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Kabra Haveli Loasl काबरा हवेली लोसल | बड़ी हवेली लोसल

 Kabra Haveli Loasl | Seth Surajmal Haribax Kabara Haveli History in Hindi | Badi Haveli Losal

सीकर जिले में जिला मुख्यालय से लगभग 40 किलोमीटर दूर बसा है लोसल क़स्बा | रियासती काल में खंडेला के राजा वरसिंहदेवजी के पुत्र ठाकुर अमरसिंहजी को यह क़स्बा जागीर में मिला था | अमरसिंह जी ने कस्बे में एक गढ़ का भी निर्माण कराया था. बाद में अमरसिंहजी दांता चले गए और दांता कस्बे को अपनी राजधानी बनाया | वर्तमान लोसल कस्बा उस वक्त एक गांव के रूप में था, लेकिन इस गांव में कई बड़े बड़े सेठ रहते थे | जिनमें काबरा, खेतान और साबू तीन बड़े घराने थे | इन तीनों घरानों का समृद्ध व्यापार था और अपने व्यापार के बलबूते तीनों ही घराने आर्थिक दृष्टि संपन्न थे |



हालाँकि इन सेठों का व्यापार देश के कोने कोने में फैला था, पर रहने के लिए इन सेठों ने गाँव में बड़ी बड़ी हवेलियाँ बनवाई | सेठ लोग गांव में हवेली बनाना अपनी जन्मभूमि का कर्ज चुकाना मानते थे। लोसल में बनी विशाल व भव्य हवेलियाँ उन सेठों की सम्पन्नता, उनके व्यापारिक साम्राज्य की विशालता और अपने गांव के प्रति उनके प्रेम को दर्शाती है |

इन्हीं खुबसूरत हवेलियों में आज हम आपको दिखायेंगे सेठ हरिबक्सजी काबरा द्वारा बनवाई गई भव्य हवेली |

इस भव्य व विशाल हवेली का निर्माण सेठ सूरजमलजी हरिबक्सजी काबरा के नाम से सेठ हरिबक्सजी ने सन् 1907 में करवाया था। इतनी बड़ी रंगीन चित्र-सुसज्जित हवेली बनाना तब के समृद्ध सेठ के बूते का ही काम था। सेठजी ने यह हवेली चार भाईयों के रहने के लिए बनवाई थी। चारों भाई हरिबक्सजी, महादेवजी, टोडरमलजी और रामकृष्णजी-सपरिवार संयुक्त परिवार के रूप में इस हवेली में रहते थे।

शेखावाटी की हवेली की बनावट और स्थापत्य कला की प्रमुख विशेषता, खुले चौकों के चारों ओर बनना, हवादार होना और भव्य भित्ति चित्रों से सजा होना है। महिलाओं के बैठने, काम करने का भाग अलग और पुरुषों का अलग। बाहरी चौक में पुरुष और अंदर के चौक में महिलायें।

हवेली पाँच चौक की है। चौक ऊपर की ओर खुला होता है जिसमें बैठे व्यक्ति को आसमान दिखता है।

सबसे आगे बड़ा, कच्चा अहाता पहला चौक, दूसरा मर्दाना चौक, तीसरा जनाना चौक, पीछे रसोई चौक और सबसे पीछे कच्चा नोहरा जानवरों का चौक। हवेली का रिहायशी प्रमुख भाग सामने से तीसरे चौक के चारों ओर बना है।

हवेली जमीन लेवल पर बने 10 फीट ऊँचे कमरों पर बनी है। 10-12 फीट ऊँचाई पर बनी हवेली में सीढ़ियाँ चढ़कर जाना होता है। नोहरे के बाहर परिवार का कुआँ है। उससे लगा एक छोटा और एक बड़ा बाड़ा होता था जिनमें कुएँ की सिंचाई से खेती होती थी। बाड़े में परिवार के लिए मक्का, बाजरा और सब्जियों उगाई जाती थी। दोनों बाड़े बाद में बेच दिए गए। पानी के लिए कुआँ, बाड़ों में खेती, दूध के लिए नोहरे में गायें, आने-जाने के लिए ऊँट गाड़ी,  बैल गाड़ी, इस प्रकार रोजमर्रा की जरूरतों के लिए आत्मनिर्भरता थी। चौक के चारों ओर बनी चौकोर चौखंडी दुमंजिला हवेली है। चारों कोनों (चार खंड) और उनके ऊपर दूसरी मंजिल पर स्थित कमरों में एक-एक भाई का परिवार रहता था। बुजुर्ग सेठ सेठानी नीचे और बेटे-बहुएँ ऊपर रहते थे| चौक के हर कोने वाला कमरा सेठानी जी का था। हवेली में हर कमरे के साथ एक छोटा कमरा, रसोई और बरामदा बना है।

