विक्रम सम्वत् 1830 की आसोज शुक्ला पंचमी के दिन मुग़ल बादशाह शाहआलम द्वितीय प्रकट हुआ। दिल्ली निवासियों ने पहली बार यह जाना कि बादशाह जीवित है और दिल्ली आ रहा है। मराठों की विशाल सेना उसके साथ थी। मुगल सेना का संचालक मिर्जा नजफखां सेना के अग्रभाग में चल रहा था। रुहेला पठानों के प्रदेश रुहेलखण्ड को जीत कर वहां के प्रसिद्ध किले पत्थरगढ़ को लूट लिया गया। रुहेलों का पराभव करके विजयी सम्राट ने दिल्ली में प्रवेश किया। उस समय भरतपुर के जाटों की शक्ति कमजोर पड़ चुकी थी। शत्रुओं के दिल दहलाने वाले भरतपुर के बाँके वीर जवाहरसिंह का निधन हो चुका था।
जाटों पर चढाई करने हेतु शाही दरबार में मंत्रणा हुई। उस समय तुकोजी राव होल्कर, माधवराव शिंदे और पेशवा के प्रतिनिधि बीसाजी पंडित आदि प्रधान मराठा सेनाध्यक्ष भी वहां उपस्थित थे। उपस्थित उमराओं के समक्ष मिर्जा नजफखां ने सम्राट से निवेदन किया कि यदि उसे आज्ञा मिले तो वह जाटों से आगरा का शाही नगर और किला जीत ले। जाट राजा को पकड़ कर हाजिर करे और करोड़ों रुपयों का जाटों द्वारा संचित द्रव्य लूट कर शाही कोष में जमा करावे।
जाटों को पराजित करने का बीड़ा उठाकर मिर्जा नजफखां ने दिल्ली से प्रस्थान किया। जाट सेनापतियों को उसने सभी प्रमुख स्थानों पर हराया। तत्पश्चात् उसने आगरे के किले को जा घेरा। समरू फिरंगी द्वारा तोपों से गोले बरसाये जाने पर भी किला सर नहीं हुआ। तब मिर्जा ने घेरा मजबूत करके किले के भीतर खाद्य सामग्री का जाना बन्द कर दिया और अपना दूत भेजकर भीतर वालों को किला शाही सेना को सौंप देने के लिये समझाया। तब जाकर आगरा दुर्ग शाही सेना के अधिकार में आया।
मिर्जा नजफखां ने नजफकुली को दुर्गाध्यक्ष बनाकर वहां की रक्षा का भार उसे सौंपा। आगरे में थाणा कायम करके नजफकुली शेखावतों का प्रदेश जीतने को निकल पड़ा।
उपरोक्त इतिहास ठाकुर सुरजनसिंहजी द्वारा लिखित पुस्तक “मांडण युद्ध” के पृष्ठ 71,72 पर लिखी है | जिसे पढने के बाद मुग़ल मराठा सम्बन्धों का पता चलता है | पर अफ़सोस मुग़ल राजपूत सम्बन्धों पर प्रतिकूल टिप्पणियाँ करने वाली देश की वर्तमान पीढ़ी मुगलों के साथ रहे इन मराठों को देश के सबसे बड़े राष्ट्रवादी समझते हैं |
नोट : शेखावतों ने जाटों के साथ मिलकर मिर्जा नजफखां, नजफ़कुली व शाही अधिकारी राव मित्रसेन अहीर की कैसी गत बनाई उसकी चर्चा किसी अगले लेख में करेंगे |