क्षत्रिय राजवंशों में जैसे चौहान (चाहमान) गुहिल, यादव आदि राजवंश अपने मूल पुरुष के नाम से प्रचलित हए हैं। प्रतिहार कुल का नाम अपने वंशकर्ता के नाम पर न होकर उसके पद सूचक नाम पर प्रचलित हुआ। प्राचीन समय में राज्य शासन के विभिन्न पदाधिकारियों में एक प्रतिहार' भी था, जिसका कार्य राजदरबार या राजा के निवास अथवा महल के द्वार (ड्योढ़ी) पर रहकर उसकी रक्षा करना था। इस पद पर नियुक्ति हेतु किसी विशेष जाति या वर्ण का विचार न रखकर राजा के प्रति विश्वसनीयता को ही अधिक प्राथमिकता दी जाती थी। राजा के विश्वास पात्र पुरुष ही इस पद पर नियुक्त किये जाते थे। प्राचीन शिलालेखादि में प्रतिहार या महाप्रतिहार का नामोल्लेख मिलता है और प्रांतीय भाषा में पड़िहार भी प्रचलित है। प्रतिहार नाम भी वैसा ही है जैसा पंचकुल (पंचोली) नाम है। पंचकुल राज्य में प्रजा जनों से राजकर वसूल करने वाले राजसेवकों की एक संस्था थी जिसका प्रत्येक सदस्य पंचकुल कहलाता था। जिस प्रकार पंचकुल नाम किसी जाति विशेष का न होकर पद सूचक था उसी प्रकार प्रतिहार' नाम भी पदसूचक था।
शिलालेखों
में प्रतिहारों की उत्पत्ति
1.
वि. सं. 894 चैत्र सुदि 5 ईसवी 837 का शिलालेख जोधपुर शहर पनाह की दीवार पर लगा हुआ है। यह शिलालेख पहले
मण्डोर स्थित भगवान विष्णु के किसी मन्दिर में था। यह शिलालेख मण्डोर के शासक बाउक
पड़िहार का है।
अर्थात्
अपने भाई के रामभद्र ने प्रतिहारी का कार्य किया। इससे यह प्रतिहारों का वंश उन्नति
को प्राप्त करें। घटियाला अभिलेख-
रहुतिलओपडिहारो आसीसिरि लक्खणोंतिरामस्य, तेण पडिहारवन्सो समुणईएत्थसम्पतो।
अर्थात्
रघुकुल तिलक लक्ष्मण श्रीराम का प्रतिहार था। उससे प्रतिहार वंश सम्पनि और
समुन्नति को प्राप्त हुआ। इसी अभिलेख में दिया हैं कि संवत् 918 चैत्र माह में जान चन्द्रमा हस्त नक्षत्र में
था, शुक्ल पक्ष की द्वितीया बुधवार को श्री कक्कुक
ने अपनी कीदि की वृद्धि करने हेतु रोहिन्सकूप ग्राम में एक बाजार बनवाया जो
महाजनों,
विप्रों, क्षत्रिय एवं व्यापारियों से भरा रहता था।
लेखक : देवीसिंह मंडावा : पुस्तक प्रतिहारों का मूल इतिहास