भित्त चित्रों से सुसज्जित भीतर का जनाना चौक परिवार का भव्य लिविंग रूम था। सेठानियों के धर्म-कर्म, बहुओं के नित्य कर्म और बच्चों की किलकारियों, अठखेलियों और शैतानियों से सदा गुलजार और जीवंत रहती थी यह हवेली। जैसा कि हमने आपको बताया कि हवेली में पाँच चौक हैं ।

सबसे सामने वाला चौक ऊँची दीवाल से घिरा कच्चा बड़ा अहाता है। प्रवेश के लिए दो विशाल दरवाजे थे। एक बंद कर दिया गया है, दूसरा अभी भी अपनी भव्यता के साथ खड़ा है। लकड़ी, लोहे की पत्तियाँ और मोटी कीलों-कुंदों से 12 फीट के दो पल्लों का दरवाजा बना है।

चौक के एक कोने में बरगद से आच्छादित एक पक्का चबूतरा है। इस पर सुरक्षाकर्मी, हाळी और हवेली में काम करने वाले चिलम पीते और आराम करते थे।

पहले चौक से दूसरे चौक में एक बड़े दरवाजे से प्रवेश होता है। दरवाजे के दोनों ओर हाथी के बड़े-बड़े चित्र हैं। शोख रंगों में बने हाथियों के इन भित्ति चित्रों में प्रयुक्त प्राकृतिक और वानस्पतिक रंगों की चमक आज भी यथावत हैं।

दूसरे खुले चौक के दोनों ओर दो बड़ी बैठकें हैं जहाँ सेठ और मुनीम बैठते थे। बैठक की छत एक मोटी-लम्बी लकड़ी की बीम पर ढली है। सीधे तने वाले मोटे एक पेड़ के पुरे तने से तराश कर बनाई गई बीम। बारह फीट के दरवाजे में लगे लम्बे फट्टे और ये बीम सौ साल पहले के कारीगरों का कमाल था। बैठक में पीछे छोटे कमरे हैं जिनमें सामान सुरक्षित रखा जाता था। बैठक की खिड़कियों में गर्मियों में खस-खस की जालियों पर पानी छिड़का जाता था। बीम में अब भी वो कुंडे लगे हैं जिनसे हाथ से खींचने वाला पंखा लटका रहता था। बैठक भित्ति चित्रों से सजी है। बड़े मोटे गद्दे पर तकियों के सहारे बैठकर काम होता था। दोनों बैठकों से लगी एक-एक दुछत्ती है। बैठक की छत की आधी ऊँचाई पर बनी होने के कारण इन्हें दुछत्ती कहा जाता है। ये दुछत्तियाँ बाहर से आये व्यापारियों आदि के ठहरने के काम आती थीं।

अमूमन हवेलियों में जिस स्तर (ग्राउंड लेवल) पर बैठक होती है उसी लेवल पर हवेली के रिहायशी भाग का ग्राउंड फ्लोर होता है। 'काबरा बडी हवेली' की विशेषता यह है कि यह जमीन से 12 फीट ऊपर बनी है और नीचे चारों ओर बने कमरों और कोठरियों पर टिकी है। हवेली के प्रवेश द्वार से तीसरे चौक में आते हैं।

प्रवेश द्वार के ऊपर गणेश और रिद्धि-सिद्धि के चित्र बने हैं- दरवाजे के बाहर दोनों ओर कमर की ऊँचाई पर चौकोर पत्थर के दो मोखे बने हैं जिन पर बैठ नीचे अहातों का विहंगम दृश्य दिखता है। दरवाजे से घुसते ही जो जगह है उसे पोळ कहते हैं। अंदर के चौक और पोळ के बीच एक जालीनुमा पार्टीशन है जिसके दोनों ओर से अंदर प्रवेश किया जा सकता है। पार्टीशन दरवाजे के ठीक सामने होने से बाहर से सीधा अंदर नहीं देखा जा सकता। अंदर की प्राइवेसी बनी रहती है।

