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1857 क्रांति की पृष्ठभूमि

सन 1857 की आजादी की लड़ाई भारतीय इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना है. सर्वप्रथम अंग्रेजों ने व्यापार के लिए ईस्ट इंडिया कम्पनी बनाई और उसके माध्यम से भारत में व्यापार शुरू किया. भारतीय राजाओं व नबाबों से भारत में व्यापार करने की अनुमति प्राप्त की. व्यापार बढ़ जाने के बाद कलकत्ता, मद्रास, बम्बई, सूरत में सामान रखने के लिए कोठियां बनाने की इजाजत ली व सुरक्षा की दृष्टि से सैनिक रखना प्रारम्भ किया. सैनिक व्यवस्था सुदृढ़ कर भारतीय राजाओं और नबाबों के राजनैतिक कार्यों में हस्तक्षेप करना शुरू किया. "फूट डालो और राज करो" की नीति अपना कर राजाओं व नबाबों को आपस में लड़ाया. एक पक्ष की सेना देकर मदद की तथा दूसरे पक्ष की धन देकर सहायता की. सन 1757 का प्लासी का युद्ध भी फूट डालो और राज करो की नीति से लड़कर अंग्रेजों ने जीता था और यहीं से अंग्रेजी राज्य की भारत में स्थापना हुई.



सन 1764 ई. में बक्सर युद्ध में अंग्रेजों ने मुग़ल सम्राट, लखनऊ के नबाब शुजाऊद्दौला तथा बंगाल के नबाब मीरकासिम की सम्मिलित सेनाओं को पराजित कर उत्तर भारत में बंगाल से लेकर पंजाब रक् राज्य प्राप्त किया. राज्य प्राप्त करने के बाद अंग्रेजों ने अपनी व्यवस्था कायम की और भारत में लूट का साम्राज्य कायम कर मनमानी लूट की.

ब्रिटेन का बना हुआ माल भारत की मण्डियों व बाजारों में बिकने लगा, इससे भारतीय घरेलू उद्योग-धन्धे चौपट हो गए. आम लोगों के सामने आर्थिक संकट पैदा हो गया. देश की सारी अर्थव्यवस्था अंग्रेजों के अधीन हो गई. पूरे भारत में अंग्रेजी राज्य कायम करने के लिए लार्ड वेलेजली ने भारत के राजाओं व नबाबों को सहायक संधि स्वीकार करने के लिए मजबूर किया. इस संधि के अनुसार सभी राजाओं व नबाबों को अपने यहाँ एक अंग्रेजी सेना व रेजिडेन्ट रखना पड़ेगा और उसका खर्चा राज्यों को उठाना पड़ेगा. इसके पश्चात् लार्ड डलहौजी द्वारा सन 1854 ई. में राज्य हड़प नीति लागू की व अनेक राज्य अंग्रेजी राज्य में मिला लिए गये. उनमें प्रमुख राज्य पंजाब, झाँसी, नागपुर, सितारा, तंजौर, सिक्किम, सम्बलपुर आदि थे. निसन्तान होने पर राजाओं को गोद लेने का अधिकार था उसे डलहौजी ने समाप्त कर दिया और ऐसे सभी राजाओं के राज्य अंग्रेजी राज्य में मिला लिए गए जिनके संतान नहीं थी. इस कारण समस्त देशी राजाओं, जमींदारों आदि ने अंग्रेजों के खिलाफ होकर देश को आजाद कराने के लिए तैयारी करने लगे थे.

अंग्रेजों द्वारा ईसाई धर्म का प्रचार प्रसार किया गया. हिन्दूधर्म और इस्लाम धर्म को मानने वालों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाई गई, जिसे आम जनता सहन न कर सकी. इसलिए जनता भी अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए हो गई. अंग्रेजों की भेदभावपूर्ण नीति के कारण देशी सैनिक नाराज हो गए. सेना में उच्च पद अंग्रेजों के लिए रखे गए. देशी सैनिकों को योग्यतानुसार वीरता पदक देना भी बंद कर दिया गया. इस कारण उनमें असंतोष भड़क उठा. नए कारतूस सैनिकों को दिए गए थे जिन पर गाय और सूअर की चर्बी युक्त ढक्कन थे जिन्हें दांत से काटकर हटाना पड़ता था. इन कारतूसों के प्रयोग को अपना धर्म नष्ट होना मानकर उपयोग करने से सैनिकों ने इंकार कर दिया. कारतूसों वाली घटना ने क्रांति को समय से पहले ही भड़का दिया.

