने बनारस और गाजीपुर से और सेना को आरा भेजा लेकिन तब तक कुंवर सिंह और निशान सिंह आरा से बाँदा जा चुके थे।  यहाँ से ये लोग कानपूर चले गए। तदुपरांत अवध के नवाब से मिले जिसने इनका भव्य स्वागत किया तथा इन्हंे आजमगढ़ का प्रभारी नियुक्त किया गया। क्षेत्र का प्रभारी होने के कारण इन्हें आजमगढ़ आना पड़ा जहाँ अंग्रेज सेना से इनकी जबरदस्त मुठभेड़ हुई।  लेकिन अंग्रेजों की भाड़े की सेना इस वीर के आगे नहीं टिक सकी और इस लड़ाई में अंग्रेजों की करारी शिकस्त हुई। 

    अंग्रेज जान बचाकर भाग खड़े हुये और आजमगढ़ के किले में जा छुपे जहाँ निशान सिंह की सेना ने उनकी घेराबंदी कर ली जो कई दिन चली। बाद में गोरी सेना और  विद्रोहियों की खुले मैदान में टक्कर हुई जिसमें जमकर रक्तपात हुआ। इसके बाद कुंवर सिंह और निशान सिंह की संयुक्त सेना ने अंग्रेजों पर हमला कर दिया और उन्हें बुरी तरह परास्त किया और बड़ी मात्रा में हाथी ऊंट  बैलगाड़ियाँ एवं अन्न के भंडार इनके हाथ लगे।  इसके बाद अन्य कई स्थानों पर इन्होंने अंग्रेज सेना के छक्के छुड़ाये। एक समय बाबू कुंवर सिंह एवं निशान सिंह अंग्रेजों के लिये खौफ का प्रयाय बन चुके थे। इन दोनों के नाम से अंग्रेज सैनिक व अधिकारी थर थर कांपते थे।

   26 अप्रैल 1858 को कुंवर सिंह के निधन के बाद अंतिम समय में बीमार निशान सिंह खुद को कमजोर महसूस करने लगे। अंग्रेजों द्वारा गांव की संपत्ति जब्त किये जाने के बाद वे डुमरखार के समीप जंगल की एक गुफा में रहने लगे। जिसे आज निशान सिंह मान के नाम से जाना जाता है। आने-जाने वाले सभी लोगों से वे अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई जारी रखने का आह्वान करते थे। अंग्रेज तो ऐसे ही किसी मौके की तलाश में थे। निशान सिंह को गिरफ्तार करने के लिये एक बड़ी सशस्त्र सैनिकों की टुकड़ी सासाराम भेजी गयी जिसने  निशान सिंह को गिरफ्तार कर लिया। इन्हंे कर्नल स्कॉट्स के सुपुर्द किया गया। 

    आनन फानन में फौजी अदालत बैठाई गयी जिसने निशान सिंह को मृत्युदंड दे दिया।  ना कोई मुकद्दमा, ना कोई बहस -जिरह, ना कोई अपील, ना कोई दलील। 5 जून 1858 को निशान सिंह को उनके ही निवास स्थान पर तोप के मुँह से बांधकर उड़ा दिया। लेकिन कहते हैं मातृभूमि पर प्राण न्योछावर करने वाले मरते नहीं अमर हो जाते हैं। ऐसे ही निशान सिंह पूरे बिहार में आज भी अमर हैं। निशान सिंह की स्मृति में गांव में एक विद्यालय व एक पुस्तकालय संचालित हो रहा है।

निशान सिंह का बलिदान जागीरदारों -जमींदारो को अंग्रेजों का पिट्ठू बताने वाले इतिहासकारों के मुँह पर जोरदार तमाचा है।  निशान सिंह 62 गाँव के जागीरदार थे जिनकी 1857 में वार्षिक आय लगभग 62000 रूपये थी (आज के हिसाब से सलाना करोड़ों रूपये) सभी सुख सुविधायें उपलब्ध थी लेकिन इस वीर ने विदेशियों के आगे नतमस्तक हो सुखी होने से मातृभूमि की रक्षा करते हुये मृत्यु को  वरण करना श्रेयष्कर समझा। 

  


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