रामगढ़ की रानी
रामगढ के राजा विक्रमाजीत अपने क्षेत्र के प्रमुख विद्रोही थे.
विद्रोहियों का मुख्य केंद्र रामगढ और सुहागपुर था. मण्डला प्रदेश के समस्त
छोटे-छोटे राजाओं ने क्रांति का झंडा उठा लिया था. सन 1857 की क्रांति की ज्वाला
समस्त देश में फ़ैल गई थी. रामगढ के विद्रोही राजा विक्रमाजीत की अचानक मृत्यु हो
गई और अंग्रेजों ने रामगढ का राज्य अपने अधिकार में ले लिया. रामगढ की रानी ने
इसका विरोध किया, परन्तु अंग्रेजों ने उनकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया.
रामगढ की वीरांगना रानी ने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध करने के लिए
क्रांतिकारियों के नेतृत्व की बागडोर अपने हाथ में ले ली. रामगढ की रानी ने सबसे
पहले रामगढ के तहसीलदार को हटाकर शासन सम्भाला. जबलपुर के कलक्टर को जब यह समाचार
मिला तो वह घबरा गया. उसने रामगढ की रानी को मण्डला के डिप्टी कलेक्टर से मिलने का
आदेश दिया. विद्रोही रानी पर इस आदेश का कोई प्रभाव नहीं पड़ा. उन्होंने सम्पूर्ण
उत्साह के साथ युद्ध की तैयारी शुरू कर दी और आस-पास के राजाओं से अंग्रेजों के
विरुद्ध युद्ध में सहायता मांगी. सुरक्षा की दृष्टि से रामगढ किले की मरम्मत करा
कर किले को सुदृढ़ किया.
अंग्रेज सेनाधिकारी रानी की गतिविधियों से भयभीत हो गये. कैप्टन
बैडिंगटन अपनी सेना लेकर मण्डला की ओर आगे बढ़ा. अंग्रेजों का शाहपुर के ठाकुरों
माओसिंह व हिम्मतसिंह से युद्ध हुआ. परन्तु ठाकुर माओसिंह व हिम्मतसिंह की सेना
अंग्रेजों से पराजित हो गई. उसके बाद कैप्टन बैडिंगटन अप्रेल 1858 को रामगढ की ओर
बढ़ा. रामगढ की वीरांगना रानी युद्ध के लिए तैयार थी. वह किले से बाहर निकल आई और
स्वयं सेना का संचालन कर अंग्रेजों के साथ वीरतापूर्वक घमासान युद्ध किया. इस
युद्ध में रानी अभूतपूर्व वीरता का प्रदर्शन किया. रानी को आशा थी कि रींवा के
राजा उसका साथ देंगे, परन्तु वह अंग्रेजों से जा मिले. यह देश का दुर्भाग्य था कि
जहाँ देश के समस्त राजाओं को अंग्रेजों के विरुद्ध एकजुट होकर युद्ध लड़ना चाहिए
था, वहां कुछ देशी राजाओं ने अंग्रेजों की
सहायता की. इसी सहायता की वजह से 1857 का स्वाधीनता संग्राम असफल हुआ.
रींवा के राजा से सहायता नहीं मिलने व उसका अंग्रेजों से मिलने के
बावजूद रामगढ की इस वीरांगना रानी ने रण चंडिका का रूप धारण कर अपने सैनिकों का
मार्गदर्शन करते हुए अपने से कई गुना बड़ी सेना के साथ भयंकर युद्ध किया. किन्तु
सैनिक संख्या के अधिक व शक्तिशाली अंग्रेज सेना के आगे वीरतापूर्वक युद्ध के
बावजूद रानी को युद्ध में पराजय का सामना करना पड़ा. लेकिन रानी ने हार स्वीकार
नहीं की और वह युद्ध क्षेत्र छोड़कर जंगल की ओर निकल गई. जंगल में रहकर रानी ने कई
बार अंग्रेज सैनिक शिविरों पर आक्रमण किया व उन्हें हानि पहुंचाई. अंग्रेजों
द्वारा रानी को पकड़ने के लिए सम्पूर्ण क्षेत्र की घेराबन्दी की. वीर रानी चारों ओर
से घिर गई, कोई उपाय न देखकर क्षत्रिय वीरांगनाओं द्वारा जौहर परम्परा का अनुसरण
करते हुए गिरफ्तार होने से पूर्व अपनी छाती में स्वयं तलवार घोंपकर मातृभूमि की स्वाधीनता
के लिए प्राणोत्सर्ग कर दिया. रानी ने मर कर भी देश के स्वाधीनता के लिए लड़ने वाले
क्रांतिकारियों को देश पर मर मिटने की प्रेरणा दी.
इतिहासकार शशिभूषण चौधरी ने रामगढ की इस वीरांगना रानी की तुलना रानी
दुर्गावती से की है. रानी की वीरता और बलिदान ने देश के इतिहास में एक स्वर्णिम
पृष्ठ जोड़ दिया. रानी ने देश के स्वाभिमान एवं गौरव परम्परा की रक्षा कर देश का
मस्तक ऊँचा कर दिया.