राजपूत योद्धाओं की हर कहानी में नैतिक मूल्य छिपे होते हैं | किसी भी योद्धा ने कभी भी युद्ध जीतने या युद्ध में अपना जीवन बचाने के लिए नैतिक मूल्यों से समझौता नहीं किया | यही नहीं युद्धों में जहाँ योद्धाओं ने अपने कर्तव्य पालन के लिए अपने ही परिजनों के खिलाफ युद्ध किये वहीं युद्ध समाप्ति या जरुरत पर युद्ध के मैदान में पारिवारिक दायित्वों का भी बखूबी पालन किया | इतिहास में ऐसे उदाहरण भरे पड़े है कि काका-भतीजा दिन में आमने सामने युद्ध लड़ रहे हैं और शाम को दोनों एक ही थाली में बैठकर भोजन कर रहे हैं |
उनके इस तरह के चरित्र से हमें प्रेरणा मिलती है कि जब हम ड्यूटी पर होते हैं तब हमें परिवाद छोड़ कर्तव्य पालन पर ध्यान देना चाहिए और ड्यूटी के बाद पारिवारिक दायित्व निभाने से भी नहीं चूकना चाहिए, बेशक परिजन अपना दुश्मन ही क्यों ना बना हुआ हो | यही नैतिकता है यही moral है जो हमें राजपूतों की कहानियों में मिलता है |
चितौड़ के राजकुमार पृथ्वीराज और उनके काका का उदाहरण इतिहास के पन्नों पर सुनहरे अंकों से दर्ज है कि दिन में दोनों के मध्य युद्ध होता और रात में दोनों एक साथ भोजन करते और एक दूसरे को दिए घावों पर चर्चा करते, एक दुसरे की कुशलक्षेम पूछते | दरअसल ऐसी ही भावनाओं ने राजपूत चरित्र को प्राणवान बनाया | आज लोग राजपूत योद्धाओं की नकल कर इतिहास तो बनाना चाहते हैं पर वे भूल जाते हैं कि जब ये योद्धा अपने प्राणों का उत्सर्ग किया करते थे तब उनके पूर्वज कुछ ले देकर अपने पशु व खेती बचाने के हर संभव प्रयास किया करते थे |