दुमंजिली हवेली के बीच का चौक भी ऊपर खुला है। चौक के चारों ओर कमरे बने हैं और बीच में रेत का कच्चा चौक था जिसे अब पक्का कर दिया गया है। कच्चा चौक यानी नीचे के कमरों के बीच 12 फीट भरी मिट्टी। चारों ओर के कमरे तिबारियों में खुलते हैं, उसके बाद कुछ पक्का

आँगन और बीच में कच्चा चौक। चारों ओर दिवाल और छज्जों पर भव्य भित्ति चित्र बने हैं। ये भित्ति चित्र हवेली की सुन्दरता में चार चाँद लगाते है। अंदर-बाहर पूरी हवेली पर भित्ति चित्र यानी फ्रेस्को पेंटिंग देखकर लगता है कि  ये हवेली एक ओपन आर्ट गैलरी है।

हवेली के अंदर के भित्त चित्र ऊपर बालकनी के छज्जों से लेकर नीचे के मेहराबदार तीबारी तक बने हैं। कोई भी हिस्सा बिना चित्रों के नहीं है। छज्जे के नीचे के चित्र छोटे-छोटे फूलों से घिरे गोलों में बने हैं। इन गोलों में ठाकुर, राजा-महाराजा आदि के चित्र बने हैं। छज्जों के बीच दिवाल पर चित्र कृष्ण लीला, राम दरबार, हनुमान, शिव-पार्वती, गणेश, रिद्धि-सिद्धि, लक्ष्मी-सरस्वती के हैं। इनके नीचे एक लाइन से गोलों की कड़ी में उस समय की सज-धज में पुरुषों महिलाओं के चित्र हैं। इसके बाद की सतह और तिबारी के मेहराबों तक बारीक फूल पत्ती के डिजाइन और पशु-पक्षियों के चित्र बने हैं।

यही नहीं समकालीन लोक गाथाओं के चित्र भी हवेली में बनाये गए हैं। कला धरोहर चित्रों की विषय-वस्तु स्वाभाविक है जो कि उस समय की जीवन शैली के को दर्शाते हुए जीवन के हर पहलू को जीवंत करते हैं।

कभी हवेली का जनाना आँगन महिलाओं की रोजमर्रा की गतिविधियों का केन्द्र था, चार भाइयों के परिवार की महिलायें। सवेरा होते-होते सब पुरुष बाहर, और महिलायें तिबारियों और आँगन में। ऊपर की मंजिल के कमरों से निकल कर सब बहू-बेटियाँ भी नीचे आँगन में। झाडूबुहारी, चक्की पीसती, बरामदा-रसोई धोती, बतियाती-हरजस गाती महिलायें, कैसा मनोरम दृश्य रहा होगा उस वक्त।

तब टॉयलेटस घर में नहीं होते थे। महिलायें बाल्टी में पानी ले जाकर अपने कमरों में ही नहाती थीं। पुरुष खुले में तख्त पर या कुएँ पर। स्नान घर में तो लड़कियाँ और बच्चे ही नहाते थे।

आज बंद पड़ी इस हवेली में उस वक्त पूजा-पाठ, घंटियों की टन-टन और आरती की मधुर स्वर लहरियां, दूध-नाश्ते की चहल-पहल। सुबह के खाने पर फिर सामूहिक बातचीत, छत, आँगन, नोहरे में भागते-दौड़ते या दुछत्तियों में छिपे पढ़ते-खेलते बच्चों की धमा-चौकड़ी ।

दोपहर को पुरुष बैठक में और महिलायें तिबारियों और आँगन में। एक दूसरे से साझा करती, अनाज छानती, बीनती, फटकती, मसाले कूटती, सब्जी सुधारती, बतियाती महिलायें। साँझ ढले फिर सामूहिक चहल-पहल । आँगन बुहारना, दिया-बाती करना, लालटेन, चिमनियाँ रोशन करना, खाना बनाना, खिलाना। इस तरह इस भव्य आँगन में यहाँ के सेठ और उनके परिजन अपने जीवन का आनंद लेते लेकर जीवंत व खुशहाल जिन्दगी जीते थे |

 

 

 

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