यूँ तो क्षत्रिय समाज का इतिहास हजारों साल पुराना है लेकिन यदि हम पिछले 1500 सालों की बात करें तो क्षत्रिय समाज में केंद्रीय नेतृत्व का सख्त आभाव रहा है। 11 वीं शताब्दी में पृथ्वीराज चौहान ने जरूर केंन्द्रीय शक्ति बनने का प्रयास किया था और काफी हद तक वो सफल भी रहा था। लेकिन दुर्भाग्यवश वह लम्बे समय तक जीवित ना रह सका। सही अर्थों में पृथ्वीराज के बाद ही राजपूत शक्ति का पतन हो गया। और इस्लाम का भारतवर्ष में उदय हुआ। पृथ्वीराज के लगभग साढे तीन सौ वर्ष बाद 15 वीं शताब्दी में मेवाड़ राजवंश में जन्मंे राणा सांगा ने जरूर एक बार फिर दिल्ली पर राज करने की अपनी उत्कंठ महत्वाकांक्षा को दर्शाया था। लगभग 21 राजपूत राजाओं को साथ मिलाकर बाबर को ललकारा था। लेकिन वह भी असफल रहा।
इसके बाद कोई राजपूत राजा ऐसा ना हुआ, जिसने पूरे देश पर शासन करने और केंद्रीय सत्ता के शीर्ष पर बैठने का प्रयास किया हो या मुगलों और अंग्रेजों को ललकारा हो। उनसे सत्ता छीनने का प्रयास किया हो। हाँ ! अपवादस्वरूप कुछेक राजाओं के नाम जरूर लिए जा सकते हैं, जिन्होंने अपनी वीरता और शौर्य से मुगलों की नाक में दम कर दिया और अपना शासन चलाया। इनमंे हम प्रारम्भ में (अकबर काल में ) महाराणा प्रताप, राव चंद्रसेन और बाद में औरंगजेब के समय बुंदेलखंड के महाराजा छत्रसाल, मराठा क्षत्रप शिवाजी तथा पंजाब में बंदा बहादुर के नाम प्रमुखता से ले सकते हैं। लेकिन इनमें भी कोई राजा इतना महत्वाकांक्षी ना था, जो औरंगजेब को पदच्युत करके केंद्रीय सत्ता प्राप्त करना चाहता हो। बाकी किसी राजा या राजवंश की बात करना ही बेमानी है। क्योंकि उनका उद्देश्य येन केन प्रकारेण अपनी छोटी छोटी रियासतों को बचाये रखना था। उनसे केंद्रीय नेतृत्व की उम्मीद ही बेमानी थी। क्योंकि वे अंश भर भी इसके लायक ना थे।
मुगलों के जाने के बाद अंग्रेजों ने भारत की सत्ता संभाली तब तक राजपूत नेतृत्व पूरी तरह पतित हो चूका था। अंग्रेजों के 200 साल के शासन में (1857 के असफल विद्रोह को छोड़ के) राजपूतों का अंग्रेजों से नाम मात्र का भी संघर्ष ना हुआ। राजपूत नेतृत्व पूरी तरह सत्ता निर्लिप्त हो चूका था। उनके लिये सत्ता का अर्थ कुछ सौ वर्गमील में फैली उनकी रियासत को बचाये रखना था। वो भी अंग्रेजों की चाटुकारिता करके। अब केंद्रीय नेतृत्व की आस बेमानी थी। मुगल सत्ता ने राजपूत नेतृत्व को घुटनों पर बिठा दिया था। लेकिन अंग्रेज सत्ता ने राजपूत नेतृत्व को मरणासन्न कर दिया। अब राजपूत नेतृत्व निस्तेज एवं निःशक्त हो चुके थे, इसलिए 18 वीं शताब्दी में प्रारम्भ हुये एवं 19 वीं शताब्दी में मुखर हो चुके कांग्रेस आंदोलन से राजपूत निर्लिप्त हो चुके थे। राजा रजवाड़ों के रूप में अमहत्वाकांक्षी, अदूरदर्शी, विलासी अपने गौरवशाली इतिहास को धता बताकर निर्लज राजपूत नेतृत्व किंकर्तव्येविमूढ, निर्लिप्त एवं तटस्थ खड़ा हो सब कुछ देख रहा था।
भारतवर्ष के इस नये लिखे जा रहे इतिहास में वो अपनी भूमिका ही तय नहीं कर पा रहा था। सत्ता के साथ साथ राजपूतों ने 19 वीं शताब्दी में इतिहास बनाने की अपनी भूमिका से भी किनारा कर लिया और इतिहास निर्माण की बागडोर बुद्धिजीवी वर्ग के हाथों में सौंप दी। जिसने अंग्रेजों के जाते ही ना केवल सत्ता की बागडोर अपने हाथ में ले ली वरन अपनी षड्यंत्रकारी प्रवृति को प्रेरक बनाकर राजपूत समाज को पददलित करना शुरू कर दिया। टुकड़ों टुकड़ों में बंटा, नासमझ अदूरदर्शी राजपूत नेतृत्व सिर्फ अपने प्रिवी पर्स बचाने से ज्यादा कुछ सोच ही नहीं पाया।
ये राजपूत राजा ये तक ना सोच पाये ये कि सारी भूमि, सारा आकाश, सारा राज्य, सारी सत्ता हमारी थी, हमारी है। जिसे बचाये रखने और पाने के लिये हमारे पूर्वजों ने अनगिनत बलिदान दिये हैं। त्याग किये। उन्होंने सहर्ष ही बिना किसी संघर्ष, बिना शर्त सबकुछ कांग्रेस को सौंप दिया और अपने प्रिवी पर्स लेकर अपने हित सुरक्षित समझ, उन राजपूतों के हितों को बलिदान कर दिया जो उनके लिये सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार रहता था। निजाम बदला, शासन पद्धति बदली, परिस्थितियां बदलीं और बदल गया सबकुछ।
लोकतंत्र में कई दशक तक निर्लिप्त रहने के बाद राजनीति में राजपूतों ने फिर मुखर होना शुरू किया। दो दो प्रधानमंत्री बन गये। वीपी सिंह के रूप में लगा कि क्षत्रिय समाज को केंद्रीय नेता एवं नेतृत्व मिल गया। लेकिन ये चार दिन की चांदनी थी। तब से लेकर अब तक कोई भी एक सर्वमान्य नेता नहीं मिल सका।
लेखक : सचिन सिंह गौड़