ठाकुर रणमत सिंह बघेल
ठाकुर रणमत सिंह बघेल मध्यप्रदेश के सतना जिले के मनकहरी गांव के
निवासी थे. रणमत सिंह ने देश को विदेशी दासता से आजाद कराने के लिए हुई सन 1857 की
क्रांति में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया. इनके पिता रीवा महाराज विश्वनाथसिंह के
सरदार थे. 1857
में देश को विदेशी दासता से मुक्त कराने हेतु अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता
संग्राम का बिगुल बज चुका था। वीर कुंवरसिंह की क्रांतिकारी गतिविधियों का इस
क्षेत्र में प्रभाव स्पष्ट था. रीवा की सेना में भी अंग्रेजों के खिलाफ असंतोष था.
देशभक्त नागरिकों, सामंतों, देशी रियासत के राजाओं के सिर पर देश को गुलामी की जंजीरों से जकड़ने
वाले अंग्रेजों का सिर कलम कर उन्हें भागने को मजबूर करने का भूत सवार था। ऐसी दशा
ने ठाकुर रणमत सिंह बघेल का क्षत्रिय खून उबाल खाये बिना कैसे रह सकता था। उनकी भी
भुजाएं अग्रेजों से दो दो हाथ करने को फड़क रही थी और आजादी के उस महान यज्ञ में
अंग्रेज अफसरों के खून की आहुति देने को उतावली हो रही थी।
ठाकुर रणमत सिंह रीवा और पन्ना के बीच के
क्षेत्र को बुन्देलों से मुक्त कराने का प्रयास कर रहे थे. ठाकुर रणमत सिंह
पॉलिटिकल एजेन्ट आसबोर्न की गतिविधियों से क्षुब्ध थे. अत: रीवा नरेश के सम्मानित
सरदार और उच्च सैन्य अधिकारी ठाकुर रणमत सिंह बघेल ने बिहार के बाबू कुंवरसिंह, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई आदि
स्वतंत्रता सेनानियों का अनुसरण करते हुए, अंग्रेजी हकुमत के खिलाफ बगावत करते
हुये रणभेरी बजा दी। हालाँकि 1857 की क्रांति अपनी समाप्ति की ओर अग्रसर थी, फिर भी उन्होंने अपने क्षेत्र के
पॉलिटिकल एजेंट ओसवान के बंगले पर आक्रमण किया पर इस हमले में ओसवान भाग निकला, तब रणमत सिंह ने 1 अप्रेल 1858 को अपने
करीब तीन सौ वीर साथियों के साथ नागौद में अंग्रेजों की छावनी पर आक्रमण किया।
जहाँ मेजर केलिस को मार कर कब्जा जमा लिया। इस सफलता से प्रोत्साहित होकर ठाकुर
रणमत सिंह ने अपने दल सहित अंग्रेजों की एक और बड़ी छावनी नौगांव की और रुख किया, जहाँ मेजर कर्क की तगड़ी व्यूह रचना के
कारण सफलता नहीं मिली। रणमत सिंह तांत्या टोपे से मिलना चाहते थे परन्तु वह
अंग्रेजों की घेराबंदी को नहीं तोड़ सके और वापस लौट आये. बरौंधा में भी अंग्रेजी
सेना की एक टुकड़ी के साथ रणमत सिंह का युद्ध हुआ जिसमें अंग्रेज टुकड़ी परास्त हुई.
सन 1857 की क्रांति में देशभक्तों की स्थिति
कमजोर पड़ने लगी थी और क्रांति समाप्ति की और अग्रसर थी. रानी लक्ष्मीबाई शहीद चुकी
थी. सन 1858 में बांदा में एक अंग्रेज सेना ठाकुर रणमतसिंह का पीछा करने लगी.
अंग्रेज उन्हें गिरफ्तार करने के लिए पीछे लगे थे. उनकी सूचना देने वाले के लिए दो
हजार रूपये का पुरस्कार घोषित किया गया था. ठाकुर रणमत सिंह क्योटी की गढ़ी में
छिपे हुए थे. जिसकी गुप्त सूचना अंग्रेजों को मिली तो उन्होंने गढ़ी को घेर लिया.
अंग्रेजों के साथ रीवा की सेना भी थी. उसका ठाकुर दलथम्भन सिंह कर रहे थे. उन्होंने रणमत सिंह को वहां से
सुरक्षित भाग निकलने में मदद की. कुछ समय बाद वे अंग्रेजों द्वारा पकड़ लिए गए और
सन 1859 में आगरा जेल में उन्हें फांसी दे दी गई.