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राजा अर्जुनसिंह : 1857 स्वतंत्रता संग्राम के योद्धा

राजा अर्जुनसिंह

देश में फिरंगियों की सत्ता उखाड़ फैंकने के लिए की गई क्रांति में पूर्वी भारत के क्रांतिकारियों में राजा कुंवरसिंह के बाद पोरहट के राजा अर्जुनसिंह का नाम सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है. राजा अर्जुनसिंह के नेतृत्व में बिहार में सिंहभूमि के कोल, मुण्डा, मनकी जाति के लोग अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांतिकारी सेना में शामिल हो गये. राजा अर्जुनसिंह ने रांची के निकट छबीसा में क्रांतिकारियों को एकत्र किया. वहां की प्रजा राजा अर्जुनसिंह को भगवान के समान मानती थी और उन पर अथाह विश्वास करती थी. राजा अर्जुनसिंह की योग्यता, न्यायप्रियता, दूरदर्शिता आदि ने उन्हें कोल जाति का स्वाभाविक नेता बना दिया था. छबीसा में क्रांति के लिए लोगों में उत्साह था. कुछ क्रांतिकारी नेताओं ने वहां की जनता में क्रांति की भावना कूट-कूट कर भर दी थी. वहां की जनता अंग्रेजों को देश से निकालकर अपने राजा अर्जुनसिंह का स्वतंत्र राज्य कायम करना चाहती थी. समस्त कोल जातियों ने क्षत्रिय राजा अर्जुनसिंह के नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध हथियार उठा लिए और राजा के प्रति वफादार रहने की शपथ ली.

क्रांतिकारियों ने राजा अर्जुनसिंह को सिंहभूमि का राजा मान लिया था. छबीसा में अगस्त 1857 को क्रांति प्रारम्भ हुई. इस समय छबीसा में कैप्टन सीसमोर असिस्टेन्ट कमिश्नर था. क्रांति का बिगुल बजते ही वह डर कर अपने परिवार सहित कलकत्ता भाग गया. उसने सिंहभूमि का शासन प्रबन्ध सरायकेला के राजा के अधिकार में छोड़ दिया. सरायकेला का राजा अर्जुनसिंह का घोर विरोधी था. राजा अर्जुनसिंह के भाई बैजनाथ सिंह तथा दीवान जग्गू ने वहां की प्रजा को अंग्रेजों के विरुद्ध करके सैनिक तैयारी कर ली थी. 3 सितम्बर 1857 को देशी पलटन छबीसा के सिपाहियों ने विद्रोह कर खजाने पर अधिकार कर लिया. खजाना लेकर चक्रधरपुर पहुंचकर खजाना राजा अर्जुनसिंह को सौंप दिया.

अंग्रेज सत्ता ने 16 सितम्बर को लेफ्टिनेंट वर्च को छबीसा का असिस्टेंट कमिश्नर नियुक्त किया. लेफ्टिनेंट वर्च ने राजा अर्जुनसिंह से समझौता करने के लिए उन्हें उनका राज्य वापस देने का आश्वासन दिया. इसके लिए शर्त रखी कि राजा अर्जुनसिंह छबीसा से लूटा खजाना व सैनिक सामग्री वापिस कर दे. राजा अर्जुनसिंह ने खजाने के 1957879 रूपये और सैनिक सामग्री अंग्रेजों को वापिस कर दी. परन्तु लेफ्टिनेंट वर्च ने दीवान जग्गू व राजा अर्जुनसिंह को विद्रोही घोषित कर धोखा दिया. राजा की सारी जमीन जायदाद जब्त करने का आदेश दिया. राजा को पकड़वाने के लिए ईनाम घोषित किया. दीवान जग्गू की सेना ने चक्रधरपुर में अंग्रेजों को हरा दिया. 3 दिन बाद 20 अक्तूबर को असिस्टेंट कमिश्नर ने एक बड़ी सेना लेकर चक्रधरपुर पर पुन: आक्रमण कर दिया. दीवान जग्गू की सेना का अंग्रेज सेना के साथ घमासान युद्ध हुआ जिसमें दीवान जग्गू की पराजय हुई और धोखा देकर उसे पकड़ लिया गया. अगले दिन बिना किसी न्यायालयी कार्यवाही के दीवान जग्गू को फांसी दे दी गई.

