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1857 स्वतंत्रता संग्राम : भूमिका

 भूमिका संसार में खास तौर से पश्चिमी देशों में स्वतंत्रता की हवा तेजी से बह रही थी. अंग्रेजी भाषा के आगमन व विदेशों से शिक्षित होकर आये भारतियों के माध्यम से स्वतंत्रता के नाम पर पूंजीवाद की हवा हमारे देश में भी बहने लगी थी. प्रश्न केवल यह था कि इस आन्दोलन का अग्रणी कौन हो. क्षत्रियों ने अग्रणी होने का निश्चय किया व क्रांतिकारी आन्दोलन का आरम्भ तीन श्रेणियों में आन्दोलन को विभक्त कर आन्दोलन चलाने का निश्चय किया. पहले भाग में देश की ब्रिटिश सेनाओं में अंग्रेजों के प्रति नफरत फैलाना व उनमें देशभक्ति व स्वतंत्रता की चाह पैदा करना था. दूसरा चरण था सेना के सेवानिवृत सैनिकों को क्रांति के लिए तैयार करना व उनको शस्त्र उपलब्ध कराना तथा तीसरा चरण था ऐसे प्रभावशाली लोगों को क्रांति के लिए तैयार करना जिनके प्रभाव से सभी वर्गों के लोगों को क्रांति के लिए तैयार किया जा सके. ये तीनों कार्य योजनाबद्ध तरीके से साथ-साथ चले व क्रांति को आरम्भ करने की तिथि भी निश्चित हो गई, किन्तु दुर्भाग्य से अंग्रेजों के गुप्तचरों को क्रांति आरम्भ करने की तिथि से दो दिन पहले इस योजना का पता चल गया. जिसका परिणाम यह हुआ कि सेना के अन्दर होने वाले बड़े विद्रोह को बहुत हद तक अंग्रेज रोकने में सफल हो गये. शेष दोनों वर्गों ने नियत तिथि पर क्रांतिकारी आन्दोलन आरम्भ कर दिया. लेकिन सेना के अन्दर से अपेक्षित सहयोग नहीं मिलने के कारण अंग्रेजों को बहुत बड़ी राहत मिल गई व उन्होंने सैन्य शक्ति के बल पर क्रांति को दबाने में सफलता प्राप्त कर ली. चाहे वे कुंवरसिंह हों, राजस्थान के राव गोपालसिंह खरवा, महाराष्ट्र के तांत्या टोपे, उत्तरप्रदेश के राजा निरंजनसिंह चौहान, रूपसिंह सेंगर, मध्यप्रदेश के..............

ये सभी राजपूत थे, जिन्होंने क्रांति का नेतृत्व किया. हजारों लोगों ने बलिदान दिया व कितने ही लोगों ने अपने राज्य व जागीरें खोई. झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई को भी अपने क्षेत्र व समाज से अपेक्षित सहयोग नहीं मिला, लेकिन उत्तरप्रदेश व मध्यप्रदेश के राजपूतों ने उसका भरपूर सहयोग कर ग्वालियर तक उसके क्रांति रथ को पहुँचाया. इस प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की असफलता के बाद क्रांतिकारियों की जो दूसरी पीढ़ी पैदा हुई उसमें भगतसिंह, राजगुरु, चन्द्रशेखर जैसे सैंकड़ों बलिदानी सम्मलित हुए, लेकिन उन्होंने आतंक फैला कर अंग्रेजों को भयभीत करने का रास्ता अपनाया. राजपूत अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए इस प्रकार के आन्दोलन से पीछे हट गये. आजादी के बाद जो कुछ भी लिखा गया वह इन क्रांतिकारियों की दूसरी पीढ़ी के बारे में ही लिखा गया व प्रथम आन्दोलन के नेताओं की उपेक्षा हुई.

देश की स्वतंत्रता की नींव राजपूतों के नेतृत्व में चले प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में ही रख दी गई थी. अंग्रेजों की सेना का एक सेनापति जो प्रथम क्रांति को कुचलने में अग्रणी था, ने ही इंडियन नेशनल काँग्रेस की स्थापना कर अंग्रेजों की इस योजना को उजागर कर दिया था कि उन्हें देश छोड़कर जाना है व जाने से पहले काँग्रेस के झण्डे के नीचे बुद्धिजीवी व पूंजीपतियों के एक ऐसे संगठन का निर्माण कर देना है जिसके माध्यम से इस देश की सरकार पश्चिम की निगरानी में काम करते हुए पाश्चात्य सभ्यता, संस्कार व भाषा का इस देश में प्रचार, प्रसार करती रहे और वे ऐसे लोगों के हाथ में सत्ता सौंप कर अपने देश को लौटने में सफल हुये. देश को आजादी दिलाने में पहली व तीसरी पीढ़ी का ही महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है. पहली और तीसरी पीढ़ी की विचारधारा और कार्यक्रमों में भी समानता रही है. क्रांतिकारियों की तीसरी पीढ़ी के नेता सुभाषचंद्र बोस ने भी सेनाओं में बगावत करवा कर बड़ी क्रांति को जन्म दिया था. अंग्रेजों को भयभीत कर देश छोड़ने को मजबूर करने में उनकी क्रांति का बहुत बड़ा योगदान रहा लेकिन आजादी के बाद इस क्रांति के भी प्रचार-प्रसार की उपेक्षा की गई.

इस पहली और तीसरी क्रांति में लोगों ने सर्वाधिक त्याग और बलिदान किया. उन बलिदानियों के इतिहास को ढूढ कर उसे प्रचारित करने की आज बहुत बड़ी आवश्यकता है.
लेखक : श्री देवीसिंह महार

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