तेज सिंह चौहान
मैनपुरी की धरती पर क्रांतिकारी संघर्ष का नेतृत्व मैनपुरी के राजा तेजसिंह ने संभाला। 22 मई 1857 को मैनपुरी में यकायक विद्रोह की ज्वाला फूट पड़ी। नेवी नेटिव इन्फेंट्री के जवानों ने मालखाना लूट लिया। जेल का फाटक तोड़ दिया व भोगांव की तहसील लूट ली। उस समय राजा तेजसिंह नैनीताल में थे। जॉन पावर अपने सहयोगियों के साथ मैनपुरी के राजभवन में प्रशासन चला रहे थे। तेजसिंह के चचेरे भाई तथा प्रतिद्वंदी भवानी सिंह का समर्थन संपर्क बना हुआ था। तेजसिंह का नैनीताल से ही क्रांति के प्रमुख नेताओं से बराबर सम्पर्क बना हुआ था। वहां से सागर की विद्रोही सेना को मैनपुरी पहुँचने का सन्देश देकर वे मैनपुरी के लिए चल पड़े। उन्हें राजभवन में कलेक्टर पावर व उनके सहयोगियों की गतिविधियाँ पसंद नहीं आई, लेकिन उतराधिकार की लड़ाई व पारस्परिक विवादों ने उन्हें चुप रहने के लिए मजबूर कर दिया।
29 जून को जब कलेक्टर जॉन पावर को यह सूचना मिली कि विद्रोही सेना के एक हजार घुड़सवार व पांच सौ पैदल सैनिक दो बड़ी तोपों के साथ करहल मैनपुरी की ओर आ रहे है, तो उसने राजा तेजसिंह से सहायता की प्रार्थना की। लेकिन उन्होंने कलेक्टर पावर को सहायता देने से साफ इंकार कर दिया।
फलतः कलक्टर पावर को अपने साथियों के साथ आगरा की ओर भागना पड़ा। 30 जून को विद्रोही सेना ने मैनपुरी में प्रवेश कर अंग्रेजों के बंगले लूट लिए तथा कलेक्टर पावर के चले जाने के बाद खजाने की सुरक्षा कर रहे रिचार्ड, लारेंस व डेनोवल की हत्या कर दी। राजा तेजसिंह ने मैनपुरी को स्वतंत्र राज्य घोषित कर दिया। उन्होंने राज्य के सभी स्थानों व तहसीलों में पुलिस अधिकारी हटा दिए तथा उनके स्थान पर नए थानेदार व तहसीलदार नियुक्त कर सम्पूर्ण राज्य में घोषणा कर दी कि जो भी व्यक्ति अंग्रेजों के लिए कार्य करेगा, उसे कठोर सजा दी जाएगी। राजा तेजसिंह के साहस व देशभक्ति को देखकर जनता में वे लोकप्रिय हो गये व जनता का उन्हें भरपूर समर्थन मिला। उस समय मैनपुरी आगरा मंडल में अंग्रेज विरोधियों का एक महत्वपूर्ण केंद बन गया। राजा तेजसिंह अंग्रेज अधिकारीयों के मन में आतंक के पर्याय बन गये। इसलिए अंग्रेज हकुमत ने मैनपुरी पर निर्णायक हमले की योजना तैयार की। दिसम्बर 1857 के अंत में ब्रिगेडियर सीटन के नेतृत्व में सेना आने की खबर पाकर राजा तेजसिंह ने कुरावली से आगे मोर्चा लेने का निर्णय लिया। सीटन ने अपना निर्णय बदल राजा तेजसिंह पर पीछे से हमला किया, घमासान युद्ध हुआ। दोनों ओर से कई लोग मरे, 250 देशभक्त इस युद्ध में काम आये। राजा तेजसिंह को भी मैदान छोड़ना पड़ा, उनके घोड़े ने खरपरी के पास नाला पार करते हुए दम तोड़ दिया।
मैनपुरी पर अंग्रेज सेना का कब्जा हो गया। वहां मेरठ क्रांति के योद्धा ठाकुर राजनाथ सिंह अंग्रेजों के हत्थे चढ़ गए, जिन्हें उनके गांव में फांसी पर लटका दिया गया। इस पराजय का बदला लेने के लिए राजा तेजसिंह फिर सेना एकत्र करने में जुट गये। वे एटा पर आक्रमण करना चाहते थे, पर वहां उपस्थित भारी अंग्रेज सेना के चलते उनकी योजना सफल नहीं हुई। उन्होंने इटावा पर हमला किया और इटावा के कलक्टर ए.ओ. हयूम को भागना पड़ा। इसी दौरान ह्युम ने कुटनीतिक चाल चलते हुए सरकारी सहमती से राजा तेजसिंह के साथ शांति वार्ता आरम्भ की। अपनी कमजोर सैन्य शक्ति के कारण राजा ने भी संधि करना उपयुक्त समझा। इस तरह 11 जून 1858 को राजा तेजसिंह ने आत्मसमर्पण किया।
राजा को मैनपुरी का राज्य देने के बदले कई अनुचित शर्तें थी, जिन्हें राजा ने ठुकरा दिया, तब उन्हें बनारस में नजरबन्द कर दिया गया। नजरबंदी में सरकार ने उन्हें दस हजार रूपये वार्षिक भत्ता, दो हजार वार्षिक नौकरों के लिए खर्च दिया। नजरबंदी के दौरान एक बार बनारस का कलेक्टर शिकार खेल रहा था, राजा तेज सिंह भी संयोग से उधर चले आये थे, उसी वक्त अंग्रेज अधिकारी यह देख चकित रह गया कि राजा ने एक आक्रमणकारी शेर को अपनी तलवार के एक ही वार से मार गिराया। वह राजा की फुर्ती व कौशल के आगे नतमस्तक था और उनकी इसी वीरता से प्रभावित होकर उन्हें वाराणसी में मुक्त घुमने की आजादी दे दी गई। राजा तेजसिंह का बाकी जीवन बनारस में ही बीता और उनके निधन के बाद मिर्नकर्णिका घाट पर उनकी अंतेष्टि की गई।
राजा तेजसिंह चौहान के पराक्रम व उनकी देशभक्ति युग-युग तक मैनपुरवासियों के लिए प्रेरणा स्रोत बनी रहेगी।