अंग्रेज सेना ने राजा अर्जुन सिंह के महल पर आक्रमण कर दिया. राजा महल से निकल कर अन्यत्र चले गये. अंग्रेजों ने राजा का सहयोग करने वाले आस-पास के गांवों में लूटमार की और आग लगाकर नष्ट कर दिये. अंग्रेजों के दुर्व्यवहार से राजा का क्रोध भड़क उठा. सिंहभूमि लौटने पर राजा को पता चला कि उनके प्रिय बच्चे की मृत्यु हो गई. उनको लगा कि अंग्रेजों को छबीसा का लूटा हुआ धन वापिस कर उन्होंने घोर पाप किया है इस कारण ही उनके बच्चे की अकाल मृत्यु हुई है. उनका मन पश्चाताप से भर गया और उन्होंने अपना परिवार चक्रधरपुर से पोरहट भेज दिया और भावी युद्ध की तैयारी आरम्भ कर दी.

राजा के आदेशानुसार बहुत से लुहार हथियार गोला बारूद तैयार कर सैन्य सामग्री एकत्र करने में लग गए. सिंहभूमि जिले में क्रांति का शंखनाद बज उठा. राजा अर्जुनसिंह का कोल जाति पर अधिक प्रभाव था. कोल जाति के लोग राजा का संकेत मिलते ही युद्ध में कूद पड़ने के लिए तैयार थे. छबीसा के बाजार में यह नारा चारों ओर गूंजता था- "प्रत्येक वस्तु ईश्वर की है. राजा ईश्वर का प्रतिनिधि है और इस देश का राजा अर्जुनसिंह है." कोल सैनिकों ने सबसे पहले उन लोगों को मारा जो उनके प्रिय राजा के विरोधी और अंग्रेज भक्त थे. उन्होंने जयन्तगढ़ के पुलिस स्टेशन को तहस-नहस कर दिया. दक्षिणी कोल्हन में क्रांति की ज्वाला धधक उठी. 14 जनवरी 1858 को कमिश्नर लुशिंगटन को मोंगदा नदी के पास एक सूखे नाले में घेर लिया. अंग्रेजी सेना "बारबीर" नामक स्थान पर आक्रमण करने जा रही थी. कोल सैनिकों ने उन पर तीर बरसा कर घायल कर दिया. बड़ी कठिनाई से अंग्रेज छबीसा पहुंचे. अर्जुनसिंह के नेतृत्व में कोल क्रांतिकारी अंग्रेजों पर बार बार आक्रमण कर उन्हें पीछे खदेड़ देते थे.

9 फरवरी 1858 को राजा अर्जुनसिंह की रियासत व भू सम्पत्ति जब्त कर ली गई थी. इससे नाराज होकर राजा अर्जुनसिंह ने चक्रधरपुर पर आक्रमण कर दिया, परन्तु सफलता नहीं मिली, उन्हें पीछे हटना पड़ा. राजा ने सैनिक तैयारी के साथ 10 जून 1858 को दूसरा आक्रमण किया. उन्होंने अपनी सेना को जुमरू के पास एकत्रित होने का आदेश दिया. समस्त चक्रधरपुर को राजा की सेना ने घेर लिया. युद्ध में अंग्रेजों की पराजय हुई, उन्हें जुमरू से पीछे हटना पड़ा. अंग्रेजों ने राजा के साथ शांति स्थापित करने का प्रयास किया. परन्तु राजा ने अंग्रेजों के शांति प्रस्ताव को ठुकरा दिया. वह जानते थे कि अंग्रेज उन्हें घोखा देकर बन्दी बनाना चाहते थे. अंग्रेजी की बड़ी सेना आ जाने के कारण राजा अर्जुनसिंह चक्रधरपुर से पीछे हटकर पोरहट चले गये. इसी समय राजा बैजनाथ सिंह ने आनंदपुर पर आक्रमण कर वहां के जमींदार को हटा दिया. वहां पर उन्हें सेना के उपयोग के लिए रसद व आवश्यक वस्तुएं प्राप्त हुई. अंग्रेजों ने 29 जनवरी को कोरड़ी हम पर हमला किया. इस युद्ध में अंग्रेज विजयी हुये. राजा अर्जुनसिंह बच कर निकल गये.

अब अंग्रेजों ने राजा अर्जुनसिंह के ससुर मयूरभंज के राजा को फंसाया और उन्हें प्रलोभन दिया कि वे राजा अर्जुनसिंह को आत्म-समर्पण के लिए प्रेरित करें. राजा अर्जुनसिंह निराश हो चले तथा वह सम्बलपुर में क्रांतिकारियों के पास जाना चाहते थे. लेकिन लेफ्टिनेंट वर्च ने राजा को चारों ओर से घेर रखा था. बाहर निकलने का कोई रास्ता न रहा. डेढ़ वर्ष तक लगातार राजा अर्जुनसिंह ने अंग्रेजों से मुकाबला किया. परन्तु 15 फरवरी 1859 को मयूरभंज के राजा जो राजा अर्जुनसिंह के ससुर थे, इन्होंने राजा अर्जुनसिंह को अंग्रेजों के हवाले कर दिया.     

 

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