क्रांति की योजना- उत्तरप्रदेश के कानपुर के पास गंगा नदी के किनारे बिठूरघाट पर क्रांति के अग्रणी नेताओं की एक गुप्त बैठक हुई, जिसमें नानासाहब, जगदीशपुर के राजा कुंवरसिंह परमार, मैनपुरी के राजा, चकरनगर के राजा निरंजनसिंह चौहान तथा क्षेत्रीय जमींदार और चम्बलघाटी के ठाकुर बाहुल्य क्षेत्र के प्रमुख-प्रमुख गांवों के क्षत्रिय यौद्धा शामिल हुये. जिसमें निर्णय लिया गया कि सारे भारत में एक साथ एक ही दिन क्रांति का शंखनाद किया जावे. जिसके लिए 31 मई सन 1857 ई. रविवार का दिन निश्चित किया गया. क्रांति के संचालन के लिए एक विशाल गोपनीय संगठन तैयार किया गया.

इस राष्ट्रीय जनक्रान्ति के प्रचार-प्रसार के लिए चिन्ह रोटी और कमल का फूल चिन्हित किया गया. रोटी जन सामान्य के लिए और कमल का फूल देशी पलटन के सैनिकों में प्रचार के लिए तय किया गया. रोटी एक गांव का चौकीदार दूसरे गांव में रोटी लेकर जाता और उसको बाँट देता. इसी प्रकार दूसरे गांव का चौकीदार नई रोटियां बनवाकर अन्य गांवों में जाता और बाँट देता. इस तरह से गांव-गांव, शहर-शहर प्रचार किया गया. जन सामान्य को क्रान्ति के लिए प्रेरित किया गया. कमल का फूल देशी पलटन का सिपाही पूरी पलटन में घुमाता, जिस पलटन पलटन में कमल का फूल घुमाया जा चुका होता तो उस पलटन का सिपाही दूसरी पलटन में जाकर कमल का फूल घुमाता. जिसका अर्थ था सारी पलटन क्रांति में शामिल होने के लिए तैयार है. इस तरह गोपनीय ढंग से पूरे देश में पंजाब से लेकर बंगाल तक उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक क्रांति में शामिल होने की योजना तैयार की गई.

क्रान्ति के केंद्र- इस राष्ट्रीय क्रांति को सफल बनाने के लिए सबसे पहले उपयुक्त स्थान दिल्ली का लालकिला चुना गया. दिल्ली के बादशाह बहादुरशाह जफ़र ने क्रांतिकारियों की मदद करने का वचन दिया. अन्य प्रमुख केन्द्र चम्बलघाटी, बिठूर, कानपुर, लखनऊ, कलकत्ता, सतारा आदि बनाये गए. राष्ट्रीय गान तैयार किया गया, जिसे गाकर स्थान-स्थान पर राष्ट्रीय भावना को जागृत किया गया. क्रान्ति के हजारों प्रचारकों ने घूम-घूमकर जन-सामान्य को देश की आजादी के लिए मर मिटने के लिए तैयार किया. फ़ैजाबाद के जमींदार अहमदशाह अच्छे वक्ता थे, उनके भाषण सुनने के लिए हजारों लोग इकट्ठे होते थे. सभा समाप्त होने पर लोग प्राणों की बाजी लगाकर देश को आजाद कराने के लिए प्रण लेकर घर जाते थे.

31 मई 1857 रविवार के दिन समूचे भारत में एक साथ क्रान्ति करने के लिए नियत किया गया था, लेकिन इस तिथि की सूचना केवल मुख्य-मुख्य नेताओं को और प्रत्येक देशी पलटन के तीन-तीन अफसरों को ही दी गई थी.

