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Samrat Harshvardhan Vais : सम्राट हर्षवर्धन वैस का इतिहास

 Samrat Harshvardhan Vais : सम्राट हर्षवर्धन वैस का इतिहास 

सम्राट हर्षवर्धन वैस के इतिहास पर कुंवर देवीसिंह मंडावा अपनी पुस्तक "राजपूत शाखाओं का इतिहास" में लिखते हैं कि- राज्यवर्धन बिना राज्याभिषेक कराए ही सीधा ससैन्य मालवा गया, किन्त मालवा और गौड़ राजाओं के संयुक्त संघ द्वारा धोखे से मारा गया। हर्ष राज्यवर्धन का छोटा भाई था। वह थानेश्वर का राज्यासन प्राप्त कर मालवा आया और मालवा के देशगुप्त को मार कर अपने भाई तथा बहनोई का बदला लिया। उसने अपनी बहन राज्यश्री को बन्देलखण्ड के जगल प्रान्त में ढूंढ निकाला और उसे अपने साथ कन्नौज ले आया। मोखरी वंश में सिंहासन का कोई उत्तराधिकारी शेष न रहने के कारण हर्षवर्धन कन्नौज का भी राजा बना। इस प्रकार हर्ष थानेश्वर तथा कन्नौज के समृद्ध राज्यों का शासक बन गया। इसके पश्चात् उसने उत्तरी भारत को जीतकर अपने अधीन किया। आसाम के राजा भास्कर वर्मा ने उससे मैत्री की संधि की। उसने पश्चिम में वल्लभी के प्रतापी राजा ध्रुवसेन द्वितीय के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर उसे अपना सहायक नरेश बनाया। इस प्रकार हर्ष सारे उत्तर भारत का स्वामी माना जाने लगा।

सम्राट हर्षवर्धन ने दक्षिण विजय करने का भी प्रयास किया, किन्तु इसमें उसे सफलता नहीं मिली। नर्मदा नदी के दक्षिण में विस्तृत महाराष्ट्र प्रदेश पर उस समय चालुक्य राजा पुलकेशी द्वितीय शासन कर रहा था। वह बड़ा प्रतापी क्षत्रिय नरेश था। उसकी सेना में बड़े उद्भट योद्धा थे, जो युद्ध में पीठ दिखलाना नहीं जानते थे। नर्मदा के तट पर उससे मुठभेड़ में हर्ष को सफलता नहीं मिली और उसने बुद्धिमत्ता से नर्मदा पार करने के अपने विचार को त्याग कर उत्तरी भारत का सम्राट कहलाने में ही संतोष किया।

हर्ष किस धर्म या सम्प्रदाय का अनुयायी था, यह विषय विवादास्पद है। उसके पूर्वज हिन्दू धर्म को मानने वाले तथा शिव व सूर्य के उपासक थे, पर हर्ष का झुकाव बौद्ध मत की ओर अधिक था। गुप्तों के शासनकाल में उन्नति की चरम सीमा पर पहुँचे हुए हिन्दू धर्म की भी भारतीय जनमानस पर इतनी गहरी छाप जम चुकी थी कि उस समय की उपेक्षा करना असम्भव था। हर्ष सूर्य की पूजा करता था और शिव की भी, साथ ही भगवान तथागत को भी मानता था। बौद्ध श्रमणों और ब्राह्मणों को बराबर दान देता था | बौद्धों ने उसे पक्का बौद्ध माना है तो बाण आदि उसके दरबारी ब्राह्मण कवियों ने उसे सभी धर्मों का आदर देने वाला और मानने वाला चित्रित किया है। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि तत्कालीन भारतीय सामाजिक परिस्थितियों के अनुकूल हर्ष धर्म सहिष्णु और समन्वयवादी था। चीनी यात्री ह्वेनसांग हर्ष के समय में ही भारत यात्रा पर आया था | उसके यात्रा-विवरणों से उस समय के भारतीय जनपदों के इतिहास पर अच्छा प्रकाश पड़ता है |

हर्ष की मृत्यु सन 647 ई. में हुई थी। उसकी मृत्यु के पश्चात हर्ष का साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया | देश में चारों ओर अराजकता फैल गई। अधीनस्थ राजा स्वतन्त्र बन गए | शक्तिशाली राजा अपना प्रभुत्व बढाने और शक्ति संचय में लग गए | प्राय: केन्द्रीय सत्ता के शक्तिहीन होने पर विकेन्द्रीकरण की प्रवृतियाँ सिर उठाने लगती हैं। भारत के इतिहास में इस तथ्य की बार बार पुनरावृति होती आई है। वैसा ही दृश्य सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात् उपस्थित हुआ |

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