Chol Raja Parantak 1st. : चोल राजा परन्तक (प्रथम)-(ई.907 से ई.953)
आदित्य प्रथम के बाद उसका पुत्र परन्तक राज्य का उत्तराधिकारी बना, जिसने 45 वर्ष तक शासन किया तथा सफल सैनिक अभियानों के माध्यम से चौल साम्राज्य का विस्तार किया। सैनिक अभियान में पश्चिमी संघ, केरल तथा कोदम्बलर उसके विशेष सहयोगी व मित्रवत् रहे।
परन्तक ने शासन सम्भालने के तुरन्त बाद (प्रथम राज्य वर्ष) मदुरा पर आक्रमण किया तथा विजय प्राप्त कर ‘मदुरान्तका' (मदुरा का विजेता) उपाधि धारण की। पांड्य राजा राजसिन्हा ने मदुरा राज्य पुन: प्राप्त करने के लिए सिलोन के राजा के साथ मिलकर ई. 915 में परन्तक पर आक्रमण किया जो वैल्लर के युद्ध के नाम से प्रसिद्ध है। इस युद्ध में पांड्य और सिंहली (सिलोन) संयुक्त रूप से पराजित हुए। ई. 920 में पांड्य राजा राजसिन्हा लंका भाग गया। परन्तक ने ‘मदुरैयम इलामुनकोंडा' (मदुरा व सिलोन का विजेता) की उपधि धारण की। मदुरा विजय कोई आसान काम न था, बल्कि परन्तक अपने शासन काल के आधे समय तक इसके लिए जूझता रहा। शेष शासनकाल में उसने राज्य में व्यवस्था स्थापित करने के प्रयास किए।
ई.915 के करीब परन्तक ने पृथ्वीपति द्वितीय व पश्चिम संघ के राजा के सहयोग से बानाओं को भगा दिया तथा पृथ्वीपति को बनाधिराज हस्तीमल की उपाधि प्रदान की। ई. 915 में ही परन्तक ने रानाडू के बेदम्बस को पराजित किया, जो बानाओं का मित्र था। परन्तक ने वैलाल (तिरुबल्लम उत्तरी अमरकोट जिला) में निर्णायक युद्ध लड़ा, जिसमें पल्लवों की शेष शक्ति को समाप्त कर नेल्लूर के उत्तरी भागों पर आधकार कर लिया। इन विजयों से चौल राज्य की सीमाएँ उत्तरी पैनार से कैप कामरीन तक (पश्चिमी तट को छोड़, जो केरलों द्वारा शासित था) समस्त दक्षिण भारत को छूने लगी।
किन्तु चौल शक्ति की इस वृद्धि के कुछ समय बाद ही राष्ट्रकूट राजा कृष्णा तृतीय ने संघ के प्रधान बुटुगा द्वितीय के सहयोग से टोडामंडलम पर आक्रमण कर दिया। ई. 949 में ठाकोलम के इस निर्णायक युद्ध में चौल परन्तक पराजित हुआ तथा राजकुमार राजादित्य मारा गया। इससे परन्तक की साम्राज्यवादी इच्छाओं पर तुषारापात हुआ। परन्तक के हाथ से न केवल टोडामंडलम ही निकल गया, बल्कि पांड्य राजाओं से उसका नियन्त्रण भी समाप्त हो गया। परन्तक शिव भक्त था। चिदम्बरम में नटराज का मन्दिर उस समय की शिल्पकला का अनूठा उदाहरण है, जिसकी छत पर सोने की नक्काशी का उत्कृष्ट कार्य किया गया है। परन्तक का ई. 953 में देहान्त हो गया और अगले 32 वर्षों तक चौलों का राज्य लुप्त प्राय: सा रहा।
ई. 957 से ई. 973 के बीच चौल राजा सुदर्शन न वीर पांड्या व सिंहली गठबन्धन को पराजित कर राष्ट्रकूटों से टोडामंडलम पुन: जीत लिया, किन्तु इसका कोई स्थाई राजनैतिक लाभ नहीं मिला।