बैरकपुर की दमदम छावनी की घटना- फरवरी सन 1857 में दमदम छावनी की 19 नंबर की पलटन को नये कारतूस उपयोग करने के लिए दिए गये. भारतीय सिपाहियों ने नए कारतूस प्रयोग करने से मना कर दिया. तो अंग्रेज अफसरों ने बर्मा से अंग्रेजी सैनिकों की पलटन मंगवाकर 29 मार्च 1857 को 19 नंबर पलटन को परेड के मैदान में बुलाया और हथियार रखने का आदेश दिया गया. सभी सिपाहियों ने हथियार रखकर आदेश का पालन किया. परन्तु एक सिपाही मंगल पाण्डे क्रोध पर काबू न रख सका और परेड मैदान में खड़ी देशी पलटन की कतार से आगे बढ़कर अंग्रेज अफसर ह्यूसन को गोली मार दी, तब दूसरा अफसर लेफ्टिनेंट हेनरी बाग ने आगे बढ़कर गिरफ्तारी का आदेश दिया, परन्तु किसी भी देशी सिपाही ने उसे गिरफ्तार करने का साहस नहीं दिखाया. तब लेफ्टिनेंट हेनरी बाग ने अपनी पिस्तौल से गोली मारकर मंगल पाण्डे को घायल कर दिया और गिफ्तार कर जेल में डाल दिया. अप्रैल 8 सन 1857 ई. को न्याय का नाटक करके सिपाही मंगल पाण्डे को फांसी दे दी गई.

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का श्री गणेश

 मेरठ में क्रान्ति का श्री गणेश : 9 मई 1857 को मेरठ के हिन्दुस्तानी सिपाहियों को नये कारतूस उपयोग के लिए दिए गए, परन्तु देशी पलटन के सिपाहियों ने इन नए चर्बीयुक्त कारतूसों को प्रयोग के लिए साफ़ इंकार कर दिया. अंग्रेज अफसरों ने गोरे सैनिकों की पलटन बुलाकर सभी हिन्दुस्तानी सिपाहियों के हथियार रखवा लिए और उनका कोर्ट मार्शल कर जेल भेज दिया. 19 नंबर पलटन के 90 सिपाहियों में से 85 सिपाहियों को दस-दस वर्ष की सजा देकर बर्खास्त कर जेल में डाल दिया गया. मेरठ में उसी दिन शाम को कुछ हिन्दुस्तानी सिपाही बाजार में सामान खरीदने गये थे. नगर की स्त्रियों ने उनसे पूछा कि तूम लोग किस जाति के सिपाही हो, तो उन सिपाहियों ने जबाब दिया कि हम सब क्षत्रिय राजपूत है. यह सुनकर उन स्त्रियों ने उन्हें बहुत धिक्कारा और कहा कि -"तूम लोग क्षत्रिय होकर यहाँ मस्ती कर रहो हो और तुम्हारे सैनिक भाई जेल में है. तुम्हारे ऐसे जीने को धिक्कार है, लो यह चूड़ियाँ पहिन लो और हथियार हमें दे दो." उन स्त्रियों की बातें सिपाहियों के दिल में चोट कर गई और वे सहन न कर सके. उन्होंने 31 मई का इंतजार नहीं किया. उनका खून खौल उठा. उसी रात को बैरकों में गुप्त मीटिंग हुई और स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने वाले गांवों को सूचना भेज दी गई कि 10 मई रविवार को सभी लोग हथियार लेकर मेरठ में इकट्ठे हों. सूचना पाकर हजारों हथियारबंद क्रांतिकारी मेरठ में एकत्र हो गए. मेरठ के सभी हिन्दुस्तानी सिपाही, पैदल सेना व तोपखाने के सैनिक अपने क्रांतिकारियों के दल में शामिल हो गये. यह इलाका क्षत्रिय बाहुल्य इलाका है इसलिए क्रांतिकारियों के दल में भी क्षत्रिय अधिक थे. क्षत्रिय अपने वचन के पक्के होते है इसलिए क्रांतिकारियों ने क्षत्रिय नेताओं पर विश्वास कर आदेश मिलते ही अंग्रेज छावनी पर हमला कर दिया. इस प्रकार 10 मई 1857 ई. को मेरठ में क्रांति का श्रीगणेश हो गया.

