पिछले लेख से आगे.....अब हम कुशन (यूची) वंशियों के विषय का कुछ विवेचन करते हैं
ऊपर वर्णन किये हुए उनके सिक्कों से भी यही पाया जाता है । उक्त सिक्कों में राजा के सिर पर या तो लंबी टोपी या मुकुट, बदन पर कोट और पैरों में लंबे बूट दीख पड़ते हैं,जो उक्त शीतप्रधान देश के लिए आवश्यक हैं । हिन्दुस्तान में आने के पीछे भी वे वैदिक और बौद्ध धर्म के अनुयायी रहे थे।
प्राचीन काल से भारत के क्षत्रिय राजाओं में देवकुल बनाने की प्रथा थी। राजाओं की मृत्यु के पीछे उनकी मूर्तियां रखी जाती थीं। प्रसिद्ध कवि मास ने, जो कालिदास से भी पूर्व हुआ था, अपने 'प्रतिमा नाटक' में अयोध्या के निकट बने हुए रघुवंशियों के देवकुल का वर्णन किया है, जिसमें राजा दिलीप,रघु, अज और दशरथ की मूर्तियां रखी हुई थी। पाटलीपुत्र (पटना) के निकट पुराणप्रसिद्ध शिशुनागवंशी राजाओं का देवकुल था । जहां से उस नगर को बसाने वाले महाराज उदयन और सम्राट नंदीवर्द्धन की मूर्तियां मिली हैं। कुशनवंशी राजाओं का देवकुल मथुरा से ९ मील माट गांव में था। वहां से एक शिलालेख १४ टुकड़ों में मिला, जिसका कुछ अंश नष्ट भी हो गया है। उसका आशय यह है-“सत्यधर्मस्थित महाराज राजातिराज देवपुत्र हुविष्क के दादा का यहां देवकुल था, जिसको टूटा हुआ देखकर महाराज राजातिराज देवपुत्र हुविष्क की आयु तथा बलवृद्धि की कामना से महादंडनायक....के पुत्र व पति...ने उसकी मरम्मत करवाई।
इससे
स्पष्ट है कि कुशनवंशियों में भी रघु और शिशुनागवंशी राजाओं के समान देवकुल बनाने
की प्रथा थी। इन बातों को देखने से इनका आर्य होना निश्चित है। इन राजाओं के
राजत्वकाल के कई बौद्ध,
जैन और ब्राह्मणों के
शिलालेख मिले हैं,
जिनमें संवत्, इनके नाम तथा खिताब मिलते हैं, परन्तु अब तक इनके खुदवाये हुए ऐसे लेख नहीं
मिले, जिनसे इनकी वंशपरंपरा, विस्तृत वृत्तांत्न या इनके शादी व्यवहार आदि
का पता चलता हो । ऐसी दशा में यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि भारत के प्राचीन
क्षत्रिय राजवंशियों के साथ इनके विवाह आदि संबंध कैसे थे, परंतु इनके आर्य होने और शिव, अग्नि, सूर्य आदि देवताओं के उपासक होने से क्षत्रियों का इनके साथ संबंध रहा हो
तो आश्चर्य नहीं।
क्रमश:....