Type Here to Get Search Results !

प्रतिहार राजपूतों की उत्पत्ति गुर्जरों से ना होने का ये है बड़ा सबूत


 प्रतिहार राजपूतों को गुर्जर देश के शासक होने के कारण गुर्जर नरेश संबोधित किया जाता था, इसी संबोधन से भ्रम पैदा कर आज प्रतिहारों की उत्पत्ति गुर्जरों से प्रचारित की जाती है| इस सबंध में इतिहासकार  देवीसिंह, मंडवा अपनी पुस्तक “प्रतिहारों का मूल इतिहास” में लिखते है- “व्हेनसांग ई. 629-650 तक भारत में रहा था। उसने अपने यात्रा वर्णन में दक्षिण के चालुक्य सम्राट पुलकेशी द्वितीय, भीनमाल के चावड़ा शासक और वल्लभी नरेश आदि को क्षत्रिय वंशोत्पन्न बताया है।1 अब विचारणीय यह है कि जब ई. 384 या 400 के करीब जब चालुक्य (अग्निवंशी) दक्षिण में राज्य कर रहे थे तो फिर ई. 484 में भारत आने वाले हूणों या उनकी छोटी शाखा गुर्जर मानी जाने वाली जातियों के वंशज होना असम्भव ही है। इसी प्रकार व्हेनसांग ने भी चालुक्यों को क्षत्रिय लिखा है। अग्निवंशियों के दूसरे कुल चौहानों पर जब विचार करते है तब उस कुल का वासुदेव जो अहिछत्रपुर से पहले पहल राजस्थान में आया उसका समय प्रबन्ध कोष में ई. 551 दिया है। वासुदेव चौहानों के पूर्वज चाहमान से काफी बाद में हुआ। ऐसी हालत में चाहानों का भी हूण गुर्जरों के वंशज होना युक्तिसंगत बिल्कुल नहीं है। के. एम. मुन्शी की मान्यता है कि प्रतिहारों के लिये गुर्जर शब्द का प्रयोग जो राष्ट्रकूट और अरबों ने किया है वह किसी जाति का द्योतक नहीं वह तो इनका गुर्जर देश का निवासी होने का संकेत कर रहा है।

मुन्शी ने अपनी पुस्तक ‘ग्लोरीज दैट ऑफ गुर्जर देश’ के तृतीय भाग में बड़ा विस्तृत वर्णन दिया है। ओझा तथा वैद्य भी प्रतिहार आदि को गुर्जर न मानकर क्षत्रिय ही मानते है। जो हूण भारत में आये, वे यूरोप वाले हूणों से सफेद वर्ण के थे। इसलिये उनके लिये श्वेत हूण शब्द काम में लिया गया है। यूरोप के हूणों के समकालीन विद्वानों ने हूणों की आकृति तथा स्वभाव को जो वर्णन दिया है वह प्रतिहार, चौहान, चालुक्य आदि अग्निवंशियों से कतई मेल नहीं नहीं खाते| भारतीय विद्वानों ने इनके रंग रूप का तो कोई वर्णन यूरोप वालों की तरह नहीं दिया, परन्तु उनकी क्रूरता और इनके द्वारा नर संहार का वर्णन दिया गया है। अकेले मिहिरकुल ने गान्धार में 1600 से ऊपर बौद्धों के मठों को तुड़वाया था और लाखों बौद्धों को मरवा दिया था।2 राजस्थान के भी बैराठ, रंगमहल आदि के बौद्ध मठों को तहस नहस करवा दिया था।17 कल्हण राजतरंगिणी में लिखता है कि मिहिरकुल यमराज के समान है। उसकी निर्दयता का उसने वर्णन किया है कि परिपंचाल की घाटियों में चढ़ते समय इसका एक हाथी फिसल गया था। लुढ़कते हुए हाथी ने करुणा भरी चिंघाड़ की। वह चिंघाड़ उसे इतनी अच्छी लगी कि उसने अपनी सेना के सौ हाथी और लुढ़कवाये 3। इससे स्पष्ट है कि वह क्रूर, अशिक्षित और संस्कृति तथा सभ्यताविहीन था। खेती करना तो ये लोग जानते ही नहीं थे।

हूणों के विपरीत अग्निवंशियों (क्षत्रियों) का जब अवलोकन करते है तब प्रतिहार, चौहान, चालुक्य, परमार आदि चारों अग्निवंशी कुलों में ऐसे अनेक राजा हुए जो स्वयं कवि, काव्यप्रेमी और विद्वान थे, जिनके दरबारमें विद्वानों का बड़ा आदर होता था। अनेक क्षत्रियों राजाओं ने कई हूण राजाओं को युद्धों में परास्त किया जिसका उनके शिलालेखों में वर्णन है। इसलिये तात्पर्य यह है कि क्षत्रिय और हूण एक ही वंशज नहीं हो सकते। हूणों के इतिहास के लेखक डा. विश्वास ने भी लिखा है कि राजपूत हूणों से श्रेष्ठ थे।

प्रतिहारों ने अपने आठवीं नोवीं सदी के शिलालेखों में अपने को रघुवंशी लक्ष्मण के वंशज होना स्पष्ट लिखा है। इसी प्रकार गुहिलोतों, चौहानों आदि ने भी अपने शिलालेखों में प्रतिहारों को रघुवंशी लिखा है। इन समस्त ठोस प्रमाणों के होते हुए हम आधुनिक विद्वानों की प्रमाण विहीन मनमानी कल्पना को स्वीकार नहीं कर सकते। इस प्रकार हमें यह मानना ही होगा कि प्रतिहार रघुवंशी लक्ष्मण के ही वंशज है।”

सन्दर्भ : 1. द क्लासिक ऐज, आर.सी.मजूमदार पृष्ठ 231

  1. रेऊ, भारत के प्राचीन राजवंश, भाग 2, पृष्ठ 328
  2. सेन एम.ए कल्हण राजतरंगिनी, भाग 1, पृष्ठ 611

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.

Top Post Ad

Below Post Ad

Ads Area