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नारायणसिंह (छत्तीसगढ़) : 1857 स्वतंत्रता संग्राम के योद्धा

 

नारायणसिंह (छत्तीसगढ़)

नारायणसिंह छत्तीसगढ़ के सोनाखान क्षेत्र के जमींदार थे. उन्होंने ब्रिटिश शासन के विरोध में हथियार उठाये थे. छत्तीसगढ़ के विभिन्न क्षेत्रों के क्रांतिकारियों के लिए सोनाखान एक सुरक्षित स्थान था. नारायणसिंह के अटूट देश प्रेम, शौर्य तथा बलिदान से जनता में देशभक्ति एवं स्वतंत्रता की भावना जागृत हुई थी.

रामपुर क्षेत्र की जनता सन 1857 में अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष के लिए उठ खड़ी हुई थी. रायपुर में तैनात अंग्रेजों की पैदल सेना के भारतीय सैनिकों ने स्वाधीनता संग्राम के प्रति सहानुभूति दिखाकर उनका साथ दिया था. अंग्रेज कैप्टन इलियट ने भारतीय सैनिकों को दबाने के लिए अनेक उपाय किये, परन्तु सफलता नहीं मिल सकी थी. इस समय छत्तीसगढ़ क्षेत्र में अकाल पड़ा था. आम जनता भूख से मर रही थी. अंग्रेज भक्त जमाखोर व्यापारी अनाज को अपने गोदामों में छिपाये बैठे थे. ऐसे समय में नवयुवक जमींदार नारायणसिंह ने एक गांव के व्यापारी माखन के विशाल गोदाम का ताला तोड़कर अनाज भूखी जनता में बाँट दिया था. नारायणसिंह चरित्रवान, ईमानदार और न्यायप्रिय व्यक्ति थे. भूखों मर रही जनता के प्राणों की रक्षा करने से नारायणसिंह की ख्याति बढ़ गई थी.

जमाखोर व्यापारी माखन ने अंग्रेज कमिश्नर से उसका गोदाम लूटने की शिकायत की. कमिश्नर ने नारायणसिंह की गिरफ्तारी का वारन्ट जारी कर दिया. धोखे से इन्हें सम्बलपुर में गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया. नारायणसिंह की गिरफ्तारी से आम जनता बहुत दुखी व क्षुब्द हुई और नारायणसिंह को जेल से मुक्त कराने का उपाय सोचने लगी. 1857 की क्रांति की आग छत्तीसगढ़ में भी भड़क चुकी थी. रामपुर में काबिज भारतीय थल सेना की तीसरी टुकड़ी ने विद्रोह कर क्रांतिकारियों का साथ दिया. देशी सैनिकों की सहायता से नारायणसिंह को जेल से छुड़ाने की योजना बनाई गई. 27 अगस्त 1857 की रात जेल की दिवार में सुरंग बनाकर नारायणसिंह को निकाल लिया गया था. नारायणसिंह ने सोनाखान क्षेत्र में पहुंचकर शीघ्रताशीघ्र सेना तैयार की. उनके पास 500 बंदूकधारियों की देश पर मर मिटने वाली सेना तैयार हो गई. अंग्रेज सेना से विद्रोह करके एक भारतीयों सैनिकों की टुकड़ी भी नारायणसिंह की सेना में शामिल हो गई. सोनाखान क्षेत्र के मार्गों की मोर्चाबन्दी कर ली गई थी.

इसके परिणाम स्वरूप अंग्रेज अधिकारीयों में घबराहट फ़ैल गई. रायपुर के डिप्टी कमिश्नर इलियट ने लेफ्टिनेंट स्मिथ को आदेश दिया कि वह जाकर नारायणसिंह को गिरफ्तार करे. स्मिथ की सेना ने खरौंद थाने पहुंचकर पड़ाव डाला. कुछ गद्दार जमींदारों ने स्मिथ की सेना का साथ दिया, उसमें मतगांव, बिलाईगढ़ और देवरी के अंग्रेज भक्त जमींदारों शामिल थे. 1 सितम्बर 1857 को लेफ्टिनेंट स्मिथ की सेना सोनाखान के पास पहुंची, उसी समय नाले के पास छिपी हुई नारायणसिंह की सेना ने धावा बोल दिया. इस छापामार गुरिल्ला युद्ध में अंग्रेजों की सेना की हार हुई और उन्हें पीछे हटना पड़ा. परन्तु स्मिथ की दूसरी सैनिक टुकड़ी ने सोनाखान ग्राम पर दूसरी तरफ से हमला कर दिया था. ग्राम की जनता पहले ही गांव खाली कर पहाड़ी पर सुरक्षित पहुँच गई थी. पहाड़ी पर से अंग्रेजी सेना पर गोलियां बरसाई. परिणाम स्वरूप स्मिथ को पीछे हटना पड़ा. दूसरे दिन स्मिथ की सहायता के लिए बिलासपुर से अतिरिक्त सेना पहुँच गई. नारायणसिंह की सेना का सन्तुलन बिगड़ गया और भागने लगी. परन्तु नारायणसिंह को धोखे से गिरफ्तार कर लिया. डिप्टी कमिश्नर इलियट ने न्याय का नाटक कर 10 दिसम्बर 1857 को नारायणसिंह को फांसी पर लटका दिया.

इस प्रकार से छत्तीसगढ़ का यह देशभक्त सपूत ने मातृभूमि को स्वाधीनता की बेड़ियों से मुक्त कराने हेतु संघर्ष करते हुए अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया. इस क्रांतिवीर की गाथा आज भी उस क्षेत्र के घर घर में याद की जाती है.      

 

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