मारो फिरंगियों को, हर-हर महादेव का जयघोष करते हुए हमला बोल दिया गया. सबसे पहले जेल पर धावा करके जेल से सभी सिपाहियों की बेड़ियाँ काटकर उन्हें आजाद करके क्रांतिदल में शामिल कर लिया गया. मेरठ में अंग्रेजों के बंगले, होटल, दफ्तर आदि जला दिए गये. दस मई को ही मेरठ में क्रांतिकारियों ने अपना झण्डा फहरा दिया. दिल्ली में सूचना भेज दी गई कि हम सब क्रांतिकारी सुबह तक दिल्ली आ जायेंगे, आप लोग तैयार रहें. मई 11 को प्रात: 8 बजे दो हजार हथियारबंद हिन्दुस्तानी सिपाही घुड़सवार सैनिक दिल्ली पहुँच गये.

क्रांतिकारियों द्वारा दिल्ली के लाल किले पर अधिकार-

मेरठ से दो हजार हथियारबंद घुड़सवार सेना के आते ही दिल्ली के क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया. अंग्रेज अफसर कर्नल रिपले ने 54 नंबर देशी पलटन को क्रांतिकारियों पर हमला करने का आदेश दिया. लेकिन यह पलटन भी क्रांतिकारियों की सेना में मिल गई. कर्नल रिपले को मार डाला गया. क्रांतिकारियों ने 11 मई को लालकिले पर अपना झण्डा फहरा कर बहादुरशाह जफ़र को सम्राट घोषित कर दिया. दिल्ली के लालकिले में अंग्रेजों का बहुत बड़ा मेगजीन (शस्त्रागार) का भण्डार था. जिसमें बन्दूकें, गोला-बारूद था, जिस पर क्रांतिकारियों ने कब्ज़ा कर लिया. मई 11 से मई 16 तक दिल्ली में अंग्रेजों और क्रांतिकारियों की सेना में संघर्ष होता रहा और अंग्रेजों की सेना दिल्ली छोड़कर भाग गई. मई 16 को दिल्ली अंग्रेजों के हाथ से निकल गई.

अलीगढ की स्वाधीनता-

दिल्ली की क्रांति का समाचार जैसे ही अलीगढ पहुंचा तथा क्रांतिकारियों का एक दल अलीगढ पहुंचा, उसने देशी सेनाओं के सिपाहियों से मिलकर अंग्रेज भक्त सेना पर हमला कर दिया. अंग्रेजों की छावनी पर हमला कर उनके बंगले जला दिए गए और उन्हें कहा गया कि सारे अंग्रेज बाल-बच्चों सहित अलीगढ छोड़कर चले जायें. अलीगढ क्षेत्र में समस्त ठाकुर बाहुल्य गांवों के क्रांतिकारी अपने अपने दल के नेता के नेतृत्व में आकर सम्मिलित हो गए. इस प्रकार से 20 मई 1857 को अलीगढ को स्वतंत्र करा कर स्वाधीनता का झण्डा फहरा दिया गया.

मैनपुरी की क्रांति -

22 मई को अलीगढ का समाचार मैनपुरी पहुंचा तो मैनपुरी की देशी सेना के सिपाहियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष छेड़ दिया. मैनपुरी क्षत्रिय बाहुल्य इलाका है और ग्रामीण क्षेत्र के क्रांतिकारी बड़ी संख्या में मैनपुरी में आ गए. अंग्रेज मैनपुरी छोड़कर भाग गये. मई 23 सन 1857 को मैनपुरी पर क्रांतिकारियों का कब्जा हो गया.

