Type Here to Get Search Results !

History of Kachhvah Rajputs : कछवाहों की कलाप्रियता - 2

History of Kachhvah Rajputs : कछवाहों की कलाप्रियता - 2

पहले भाग से आगे .......

मूर्तिकला– मूर्ति कला के क्षेत्र में जयपुर का नाम भारत ही नहीं विदेशों में भी सर्वत्र प्रसिद्ध है। यहाँ के कलाविदों के कुशल हाथों ने पाषाणों में प्राण आरोपित कर जयपुर को कलाओं के नगर का विरुद्ध दिलवाया है। काले,श्वेत, लाल और पीत रंग के अनधड़ पाषाणों को भव्यता के उच्च शिखर पर पहुँचाने का गौरव जयपुर नगर को ही है। मूर्ति कलाओं के उदात्त नमूने गैटोर का राजकीय समाधि स्थल अनेकानेक छत्रियाँ जो आज अपनी पहंचिान खोती जा रही हैं। कछवाहा शासकों के कीर्ति स्थली हैं।

चित्रकला - चित्रकला में और भी कछवाहा नरेशों का भरपूर योगदान रहा हैं। यहाँ के शासकों ने कलाकारों को प्रश्रय देकर कला को खूब पनपाया। भारतीय चित्रकला के क्षेत्र में जयपुर तथा अलवर दो स्वतन्त्र शैलियों के जन्म का श्रेय कछवाहा शासकों को ही जाता है। मुगलकाल में पर्शियन चित्रशैली और राजपूत चित्र शैली के समिश्रण से मुगलशैली नाम की एक नवीन चित्रशैली का उद्भव हुआ। आमेर स्थित छत्रियों की फ्रेस्को शैली और जयपुर चित्रशैली अपनी कलाप्रियता के लिए बहुचर्चित चित्रशैलियाँ हैं। महाराजा सवाई प्रतापसिंह जयपुर का युग तो स्थापत्य शिल्प, चित्रकला और संगीतनाद कलाओं के लिए इतिहास में अविस्मरणीय स्थान रखता है। इसी काल में निर्मित शेखावाटी के भित्ति चित्राम अपनी कलात्मकता की कथनीयता के लिए देश विदेश के कलानुरागियों के आकर्षण के केन्द्र बिन्दु हैं।

संगीत नृत्य कला- कछवाहा शासक स्थापत्य और चित्रकला की भाँति ही ललित कलाओं के भी अनन्य प्रेमी रहे हैं। कला और कलाकारों के प्रोत्साहन के लिए यहाँ ‘गुणीजनखाना' नाम से एक अलग स्वतन्त्र विभाग था, जिसके अन्तर्गत गायक, गायिकाएँ, नर्तक और ख्यालों में पट्ट उस्ताद तथा कलाकारों का एक सवैतनिक अमला रहता था। जयपुर की ख्याल गायकी की शोहरत की खुशबू तो ग्वालियर इन्दोर आदि गायकी घरानों से सफल स्पर्धा करती थी। जयपुर का कत्थक नृत्य भी संगीत और नृत्य जगत में अपनी पहिचान रखता था।

अकबर का दिल्ली दरबार जब तानसेन की तानों और बैजूबाररा के बोलों से गूंजता था तब आमेर के महलों में भी मृदंग, जलतरंग और वीणा की मोहक मधुर ध्वनि जन-मन को मोह लेती थी। आमेर राजदरबार के ही अनुकरण और अनुराग के कारण जयपुर के जागीरदारों के गढकोटों और बाग वाटिकाओं में संगीत की स्वर लहरियाँ माधुर्य विकीर्ण करती थीं। महाराजा मानसिंह प्रथम के अनुज राजा माधोसिंह स्वयं भी नाटक और नृत्यादि में भरपूर रुचि रखते थे। पुण्डरिक विठ्ठल की 'रागमंजरी' संगीत काव्य के प्रणयन की दिशा में उल्लेखनीय प्रोत्साहन राजा माधोसिंह की ही देन थी। ___महाराजा रामसिंह द्वितीय तो संगीत और संगीतकारों के अपने समसामयिक भारतीय नरेशों में प्रबलतम संगीत प्रेमी नरेश थे। उन्होंने स्वयं ने उस्ताद अली खां से वीणावादन सीखा था। प्रसिद्धि है कि उनके दरबार में 161 के करीब संगीत, नर्तककारों को मोदीखाने से पेटिया मिलता था। प्रसिद्ध डागर घराने का आदि पुरुष उस्ताद बहरामखाँ महाराजा रामसिंह द्वारा पनपा कलाकार था गायिका जौहराजान की याद तो वृद्ध संगीतकारों के स्मृतिपटल पर आज भी पूर्णतया अंकित है। रामनिवास थियेटर महाराजा रामसिंह की स्मृति का अक्षय संगीत स्मारक है।

मनोरंजन-मनोरंजन के ब्याज से जयपुर राजवंश ने साटमारी, बाजदारी, हाथियों की लडाइयाँ आदि लोकानरंजन के क्षेत्र में जो देन दी थी वह एक ऐतिहासिक कार्य था। गैटोर की महाराजा ईश्वरसिंह की छत्री पर उन की साटमारी का अंकन किस दर्शक को आत्म-विभोर नहीं कर देता । महाराजा सवाई प्रतापसिंह की संगीत बाईसी और उनके हाथियों की लड़ाई में दिगलगीत विद्वत समाज में उनकी मनोरंजन प्रियता के उदाहरण माने जाते हैं।

कुंवर देवीसिंह मंडावा की पुस्तक "राजपूत शाखाओं का इतिहास" से साभार 

क्रमश:....


एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.

Top Post Ad

Below Post Ad

Ads Area