अनंगपाल तोमर का इब्राहिम से युद्ध
1059 ई. में गजनी का सुल्तान इब्राहिम बना। यह मसऊद का दूसरा पुत्र था। मध्ययुगीन इतिहास लेखकों का कथन है कि इब्राहित ने तंवरहिन्दा पर आक्रमण कर उसे जीत लिया था, यह तंवरहिन्दा सिरसागरही हैं वह तोमरों के राज्य में ही था, यह भी उल्लेख प्राप्त होता है कि इब्राहीम ने रूपाल (नूरपुर) को विजय किया था। यह रूपाल तोमरों का ही गढ़ था जहां पर दिल्ली के तोमरों के वंशज राज्य कर रहे थे। इब्राहिम अनंगपाल द्वितीय का समकालीन था। केशवदास ने अपने पूर्वजों का इतिहास लिखते समय कविप्रिया में लिखा है
जगपावन वैकुण्ठपति रामचन्द्र यह नाम। मथुरा-मण्डल में दिये, तिन्हें सात सौ ग्राम॥
सोमवंश यदुकुल कलश त्रिभुवनपाल नरेश। फरिदिये कलि कालपुर, तेई तिन्हें सुदेश॥
द्विवेदी के अनुसार यह त्रिभुवनपाल नरेश और कोई नहीं अनंगपाल द्वितीय ही है। जब मथुरा ध्वस्त हो गई तो उसकी रक्षा का भार इस धनाढ्य कुल को देकर सात सौ ग्राम की जागीर का सामन्त बनाया। यह कुल शास्त्री जीवी ही नहीं था, यह समरशूर शस्त्रजीवी भी था।संभवत: केशवदास सोमवंश यदुकुल कलश तोमर राजाओं के लिए ही लिखते थे और 'त्रिभुवन पाल नरेश' अनंगपाल द्वितीय ही है। ऐसा भी अनुमान है कि तहनगढ़ या त्रिभुवन गिरी को भी तोमर अनंगपाल द्वितीय ने ही बसाया था, बयाना से 14 मील और करौली से उतर पूर्व में 24 मील स्थित यह गढ़ तोमरों के लिए सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण था। तोमरगृह से ऐसाह और दिल्ली के बीच होने के कारण भी इसका महत्व था इसलिए अनंगपाल ने वहां पर अपना सामन्त स्थापित किया होगा।
अनंगपाल द्वितीय के समय श्रीधर ने पार्श्वनाथ चरित नामक पुस्तक की रचना की थी उसमें अपने आश्यदाता नट्टल साहु का बखान करने के पश्चात दिल्ली का भी वर्णन किया है। इसमें अनंगपाल ने किसी हमीर को पराजित किया उससे सम्बन्धित कुछ पंक्तियां लिखी जिनका अर्थ विद्वानों ने अलग-अलग दिया है।
द्विवेदी की पुस्तक दिल्ली के तोमर में द्विवेदी ने अपभ्रंश के
माने हुए विद्वान, विश्व
भारती, शान्ति
निकेतन के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष डॉ.रामसिंह तोमर85 से जो श्रीधर पार्श्वनाथ का अनुवाद
करवाया वह निम्नवत् है-
उक्त अर्थों से यही तात्पर्य है कि दिल्ली सम्राट अनंगपाल द्वितीय ने तुर्कों को पराजित किया। यह तुर्क इब्राहिम ही था, जिसे निश्चय ही अनंगपाल ने पराजित किया और अपनी पताका फहराई। इसी भाष्य का अनुवाद डॉ. दशरथ शर्मा ने इसका अर्थ प्रथम पंक्तियां प्राप्त हुए बगैर ही कर दिया और इस पूरे लेख को ही बदल दिया, जो कल्पना उन्होंने की अगर सभी इतिहासकार ऐसा करने लगेंगे तो न तो इतिहास मान्य होगा और न ही दूर होगीभ्रांतियां। डॉ.शर्मा चौहानों के इतिहासकार रहे हैं परन्तु इसका अर्थ यह तो नहीं कि उनकी गलती को बार-बार दोहराया जाए किसी विद्वान से गलती हो सकती है परन्तु सभी से नहीं।
अनंगपाल द्वितीय की मृत्यु 1081 ई. में हुई। अनंगपाल ने 29 वर्ष, 6 माह और अठारह दिनों तक दिल्ली
पर शासन किया। अनंगपाल द्वितीय की मुद्राएं भी प्राप्त हुई है, जिसमें उसे किल्लिदेवपाल के नाम
से जाना गया है। सम्भवत: यह मुद्राएं अनंगपाल द्वितीय ने लौह स्तम्भ को दिल्ली में
स्थापित करने के उपलक्ष्य में चलाई थी।
ठक्कुर फेरू ने दिल्ली की टकसाल की सभी तोमरों की मुद्राओं की जानकारी दी उसने लिखा है:-
अणग मयणप्पलाहे पिथउपलाहे य चाहड़पलाहे। सय मज्झिटंक सोलहरुप्पउ उणवीस करि मुल्लो॥
इन मुद्राओं में एक और अश्वरोही के उपर श्री किल्लिदेव लिखा तथा
दूसरी ओर बैठे हुए नन्दी के ऊपर 'पालश्री समन्तदेव' लिखा है,88 दोनों ओर के पाठ को एक साथ
पढ़ने से समस्त पाठ 'श्रीकिल्लिदेवपाल
श्री समन्तदेव' है।
अर्थात् 'किल्लिदेवपाल' नाम है और 'श्री समन्तदेव' विरद । सम्भवत: यह मुद्रा
अनंगपाल द्वितीय ने 1052 ई. में तंवर (तोमर) राजवंश का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास जब 'किल्ली' लौह स्तम्भ को दिल्ली में
स्थापित किया तब उसकी स्मृति में ये मुद्रा चलाई हो। इतिहास में ऐसे उदाहरणों की
कमी नहीं है कि किसीराजाने अपने राज्यकाल की किसी विशेष उपलब्धि की स्मृति में
मुद्राएं जारी की हो यह संभव है कि अनंगपाल ने भी जब लोहस्तम्भ' किल्ली को अपने प्रांगण में
गाढ़ा तब उसके उपलक्ष्य में यह मुद्राएं जारी की गई होगी।
अनंगपाल द्वितीय ने अन्य दो प्रकार की मुद्राएं भी ढलवाई थी। एक प्रकार की मुद्राओं पर उसका नाम श्रीअनंगपाल' मिलता है और दूसरी मुद्राओंपर 'श्रीअणगपाल'। यह अणगपाल प्रयोग बहुत महत्वपूर्ण है। अनंगपाल शुद्ध संस्कृत रूप है और अणगपाल पर हरियाणा की लोक भाषा का प्रत्यक्ष प्रभाव है। मध्यकाल की हिन्दी की जन्म स्थली हरियाणा कुरुक्षेत्र ही है।
अनंगपाल द्वितीय की मृत्यु के पश्चात् तेजपाल प्रथम दिल्ली के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुए।
सन्दर्भ पुस्तक : तंवर (तोमर) राजवंश का राजनीतिक व सांस्कृतिक इतिहास; लेखक : डॉ. महेंद्रसिंह तंवर