इटावा की स्वाधीनता-

मेरठ, अलीगढ, मैनपुरी की क्रांति के समाचार इटावा पहुंचे तो इटावा क्षेत्र के सभी क्षत्रिय राजा व जमींदार अपने नेता निरंजनसिंह चौहान के नेतृत्व में इकट्ठे हो गए. मई 23 को क्रांतिकारियों ने अंग्रेज मजिस्ट्रेट डेनियल को मारकर खजाने पर कब्ज़ा कर लिया. कलेक्टर मि. ह्यूम ने पुलिस व जनता से मदद मांगी, परन्तु जनता व पुलिस क्रांतिकारियों के साथ हो गई. अंग्रेज इटावा छोड़कर गुप्त मार्ग से आगरा भाग गये. इटावा शहर में 23 मई को स्वाधीनता की घोषणा कर दी गई. इस प्रकार 9 नंबर पलटन के सभी सिपाही अलीगढ, बुलंदशहर, मैनपुरी, इटावा और आस-पास के इलाके स्वाधीन कराके, कम्पनी के खजाने पर कब्ज़ा करके मय हथियार और रसद के साथ दिल्ली की ओर रवाना हो गये. नगर का शासन प्रबन्ध स्थानीय नेता के सुपुर्द कर दिया गया. स्थानीय नेता राजा निरंजनसिंह चौहान के नेतृत्व में एक क्रांतिकारी सेना का गठन किया गया. इस क्रांतिकारी सेना में गंगासिंह (कुदौल), प्रीतमसिंह, राजा रूपसिंह सेंगर भरेह, बंकटसिंह कुशवाह ककहरा भिण्ड, रणधीरसिंह भदौरिया व सुजानसिंह भदौरिया कंचोगरा भिण्ड इन क्रांतिकारी नेताओं ने इटावा नगर और आस-पास के इलाके का शासन प्रबन्ध अपने ढंग से मजबूती के साथ किया. क्रांतिकारियों का इटावा पर शासन जब तक रहा, जब तक आगरा से अंग्रेजी सेना व उनका तोपखाना बड़ी तैयारी के साथ इटावा पर आक्रमण करके भयंकर युद्ध में क्रांतिकारी सेनाओं को परास्त नहीं कर सकी.

यह युद्ध लगभग डेढ़ वर्ष तक इलाके में रुक-रुक कर चलता रहा. बड़ी कठिनाई से अंग्रेजों ने इटावा पर पुन: अधिकार प्राप्त किया.  

सुल्तानपुर की स्वाधीनता- सुल्तानपुर के राजा हनुमन्तसिंह और जमींदार रुस्तमशाह ने मिलकर सुल्तानपुर को आजाद करा लिया. राजा हनुमन्तसिंह बड़े उदार विचार के थे. उन्होंने अंग्रेजों को मारने से बचा लिया.इतिहास से पता चलता है कि इस समय अवध के अन्दर हिन्दू और मुसलमान राजा हनुमन्तसिंह के साथ स्वतंत्रता संग्राम में मौजूद थे. मई 31 से जून 10 तक लखनऊ शहर को छोड़कर सारा अवध राज्य अंग्रेजों के चुंगल से छुड़ाकर स्वतंत्र घोषित कर दिया गया था.

आगरे की स्वाधीनता- 5 जुलाई सन 1857 को क्रांतिकारी सेना ने आगरे पर जोरदार हमला किया. उसी समय भरतपुर की देशी पलटन भी क्रांतिकारियों के साथ आकर मिल गई. जुलाई 6 को आगरे में क्रांतिकारियों ने स्वाधीनता का झण्डा फहरा दिया.

ग्वालियर की स्वाधीनता- रानी लक्ष्मीबाई के नेतृत्व में ग्वालियर पर आक्रमण करने की योजना बनाई गई. तांत्या टोपे गुप्त रूप से ग्वालियर पहुंचकर मुरार नामक छावनी के पास अपनी सेना सहित पड़ाव डाला. वहीं से उसने सिन्धिया को पत्र लिखकर क्रांतिकारियों की सहायता की अपील की, किन्तु सिन्धिया ने उसे स्वीकार नहीं किया. तांत्या टोपे ने सिन्धिया की सेना के अफसरों को कूटनीति से अपनी ओर मिला लिया. सिन्धिया की सेना में अधिकतर अफसर भिण्ड, मुरैना, इटावा, आगरा के क्षत्रिय राजपूत थे. वे मराठों व अंग्रेजों के भेदभावपूर्ण व्यवहार से अप्रसन्न थे.

