भाग १ से आगे : दिल्ली के तोमर पुस्तक में द्विवेदी के अनुसर 1052 ई. से प्रारम्भ होकर वे निर्माण 1067 ई. तक चलते रहे। गढ़वाल की पोथी के अनुसार संवत् 1117 मार्गशीर्ष सुदी दशम, 1060 ई. को लालकोट का निर्माण पूर्ण हआ। वि.सं. 1124 (1067 ई.) तक मन्दिर और भवन बन रहे थे, ऐसा कथन कारीगर के लेख से स्पष्ट है।
यह वही लौह स्तम्भ है जिसे रासोकारों ने अनंगपाल प्रथम से जोड़ा है जो सही नहीं है क्योंकि इसे अनंगपाल द्वितीय ने दिल्ली में स्थापित किया था। अनेक इतिहासकारों का अभिमत है कि लौह स्तम्भ पहले मथुरा में था और वहां से लाकर दिल्ली में स्थापित किया गया। शूरवीरसिंह पंवार ने अपने लेख में इसे देहरादून जिले के जौनसार बाबर तहसील में स्थित बताया है और वहां से लाकर दिल्ली में स्थापित किया परन्तु द्विवेदी ने अपना मत मथुरा पर ही दिया है जिसे मानना ही उचित होगा। पद्मावती कान्तिपुरी और मथुरा के सम्राट अधिराज भवनाग ने यह लौह स्तम्भ मथुरा के उस विशाल विष्णु मन्दिर के सामने स्थापित किया जो 1050 ई. में बने केशवदेव के मन्दिर
के स्थान पर बना हुआ था और जिसे महमूद ने तोड़ दिया था। 1050 ई. में कुमारपाल नगरकोट के तुर्कों से जूझ रहे
थे उस समय उनका राजकुमार मथुरा की रक्षा के लिए नियुक्त था। उसने विष्णु के
प्राचीन मन्दिर के अवशेषषों में इस विष्णु ध्वज को देखा और उसे दिल्ली लाने का उपक्रम किया।" सम्भव है इसे जल मार्ग से लाया गया हो, उल्टीधार में नाविक भार खे लेते
हैं। इस प्रकार यह लौह स्तम्भ दिल्ली लाया गया और महरौली में इसे स्थापित किया
गया। इसी समय अनंगपाल ने अपनी मुद्राएं भी चलाई जो इस लौह स्तम्भ के समय ढाली गई
थी।