भाग - 2 से आगे .....प्रतिहार अपने आप को अग्निवंशी मानते हैं, अग्विवंशी होने का क्या तात्पार्य है इसके विषय में मैंने पहले ही लिखा है और यहाँ फिर इसे वर्णित करता हूँ।
अब विचारणीय प्रश्न यह शेष रहता है कि क्या अग्निवंश की धारणा सिर्फ कपोल कल्पना है या इसके पीछे कोई ऐतिहासिक
घटना है?
तब फिर यह अग्निवंश क्या है? इस प्रश्न का उत्तर खोजने हेतु हमें
भारत के प्राचीन इतिहास की खोज करनी होगी। भारत में वैदिक धर्म ब्राह्मणों के
नियन्त्रण में आ गया था. और उसके विरुद्ध बद्ध ने बगावत करके अपना नया धर्म
प्रारम्भ किया था। शनैः शनै: सम्पूर्ण क्षत्रिय वर्ण वैदिक धर्म को छोड़कर बौद्ध
धर्म को अंगीकार करता चला गया। भारत में चारों कोनों में बौद्ध धर्म का प्रचार हो
गया था। क्षत्रिय बौद्ध हो गये थे, उन्हीं
के साथ वैश्य समाज के भी बौद्ध धर्म में चले जाने के कारण उनकी वैदिक क्रियाएँ व
परम्पराएँ समाप्त हो गई। इस प्रकार वैदिक क्षत्रिय जो सूर्यवंशी कहलाते थे, अब उन परम्पराओं के समाप्त हो जाने से
वे सूर्यवंशी व चन्द्रवंशी कहलाने से रह गये क्योंकि यह मान्यतायें तो वैदिक धर्म
की थी,
जिसे अब वे छोड़ चुके ये और
बौद्ध धर्म स्वीकार करे चुके थे जिसमें ऐसी कोई मान्यतायें नहीं थी। वैदिक
परम्परायें नष्ट प्राय: हो चुकी थी और इस कारण से अप्रसन्न होकर ब्राह्मणों ने
पुराणों तक में यह लिख दिया कि कलियुग के राजा सब शूद्र ही होंगे। उस युग में
ब्राह्मण और शूद्र ही हिन्दू रह गये थे।
उस युग में समाज रक्षा तथा शासन संचालन का कार्य क्षत्रियों का था, किन्तु । बौद्ध हो चुके थे, इसलिये वैदिक धर्म की रक्षा का प्रश्न ब्राह्मणों के सामने बड़ा जटिल हो गया था। तब उन्होंने किसी रूप में क्षत्रियों को वापस वैदिक धर्म में लाने के प्रयास शुरू किये। उस समय ब्राह्मणों के मुखिया कहिये ऋषि कहिये उनके अथक प्रयासों से प्रारम्भ में चार क्षत्रिय कुलों को बौद्ध धर्म से वापस वैदिक धर्म में दीक्षित किया गया और आबू पर्वत पर यज्ञ करके बौद्ध धर्म से उनका वैदिक धर्म में समावेश किया गया। यही अग्निवंश का प्रारम्भ है। | छत्रपुर की प्राचीन वंशावली में भी पंवारों के आदि पुरुष को बौद्धों के उत्पात । तंग आकर ऋषियों द्वारा उत्पन्न करना माना गया है। वंश भास्कर में भी बौद्धों के उत्पात । अग्निवंश वाले कुलों को उत्पन्न करना माना है। अबूल फजल के समय तक यह तो केन्हीं प्राचीन ग्रन्थ से या प्राचीन मान्यताओं से विदित था कि ये चारों कुल बौद्ध मत वापस वैदिक धर्म में आये थे। इसी मान्यता का उल्लेख अबूल फंजल ने आइने अकबरी किया है।
आबू पर्वत पर यज्ञ करके चार क्षत्रिय
कुलों को वापस वैदिक धर्म की दीक्षा देने ग एक ऐतिहासिक कार्यक्रम था, जो करीब 6ठी या 7वीं सदी में हुआ। यह कोई कपोल' ल्पना नहीं थी और न कोई मिथ्या बात थी, अपितु वैदिक धर्म को पुन: सशक्त करने
प्रथम कदम था, वह कुण्ड
आज भी आबू पर्वत पर विद्यमान है, जिसकी
याद के रूप बाद में ये कुल अपने आपको अग्निवंशी कहने लगे।
क्षत्रिय व वैश्यों के बौद्ध धर्म ग्रहण करने के बाद वैदिक संस्कार तो लुप्त हो गये थे, यहां तक कि वे शनै: शनै: आने गौत्र तक.को भी भूल चुके थे। जब वे वापस वैदिक धर्म में आये तब क्षत्रियों तथा वैश्यों द्वारा नये सिरे से पुरोहित बनाये गये। उन्हीं के गौत्र, उनके यजमानों के भी मान लिये गये। इसलिए समय-समय पर नये स्थान पर जाने पर जब पुरोहित बदले तो उनके साथ अनेक बार गौत्र भी बदलते चले गये। इतिहासकार वैद्य और ओझा की भी यही मान्यता है।
लेखक : देवीसिंह मंडावा : पुस्तक - प्रतिहारों का मूल इतिहास