रानी लक्ष्मीबाई, तांत्या टोपे, पांडुरंग राव (राव साहब) तथा भिण्ड, इटावा, आगरा, जालौन के क्षत्रिय राजपूत राजा, जमींदार तथा क्रांतिकारी नेताओं की एक संगठित सेना तैयार होकर ग्वालियर पहुंची. इन सैनिक टुकड़ियों के अलग अलग नायक थे. राजा निरंजनसिंह चौहान चकरनगर इटावा, राजा रूपसिंह सेंगर भरेह राज्य जालौन, ठाकुर दौलतसिंह, मुद्दतसिंह, बलदेवसिंह, रणधीरसिंह भदौरिया, सुजानसिंह भदौरिया कंचोगरा भिण्ड, बंकटसिंह ककहरा भिण्ड, गंगासिंह चौहान कुदोल, प्रीतमसिंह बैस, राजा फतहसिंह रुरुकला, रामचंद्रसिंह कछवाह राजा गोपालपुरा आदि अपनी अपनी सैन्य टुकड़ियों के साथ-साथ मुरार पड़ाव पर रानी के नेतृत्व को स्वीकार कर पहुँच गये.

रानी लक्ष्मीबाई के नेतृत्व में सभी क्षत्रिय राजपूत सेना-नायकों ने एक साथ 1 जून 1858 को ग्वालियर के राजा जियाजी राव सिन्धिया पर आक्रमण किया. जियाजी राव सिन्धिया अपनी सेना व तोपखाना के साथ युद्ध मैदान में आ डटा. सिन्धिया ने युद्ध की घोषणा कर दी और आदेश दिया कि रानी लक्ष्मीबाई तथा तांत्या टोपे की सेना पर तोपों से गोले दागे जाये. सिन्धिया की सेना व तोपची गुप्तरूप से क्रांतिकारियों से मिले हुए थे. छूट-पुट लड़ाई के बाद ग्वालियर सिन्धिया की सेना क्रांतिकारियों से आकर मिल गई. जियाजी राव सिन्धिया और उनका मंत्री दिनकर राव कुछ विश्वस्त सैनिकों के साथ भाग कर आगरा में अंग्रेजों की शरण में चले गए. क्रांतिकारियों की विजय का ग्वालियर की जनता ने हर्ष और उल्लास के साथ ग्वालियर की सड़कों पर विजय जुलूस निकाला. ग्वालियर में नाना साहब के प्रतिनिधि पांडुरंग राव (राव साहब) को पेशवा मान कर 21 तोपों की सलामी दी.

3 जून 1858 को ग्वालियर के फूलबाग मैदान में एक बड़ा दरबार लगाया गया. उसमें इलाके के सभी क्रांतिकारी नेता, सामन्त, सरदारों ने अपना अपना स्थान ग्रहण किया. सभी सैनिक अपनी अपनी वर्दी पहिन कर जमा हो गई. पांडुरंग राव को पेशवा घोषित किया गया तथा तांत्या टोपे को प्रधान सेनापति नियुक्त किया गया. 20 लाख रूपये सेना में इनाम के रूप में बाँट दिए गये. ग्वालियर में ख़ुशी के माहौल में अनेक रंगारंग कार्यक्रम हुए. रानी लक्ष्मीबाई इन कार्यक्रमों से नाखुश थी और उन्होंने तांत्या टोपे व पांडुरंग राव पेशवा को सलाह दी की कि समय बर्बाद न करो. सेना का संगठन मजबूत करो और अंग्रेजों से लड़ने की तैयारी करो. अंग्रेज शीघ्र ही सिन्धिया को लेकर ग्वालियर पर पुन: कब्ज़ा करने आ जायेंगे. पेशवा पांडुरंग राव व अन्य नेताओं ने रानी की सलाह को अनसुना कर दिया. सेना संगठित कर युद्ध की तैयारी पर ध्यान नहीं दिया गया.

17 जून को अंग्रेज सेनापति सर ह्यूरोज महाराजा जियाजीराव सिन्धिया को साथ लेकर ग्वालियर पर टूट पड़ा. उसने ऐलान कराया कि कम्पनी सेना महाराजा सिन्धिया को फिर से ग्वालियर की गद्दी पर बैठाने आ गई है. तांत्या टोपे मुकाबले के लिए आगे बढ़ा. परन्तु अंग्रेजों की बड़ी सेना व तोपों की मार न सह सका ग्वालियर की सेना जो तांत्या टोपे के साथ थी उसमें उथल-पुथल मच गई, राव पांडुरंग सेना को नहीं सम्भाल पाये और  घबरा गये. परन्तु रानी लक्ष्मीबाई के साथ भिण्ड, भदावर धार और कछवाह धार की सेना ने साहस के साथ मोर्चा सम्भाला. रानी ने नगर व ग्वालियर किले के पूर्वी फाटक की सुरक्षा का दायित्व स्वयं संभाला. 17 जून व 18 जून 1858 को अंग्रेज सेनापति सर ह्यूरोज की सेना से क्रांतिकारी सेना का भयंकर युद्ध हुआ. रानी ने युद्ध की सुदृढ़ व्यूह रचना की, जिसे अंग्रेज 2 सेना दिन तक नहीं सकी. जब ह्यूरोज की सेना को पूर्वी फाटक पर सफलता नहीं मिली तो उन्होंने मोर्चा बदल कर किले के पश्चिम द्वार से हमला किया. राव पांडूरंग और तांत्या टोपे पश्चिमी दरवाजे के मोर्चे को नहीं संभाल पाये. सर ह्यूरोज के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना ने किले में प्रवेश किया. पश्चिमी मोर्चा टूटने की सूचना मिलते ही रानी उधर बढ़ी तो अंग्रेज सेना से घिर गई. पूर्व की ओर जनरल स्मिथ और पश्चिम की ओर सर ह्यूरोज की सेना ने आगे बढ़कर रानी को घेर लिया. रानी बड़ी वीरता से लड़ी, परन्तु उसके अधिकांश सैनिक मारे गये. रानी का घोड़ा घायल होकर गिर पड़ा तब रानी दूसरे घोड़े पर सवार होकर युद्ध करने लगी. रानी युद्ध करती हुई अंग्रेजी सेना का घेरा तोड़ कर आगे निकल रानी का घोड़ा नाला पार न कर सका और वहीं पर अड़ गया. रानी के साथ केवल दस-पन्द्रह सैनिक ही थे वे भी अलग-थलग पड़ गये. रानी अकेली अंग्रेजी सैनिकों से घिर गई. एक अंग्रेज सैनिक ने पीछे से रानी के सिर पर तलवार से वार किया, इस वार से रानी के सिर का दाहिना भाग कटकर अलग हो गया. दूसरे सैनिक ने भी रानी पर वार किया जिससे रानी लक्ष्मीबाई लहुलुहान हो गई. फिर भी रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी तलवार से दोनों अंग्रेज सैनिकों को मार गिराया. रानी को अत्याधिक घायलावस्था में उनके एक वफादार सैनिक रामचंद्र राव जो उनके साथ था, रानी को उठाकर पास ही स्थित बाबा गंगादास की कुटिया में ले गया. जहाँ कुछ ही क्षणों में रानी की जीवनलीला समाप्त हो गई. बाबा गंगादास ने वहीं पर घास-फूस की ढेरी पर रानी का मृत शरीर रखकर अंतिम संस्कार कर दिया.

रानी के शहीद होते ही ग्वालियर का युद्ध समाप्त हो गया और अंग्रेजों ने विजय प्राप्त कर सिन्धिया को पुन: ग्वालियर का राजा घोषित कर दिया.

आयुवानसिंह स्मृति संस्थान द्वारा प्रकाशित पुस्तक  "स्वतंत्रता समर के योद्धा" लेखक - छाजुसिंह बड़नगर और भोपालसिंह भदौरिया से साभार 

 

   

  

 

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